आरक्षण की व्यवस्था को लेकर इसके विरोधियों और समर्थकों में लगातार बहस हो रही है. लेकिन शिक्षा और नौकरियों के अवसरों के अलावा सामाजिक ताने बाने को प्रभावित करने वाली इस बहस की दिशा पर शिवप्रसाद जोशी सवाल उठाते हैं.
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संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) मेन की परीक्षा में इस बार दस लाख 43 हजार से ज्यादा छात्र बैठे थे. दो लाख 31 हजार छात्र सफल रहे यानी वे आईआईटी की एडवान्स्ड परीक्षा में बैठने के लिए क्वालीफाई कर गए हैं. इनमें से 50 हजार से कुछ ज्यादा लड़कियां हैं. करीब साढ़े 11 हजार छात्र तो आईआईटी में जाएंगे बाकी देश के अन्य सरकारी और निजी इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिले की होड़ में शामिल होंगे. जेईई की एडवान्स्ड परीक्षा के लिए क्वालीफाई करने वाले एक लाख 11 हजार छात्र सामान्य श्रेणी, 65 हजार ओबीसी, करीब साढ़े 34 हजार एससी, 17 हजार एसटी, और करीब 2700 विकलांग श्रेणी से हैं. सामान्य श्रेणी का अधिकतम कटऑफ 350 और न्यूनतम कटऑफ 74 था वहीं ओबीसी का न्यूनतम 45, एससी एसटी और विकलांग श्रेणियों का न्यूनतम कटऑफ़ क्रमशः 29, 24 और -35 था. इन श्रेणियों में अधिकतम अंक 73 थे.
कट ऑफ अंकों में विशाल अंतर को अलग अलग नजरियों से देखा जा रहा है. एक नजरिया आरक्षण के लाभार्थियों को घुसपैठी के तौर पर देखने का भी है. समाज में सामान्य बनाम आरक्षित श्रेणियों के बीच टकराहट और कलुषता के बीच बहस उठने लगी है कि आरक्षण से विपन्न वर्गों के छात्रों का कोई फायदा हो न हो, सामान्य वर्ग के गरीब छात्रों का नुकसान हो रहा है, इसीलिए कुछ वर्ष पहले आरक्षित वर्गों में क्रीमी लेयर को चिंहित करने की मांगें भी उठी थीं जिस पर सरकारें खामोश ही हैं, उल्टा राज्यों में तो सुप्रीम कोर्ट की 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण न देने की सीलिंग से आगे जाकर भी आरक्षण की व्यवस्था है. जैसे तमिलनाडु, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात आदि राज्यों में. लेकिन आरक्षण को अपने मौकों पर डाका डालने वाली व्यवस्था बताना एक तरह से इस पूरे मामले का सामान्यीकरण या सरलीकरण करने जैसा ही है.
जब दलितों ने जताया जमकर विरोध
लंबे समय तक हाशिए पर रहा दलित समाज अब राजनीतिक रूप से जागरुक नजर आने लगा है. पिछले कुछ समय में ऐसे कई मौके आए जब दलितों ने अपनी आवाज बुलंद की और विरोध प्रदर्शन भी किए. एक नजर दलित आंदोलनों पर
तस्वीर: AP
दलित-मराठा टकराव (जनवरी 2018)
महाराष्ट्र में साल 2018 की शुरुआत दलित-मराठा टकराव के साथ हुई. भीमा-कोरेगांव लड़ाई की 200वीं सालगिरह के मौके पर पुणे के कोरेगांव में दलित और मराठा समुदायों के बीच टकराव हुआ जिसमें एक युवक की मौत हो गई. मामले ने तूल पकड़ा और पूरे महाराष्ट्र में इसकी लपटें नजर आने लगीं. दलितों संगठनों ने 3 जनवरी को महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया. इस बीच प्रदेश के अधिकतर इलाकों से हिंसा, आगजनी की खबरें आती रहीं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool
सहारनपुर में ठाकुर-दलित हिंसा (मई 2017)
साल 2017 में उत्तर प्रदेश का सहारनपुर दलित विरोध का केंद्र बना रहा. क्षेत्र में दलित-ठाकुरों के बीच महाराणा प्रताप जयंती कार्यक्रम के बीच टकराव हुआ. इसके चलते दोनों पक्षों के बीच पथराव, गोलीबारी और आगजनी भी हुई. विरोध इतना बढ़ा कि मामला दिल्ली पहुंच गया. जातीय हिंसा के विरोध में दिल्ली के जंतर-मंतर पर दलितों की भीम आर्मी ने बड़ा प्रदर्शन किया.
