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आरक्षण और जातिवाद

७ फ़रवरी २०१४

कांग्रेस के महासचिव जाति आधारित आरक्षण पर बहस चाहते थे. बहस का अंत सोनिया गांधी के इस बयान से हुआ है कि आरक्षण को जारी रखने पर कांग्रेस पार्टी के रवैये पर कोई संदेह नहीं रहना चाहिए.

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तस्वीर: DW/S. Waheed

जो लोग राजनीतिक दलों के भीतर लोकतांत्रिक बहस और असहमति की अभिव्यक्ति के अधिकार की मांग करते हैं, वही कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी के जाति-आधारित आरक्षण के बारे में बयान पर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं. मंगलवार को द्विवेदी ने दो टूक ढंग से कहा था कि सामाजिक न्याय की अवधारणा अब जातिवाद में बदल गई है और इसे तोड़ने की जरूरत है. जाति-आधारित आरक्षण को बहुत पहले समाप्त हो जाना चाहिए था लेकिन निहित स्वार्थों के कारण ऐसा नहीं हो पाया. द्विवेदी ने यह सवाल भी उठाया कि क्या वाकई आरक्षण के लाभ दलित और पिछड़ी जातियों के गरीब और जरूरतमंद लोगों तक पहुंच पाते हैं? उनकी राय थी कि इन जातियों के ऊपर उठ चुके लोग ही आरक्षण का फायदा उठाते हैं. उन्होंने कहा कि क्योंकि आने वाले लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी का घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी लोगों से सुझाव ले रहे हैं, इसलिए उन्हें इस मसले पर साहसिक रुख अपनाना चाहिए और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के बारे में सोचना चाहिए.

द्विवेदी का यह बयान आते ही कांग्रेस के भीतर और बाहर भूचाल-सा आ गया. कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगा कि चुनाव से ऐन पहले इस तरह के बयान से पार्टी को नुकसान होगा. उधर सभी विपक्षी दलों ने इस बयान को बहाना बना कर कांग्रेस पर हमला बोल दिया. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने कहा कि यह मनमोहन सिंह सरकार के कुशासन और घोटालों से जनता का ध्यान हटाने के लिए उठाया गया मुद्दा है और कांग्रेस यह देखना चाहती है कि इस प्रस्ताव पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है. बुधवार को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सांसदों ने संसद में भी इस मुद्दे पर हंगामा किया जिसके जवाब में संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ल ने स्पष्ट किया कि सरकार ऐसे किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी बुधवार की शाम एक बयान जारी करके घोषणा की कि कांग्रेस ने ही जाति-आधारित आरक्षण शुरू किया था और बाद में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण भी उसी ने लागू कराया था. इसलिए इसे समाप्त करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था से छेड़छाड़ किए बिना सभी जातियों के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े तबकों के लिए भी आरक्षण की संभावना तलाशने के लिए एक ‘संवाद' शुरू किया गया है. इससे स्पष्ट है कि जनार्दन द्विवेदी हवा में लंगर नहीं घूमा रहे थे. कहीं कुछ चिंगारी जरूर थी, तभी धुआं उठा.

भाजपा इसे केंद्र सरकार की कमियों से ध्यान हटाने का पैंतरा बता रही हैतस्वीर: Dibyanshu/AFP/Getty Images

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि दलितों के मसीहा और संविधान के निर्माता माने जाने वाले भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में यह प्रस्ताव रखा था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में केवल तीस या चालीस साल तक ही आरक्षण दिया जाए और इसके साथ यह प्रावधान भी हो कि इस अवधि को किसी भी सूरत में बढ़ाया नहीं जाएगा. अंबेडकर इस बात के सख्त खिलाफ थे कि समाज का कोई भी अल्पसंख्यक तबका सदा के लिए अल्पसंख्यक ही बना रहे. उनका विजन था कि अपना विकास करने के बाद उस तबके को शेष समाज में घुलमिल जाना चाहिए और अपना विशेष दर्जा छोड़ देना चाहिए. अंबेडकर का प्रसिद्ध कथन है: "यह अनुचित है कि बहुसंख्यक अल्पसंख्यक समूह के अस्तित्व से इंकार करें, लेकिन यह भी उतना ही अनुचित है यदि अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक ही बने रहना चाहें." लेकिन संविधान सभा ने उनकी बात न मानकर आरक्षण के लिए केवल दस वर्ष की अवधि निर्धारित की. पर इसके साथ ही यह प्रावधान भी जोड़ दिया कि जरूरत समझी जाये तो इस अवधि को बढ़ाया जा सकता है. नतीजा यह है कि आज संविधान लागू होने के 64 वर्ष बाद आरक्षण लागू है.

अंबेडकर ने रखा था अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रस्तावतस्वीर: AP

यही नहीं, 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके अन्य पिछड़ी जातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी. अब स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में 49.5 प्रतिशत आरक्षण है. यही नहीं, सरकारी सेवा में प्रोन्नति में भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई है. भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया जैसे राजनीतिक नेता और चिंतक जाति पर आधारित आरक्षण को जातिव्यवस्था समाप्त करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे, उसे मजबूत करने के लिए नहीं. अंबेडकर की तो एक पुस्तक का शीर्षक ही "जाति का संहार" है. लेकिन स्वतंत्रता के बाद का इतिहास बताता है कि पिछले सात दशकों में जाति व्यवस्था टूटने के बजाय और अधिक मजबूत ही हुई है और आरक्षण सामाजिक न्याय का पर्याय बन गया है.

देश में जाति-आधारित पार्टियों की संख्या और शक्ति में भी वृद्धि हुई है. भले ही दावा कुछ भी करें, लेकिन समाजवादी पार्टी यादवों और बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टियां बनकर रह गई हैं. कुर्मी, मल्लाह और इसी तरह की अन्य जातियों की भी अपनी-अपनी छोटी-छोटी पार्टियां हैं. राजस्थान में गूजर कई बार लंबे समय तक पिछड़ी जाति का दर्जा पाने के लिए उग्र और हिंसक आंदोलन चला चुके हैं. अब हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के जाट भी यही मांग उठा रहे हैं ताकि उन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके. राजनीतिक दल भी इन आंदोलनों की आंच पर अपनी रोटियां सेंकने से नहीं चूकते. वे कभी भी जनता को यह नहीं समझाते कि आरक्षण सामाजिक विकास का एकमात्र जरिया नहीं हो सकता.

कांग्रेस के पीछे पिछड़ी जातियों का समर्थन नहीं है. सवर्ण भी उसे छोड़ कर अन्य पार्टियों का रुख कर चुके हैं. ऐसे में यदि उसके कार्यकर्ताओं और जनार्दन द्विवेदी जैसे नेताओं को यह लग रहा है कि आरक्षण के मुद्दे पर पुनर्विचार होना चाहिए तो यह आश्चर्य की बात नहीं. आश्चर्य की बात सिर्फ यह है कि उनके जैसे कद्दावर नेता ने अपनी निजी राय को सार्वजनिक कर दिया और बदले में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से झिड़की खाई.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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