तस्वीर: Reuters/A. Dave
गौ रक्षकों के खिलाफ गुस्सा (जुलाई 2016)
जुलाई 2016 में गुजरात के वेरावल जिले के ऊना में कथित गौ रक्षकों ने गाय की खाल उतार रहे चार दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी. इनमें से एक युवक की मौत हो गई थी. घटना का वीडियो वायरल हुआ. गुजरात में दलित समुदायों ने इसका जमकर विरोध किया. विरोध प्रदर्शन के दौरान करीब 16 दलितों ने आत्महत्या की कोशिश भी की. इस मामले की गूंज संसद तक पहुंची.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky
कोपर्डी गैंगरेप केस (जुलाई 2016)
यह एक ऐसा मामला था जिसमें मराठा समुदाय की ओर से एससी/एसटी कानून को खत्म किए जाने की मांग की गई. 13 जुलाई 2016 को मराठा समुदाय की एक 15 साल वर्षीय लड़की को अगवा कर उसका गैंगरेप किया गया. जिसके बाद उसकी हत्या कर दी गई. महाराष्ट्र में इस घटना के खिलाफ काफी प्रदर्शन हुआ था जिसने बाद में मराठा आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया. मामले में तीन दलितों को दोषी करार दिया गया जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई.
तस्वीर: Reuters/S. Andrade
रोहित वेमुला की आत्महत्या (जनवरी 2016)
हैदराबाद यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देश में दलितों और छात्रों के बीच एक नया आंदोलन छेड़ दिया. यूनिवर्सिटी के छात्र संगठनों ने प्रशासन पर भेदभाव का आरोप लगाया. रोहित ने अपने सुसाइड नोट में विश्वविद्यालय को जातिवाद, चरमपंथ और राष्ट्रविरोधी तत्वों का गढ़ बताया था. इसके बाद देश भर में दलित आंदोलन हुए और मामला देश की संसद तक पहुंचा.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
खैरलांजी हत्याकांड (सितंबर 2006)
जमीनी विवाद के चलते महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में 29 सितंबर को एक दलित परिवार के 4 लोगों की हत्या कर दी गई थी. परिवार की दो महिला सदस्यों को हत्या के पहले नंगा कर शहर भर में घुमाया गया था. इस घटना के विरोध में पूरे महाराष्ट्र में दलित प्रदर्शन हुए थे. सीबीआई ने अपनी जांच में गैंगरेप की बात को नकार दिया था. दोषियों को मौत की सजा मिली थी, जिसे बंबई हाईकोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया.
तस्वीर: Reuters/S. Andrade
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सबसे पहले तो वो संख्या देखिए जो जेईई मेन परीक्षा में बैठने वाले कुल छात्रों की है. फिर पास होने वाले छात्रों की संख्या देखिए. ये सूची ही पहला संकेत देती है कि सामान्य वर्ग के छात्रों की संख्या आरक्षित श्रेणियों से कहीं अधिक है. उनके अवसरों में कटौती की बात आंकड़ों से उलझाया गया भ्रम मात्र है. समझने की बात ये है कि अवसर सबके लिए समान रूप से घट रहे हैं. सामान्य वर्ग के लिए अगर दाखिले के अवसर कम हो रहे हैं तो दलितों के लिए तो वे और तेजी से सिकुड़ रहे हैं. उन्हें इस कथित आरक्षण का कोई व्यापक लाभ नहीं मिल रहा है क्योंकि दलितों की एक बड़ी आबादी देश की आजादी के 70-71 साल बाद भी समाज और वर्चस्व के निर्मित अंधेरों में जीने को अभिशप्त हैं. उन्हें आरक्षण का नहीं पता, न लाभ का, न अपने मानवाधिकारों का. ज्यादा दूर मत जाइये एसटीएसटी एक्ट को ही देखिए जिस पर हाल में विवाद हुआ था. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि दलितों पर अत्याचार के खिलाफ कड़ा कानून होने के बावजूद उनके खिलाफ अपराधों की दर में कोई कमी नहीं आई है. इसे आप पलटकर कह सकते हैं कि समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के कथित अभियान के तहत आरक्षण की जिस व्यवस्था का दम भरा जाता है, उसने भी उनका बेड़ा पार नही लगाया है. वे हाशिये पर ही हैं. दाखिलों से लेकर नौकरियों में आरक्षण के तहत नौकरशाही से लेकर तमाम सार्वजनिक और निजी उपक्रमों में निचली दलित जातियों और अल्पसंख्यकों की कुल आबादी के सापेक्ष नगण्य नुमायंदगी से हालात का अंदाजा लग जाता है.
"पेट के लिए करना पड़ता है गटर साफ"
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कहा जा सकता है कि जब आरक्षण से कोई फायदा नहीं हो रहा है तो हटा क्यों नहीं देते. तो इसके जवाब में हम एक बार फिर एससी एसटी कानून वाली मिसाल पर लौटेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में इस कानून को लेकर ऐसा आदेश दिया जो इसे लचीला करने जैसा था और जिसे लेकर दलित आक्रोशित हैं. दमन और शोषण के सदियों से कायम अंतहीन सिलसिले में अगर उन्हें अपनी लड़ाई के कमतर ही सही कुछ औजार हासिल हैं तो एक विवेकपूर्ण और जागरूक नागरिकता क्या ये चाहेगी कि उनसे ये औजार भी छिन जाए? वे समाज में अपनी उपेक्षित जगहों पर लौट जाएं? अगर आरक्षण की एक संविधान प्रदत व्यवस्था दबे कुचले सह नागरिकों को पीढ़ियों की तबाही से निकालकर किसी आने वाले समय में बराबरी का नागरिक और सामाजिक सम्मान मुहैया कराने की क्षमता रखती है तो उसे क्यों हटाया जाए. क्यों न उसे और मजबूत व्यापक और पारदर्शी बनाया जाए, क्यों न उसे इस स्तर पर प्रभावकारी बनाया जाए कि उससे जुड़ी भ्रांतियां और उसकी अंतर्निहित कमजोरियां दूर हों और वो सामाजिक समरसता को संबोधित हो न कि विषमता और कटुता और राजनीतिक स्वार्थ का टूल बनकर रह जाए.
शहरों में दलितों पर ज्यादा अत्याचार
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डाटा मुताबिक साल 2016 में दर्ज आपराधिक मामले बताते हैं कि उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित राज्य है. साथ ही शहरी क्षेत्रों में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार बढ़ रहे हैं
तस्वीर: Reuters
सबसे अधिक गंभीर अपराध
रिपोर्ट मुताबिक, देश में सबसे अधिक गंभीर अपराध उत्तर प्रदेश में होते हैं. यहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या भी सबसे अधिक है. कुल अपराधों में उत्तर प्रदेश के बाद बिहार का नंबर आता है. लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध उत्तरप्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक होते हैं.
तस्वीर: Reuters/P. Kumar
दलितों पर अत्याचार
रिपोर्ट मुताबिक शहरी क्षेत्रों में दलितों पर होने वाले अत्याचार अब भी बना हुआ है. लखनऊ और पटना देश के दो ऐसे बड़े शहर हैं जहां ये अपराध सबसे अधिक है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जहां दलितों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर्ज किये गये हैं. तीसरे स्थान पर राजस्थान का नंबर आता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
शहरों में स्थिति
शहरों की बात करें तो दलितों के खिलाफ अपराध में लखनऊ के बाद पटना और जयपुर का नंबर आता है. इसके बाद आईटी हब माने जाने वाले बेंगलुरू और हैदराबाद का स्थान आता है. बेंगलुरू को छोड़कर कर्नाटक में ये अत्याचार अन्य राज्यों के मुकाबले कम है.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
स्थिति अब भी साफ नहीं
जाति आधारित अपराधों और अत्याचारों से जुड़े मामलों पर एनसीआरबी साल 2014 से डाटा जुटा रहा है लेकिन यह पहला मौका है जब ये आंकड़ें जारी किये गये हैं. ये रिकॉर्ड पुलिस द्वारा दर्ज किये गये मामलों पर आधारित है इसलिए संभव है कि जमीन पर हालात और भी खराब हो सकते हैं.
तस्वीर: Reuters
अपने हक से वाकिफ
शहरों में दलितों से जुड़ी आबादी के कोई आंकड़ें नहीं है इसलिए ये बता पाना कि शहरों में इन अपराधों का औसत क्या है, मुश्किल माना जा सकता है. सूत्रों के मुताबिक शहरों में दलित अत्याचार के अधिक मामले सामने का कारण है कि शहरों में रहने दलित अपने अधिकारों के प्रति अधिक वाकिफ हैं. वे अपराधों को दर्ज कराते हैं.
तस्वीर: Reuters
बलात्कार के मामले
एनसीआरबी का डाटा देश में बलात्कार जैसे अपराध की बेहद ही गंभीर तस्वीर पेश करता है. साल 2016 में मध्यप्रदेश में बलात्कार के सबसे अधिक मामले दर्ज किये गये. इसके बाद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का नंबर आता है.
तस्वीर: Reuters
राजधानी असुरक्षित
दिल्ली में हर घंटे 23 आपराधिक मामले दर्ज होते हैं. साल 2015 के मुकाबले इन मामलों में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आंकड़े मुताबिक देश में कुल दर्ज आपराधिक मामले में से 39 फीसदी मामले दिल्ली में दर्ज किेय गये.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma
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हम वापस शैक्षणिक हालात पर लौटते हैं. एससी एसटी आरक्षण के जरिए अपमानित करने, ग्लानिबोध में डालने और चिढ़ाने की कोशिश की जा रही है. ये उसी तरह से है कि हम किसी की गरीबी, विवशता और तंगहाली का मजाक उड़ाएं. मध्य प्रदेश में पिछले दिनों देखा गया कि पुलिस भर्ती में अभ्यर्थियों के सीने पर एसटी एससी की मुहर ही लगा दी गई कि कागज न देखने पड़ें, लड़के को देखकर ही पता चल जाए कि ये आरक्षित वर्ग का है. क्या ये खिल्ली उड़ाने जैसा नहीं है. एक शर्मनाक स्तर की संवेदनहीनता. ये कोई छिपी बात नहीं है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रतिभाशाली हो या कमजोर हो- दलित छात्रों को किस किस्म की प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है. क्या ये उनका कुसूर है कि वे दलित जाति में पैदा हुए. क्या दलित होना पाप है. अक्सर ये सुना जाता है कि ठीक है वे गरीब हैं और पीढ़ियों से सताए हुए हैं और उन्हें ऊपर उठाना जरूरी है तो उनकी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दिया जाए, उन्हें बेहतर माहौल दिया जाए उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाया जाए. ठीक है- आदर्श स्थिति तो यही है लेकिन ऐसा आप किससे चाह रहे हैं. सरकारों से, सत्ता राजनीति से, अधिकारियों और प्रशासनों और व्यवस्थापकों से या सवर्णों से, वर्चस्ववादियों, जातिवादियों और बहुसंख्यकवादियों से?
क्या हम जाति का अपना खोल उतारकर किसी दलित को गले लगाने को तैयार हैं, क्या हम उन्हें अपने घर की देहरी से अंदर आने देने को तैयार हैं, क्या हम उनके हाथ का पानी पीने को तैयार हैं. इसके बाद ही तो उनकी शिक्षा की बेहतरी के सवालों को हल करने की बात आएगी, उनका स्तर बढ़ाने की, उनकी सामाजिक हालत में सुधार करने की. हमारी सवर्ण मानसिकता अपनी बेड़ियां तोड़कर जातिविहीनता की ओर उन्मुख होती है तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है. तो शिक्षा और अधिकार पर सवाल उठाने से पहले गरिमा और आत्मसम्मान और आर्थिक खुशहाली की हिफाजत के सवाल आते हैं. आरक्षण के नाम पर राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सेकते हैं- आरक्षितों और अनारक्षितों के बीच टकराव बना रहता है- लेकिन बुनियादी मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं जाता. नवउदारवादी और कॉरपोरेट केंद्रित सत्ता राजनीति यही तो चाहती है- सरकारें एक एक कर अपने बुनियादी दायित्वों से पीछा छुड़ा रही हैं. स्वास्थ्य हो या शिक्षा. सरकारी स्कूलों की दिनोंदिन गिरती हालत से लेकर उच्च शैक्षणिक संस्थानों की हालत की रिपोर्टे हमारे सामने हैं.
चमार पॉप: दलितों की नई आवाज
पंजाब की गिन्नी माही उभरती हुई गायिका हैं. लेकिन उनके गीत खास हैं जो भारत में जातिवाद पर चोट करते हैं और दलितों के हक की आवाज उठाते हैं.
तस्वीर: DW/A. Andre
संगीत बना माध्यम
17 साल की गिन्नी का नाता पंजाब से है और अपने गीतों के जरिए वह निचली कही जाने वाली चमार जाति के लोगों के अधिकारों की आवाज को बुलंद कर रही हैं.
तस्वीर: DW/A. Andre
बिरादरी का मान
माही कहती हैं, "मैं चाहती हूं कि मेरी बिरादरी का मान बढ़े और उसे पूरी दुनिया में जाना जाए.”
तस्वीर: DW/A. Andre
प्रेरणा
दलितों के मसीहा कहे जाने वाले डॉ. अंबेडकर को गिन्नी माही अपनी प्रेरणा मानती हैं और उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाहती हैं.
तस्वीर: AP
लोकप्रियता
यूट्यूब पर उनके वीडियो पसंद किए जा रहे हैं. सितंबर में ही उन्होंने दिल्ली में अपनी पहली परफॉर्मेंस दी, जिसे खूब पसंद किया गया.
तस्वीर: DW/A. Andre
भेदभाव
जागरूकता फैलाने के प्रयासों के बावजूद भारत में दलितों के साथ भेदभाव और हिंसा की खबरें अकसर आती रहती हैं.
तस्वीर: UNI
मीडिया में हिस्सेदारी
दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि मुख्यधारा के मीडिया में उन्हें उचित स्थान नहीं दिया जाता. इसलिए इन दिनों दलितों की अपनी कई पत्रिकाएं और पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं.
तस्वीर: DW/A. Andre
दलित फूड्स
दलित विचारक चंद्रभान प्रसाद ने हाल में दलित फूड्स के नाम से खाद्य उत्पादों की एक सीरिज शुरू की है. वो दलितों में उद्यमशीलता बढ़ाने पर जोर देते हैं.
तस्वीर: Dalit Foods
बंद हो जुल्म
गिन्नी माही कहती है कि दलितों पर होने वाले जुल्म बंद होने चाहिए. पंजाब में जनसंख्या अनुपात के हिसाब से दलितों की सबसे ज्यादा आबादी है.
तस्वीर: DW/A. Andre
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हमारे संस्थान दुनिया में कहीं भी अव्वल नहीं. क्या इसलिए कि वे आरक्षित वर्गों के छात्रों और पेशेवरों से भरे हुए हैं, अगर ऐसा है तो एक एक कर आंकड़े देखिए कि कहां कितने दलित या ओबीसी पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं. दरअसल हमारे संस्थानों का ढांचा जर्जर कर दिया गया है, उनमें मेहनत और कल्पनादृष्टि का अभाव है. वे राजनीति के शिकार हो चुके हैं और उनके पास लगातार संसाधनों की कमी होती जा रही है. यही हाल नीचे के स्तरों पर भी है. स्कूली शिक्षा से लेकर कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों तक अध्यापन में शैक्षणिक विकास की रणनीति या तो दम तोड़ चुकी है या वो निजी क्षेत्र की मुनाफाखोर बन चुकी है.
तो दलित वर्गों के शैक्षणिक आर्थिक कल्याण का एक सिरा, इन संस्थानों के कल्याण से भी जुड़ा है. रोजगार के अवसर सार्वजनिक सेवाओं में कम हो रहे हैं, निजी सेक्टर में बढ़ रहे हैं. जो जितना संसाधनयुक्त और समृद्ध होगा- शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी सेवाएं उसे उतनी सहजता और सफलता से उपलब्ध होंगी. सरकारें कॉरपोरेटी मिजाज में खुद को ढाल चुकी हैं या ढाल रही हैं- आईआईटी जैसे संस्थानों की कार्यप्रणाली, शैक्षणिक प्रोग्रामों और नीति नियमों में भी हम आने वाले वक्तों में उलटफेर होता देखें तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के कॉरपोरेटीकरण में भला कितने लोग या कितने वर्ग होंगे जो एडजस्ट कर पाएंगे. वंचितों का दायरा अब निचली जातियों तक ही सीमित नहीं रह गया है- ये हमें समझना ही होगा कि नई अर्थ राजनीति ने अपने लिए नई मुख्यधारा का निर्माण कर लिया है. तमाम सुख सुविधाओं के अकेले आरक्षित वही होंगे. इसलिए कई मोर्चे पर एक साथ चुनौतियां हैं- पिछड़े तबकों की जागरूकता, उनका शैक्षणिक आर्थिक विकास और नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ मानवाधिकारों की साझा लड़ाई.
क्या उच्च शिक्षा केवल अमीरों के लिए?
दुनिया भर में 10 से 24 साल की उम्र के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में उच्च शिक्षा अब भी गरीबों की पहुंच से दूर लगती है. फिलहाल विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था में सबकी हिस्सेदारी नहीं है.
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मेडिकल और इंजीनियरिंग के और भी ज्यादा उत्कृष्ट संस्थान शुरू करने की घोषणा की है. आईआईएम जैसे प्रबंधन संस्थानों के केन्द्र जम्मू कश्मीर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और असम में भी खुलने हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे और फैकल्टी की कमी की चुनौतियां हैं. यहां सीट मिल भी जाए तो फीस काफी ऊंची है.
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देश के कई उत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी फिलहाल 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हैं. नासकॉम की रिपोर्ट दिखाती है कि डिग्री ले लेने के बाद भी केवल 25 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और लगभग 15 प्रतिशत अन्य स्नातक आईटी और संबंधित क्षेत्र में काम करने लायक होते हैं.
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कोटा, राजस्थान में कई मध्यमवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए भेजते हैं. महंगे कोचिंग सेंटरों में बड़ी बड़ी फीसें देकर वे बच्चों को आधुनिक युग के प्रतियोगी रोजगार बाजार के लिए तैयार करना चाहते हैं. इस तरह से गरीब बच्चे पहले ही इस प्रतियोगिता में बाहर निकल जाते हैं.
तस्वीर: Reuters
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने फ्रांस दौरे पर युवा भारतीय छात्रों के साथ सेल्फी लेते हुए. सक्षम छात्र अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं. लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे ये सपना नहीं देख सकते. भारत में अब भी कुछ ही संस्थानों को विश्वस्तरीय क्वालिटी की मान्यता प्राप्त है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Blumberg
मार्च 2015 में पूरी दुनिया में भारत के बिहार राज्य की यह तस्वीर दिखाई गई और नकल कराते दिखते लोगों की भारी आलोचना भी हुई. यह नजारा हाजीपुर के एक स्कूल में 10वीं की बोर्ड परीक्षा का था. जाहिर है कि पूरे देश में शिक्षा के स्तर को इस एक तस्वीर से आंकना सही नहीं होगा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
राजस्थान के एक गांव की कक्षा में पढ़ते बच्चे. 2030 तक करीब 14 करोड़ लोग कॉलेज जाने की उम्र में होने का अनुमान है, जिसका अर्थ हुआ कि विश्व के हर चार में से एक ग्रेजुएट भारत के शिक्षा तंत्र से ही निकला होगा. कई विशेषज्ञ शिक्षा में एक जेनेरिक मॉडल के बजाए सीखने के रुझान और क्षमताओं पर आधारित शिक्षा दिए जाने का सुझाव देते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Robert Hardin
उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल खुद को दलित समुदाय का प्रतिनिधि और कल्याणकर्ता बताते रहे हैं. चुनावी रैलियों में दलित समुदाय की ओर से पार्टी के समर्थन में नारे लगवाना एक बात है, लेकिन सत्ता में आने पर उनके उत्थान और विकास के लिए जरूरी शिक्षा और रोजगार के मौके दिलाना बिल्कुल दूसरी बात.
तस्वीर: DW/S. Waheed
भारत के "मिसाइल मैन" कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम देश में उच्च शिक्षा के पूरे ढांचे में "संपूर्ण" बदलाव लाने की वकालत करते थे. उनका मानना था कि युवाओं में ऐसे कौशल विकसित किए जाएं जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मददगार हों. इसमें एक और पहलू इसे सस्ता बनाना और देश की गरीब आबादी की पहुंच में लाना भी होगा.