आरोप साबित होने तक अदालत की निगाह में हर कोई बेकसूर
शिवप्रसाद जोशी
२४ फ़रवरी २०२१
अपराध का शक कितना ही मजबूत क्यों न हो, वह सबूत की जगह नहीं ले सकता. ऐसा कहना है सुप्रीम कोर्ट का. उसके मुताबिक, आरोप साबित होने तक कोर्ट की निगाह में हर कोई बेकसूर है, यह कानूनी और अदालती मान्यता अक्षुण्ण है.
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पिछले दिनों ओडीशा हाईकोर्ट ने हत्या के एक कथित मामले में दोषियों को रिहा करने के फैसले को बहाल रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्त्वपूर्ण फैसला दिया है. सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस इंदिरा बैनर्जी और जस्टिस हेमंत गुप्ता की बेंच ने कहा कि अगर तमाम संभावनाएं भी यही कहती हों कि अपराध, आरोपी ने ही किया है तो भी इसके लिए सबूतों की एक ठोस और मुकम्मल कड़ी का होना जरूरी है. ओडीशा हाईकोर्ट ने हत्या के दो अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था. कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. हत्या के अभियुक्तों पर आरोप था कि उन्होंने बिजली के झटके देकर एक होमगार्ड की जान ले ली थी. बेंच ने हाईकोर्ट के फैसले को बहाल रखते हुए कहा कि शक के आधार पर किसी को सजा नहीं दी जा सकती है और अभियुक्त तब तक बेगुनाह है जब तक कि उसका दोष पुख्ता रूप से और हर हाल में बिला शक साबित न हो जाए.
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अपने फैसले में कोर्ट ने एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की ओर भी ध्यान दिलाया कि "किसी अभियुक्त के खिलाफ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर पूरी तरह से मामला बनता है, यह कहने से पहले उन परिस्थितियों को भी पूरी तरह से स्थापित करना होगा जिनके आधार पर आपराधिक कृत्य होने का नतीजा निकाला गया है. और उन आधारों पर स्थापित तथ्यों का अभियुक्त के आपराधिक कृत्य की हाइपोथेसिस से ही पूरा मेल होना चाहिए." इस तरह कोर्ट ने साक्ष्यों की एक निर्बाध और मजबूत कड़ी की जरूरत भी बताई. कोर्ट ने इस बात की संभावना जताई कि हो सकता है कि मृतक ने गहरी नींद में दुर्घटनावश नंगा तार छू लिया हो.
जेलों में बंद दलितों और मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक
कोर्ट की ओर से यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब देश की जेलों में बड़े पैमाने पर विचाराधीन कैदी बंद हैं और वे लंबे समय से अदालतों से अपने मामले निपटने की बाट जोह रहे हैं. पिछले दिनों इस बारे में रिपोर्टे भी आई थी कि जेलों में बंद दलितों और मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक है और अदालतों में बेशुमार मामले सुनवाई के लिए लंबित है, जिन्हें लेकर सुप्रीम कोर्ट भी चिंता जताता रहा है. मानवाधिकार और पर्यावरण कार्यकर्ता, छात्र, किसान, कॉमेडियन, कलाकार, अधिवक्ता, लेखक आदि राजद्रोह से लेकर शांति भंग करने तक के विभिन्न किस्म के आरोपों में विचाराधीन कैदियों की तरह जेल में बंद हैं या रहे हैं. बहुत से मामलों में उन पर आरोप सिद्ध नहीं हो पाए हैं. जानकारों के मुताबिक हो सकता है कि कोर्ट की ताजा रूलिंग अदालती लड़ाई में उनके काम आ पाए.
बढ़ती जा रही है जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या
एनसीआरबी के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि देश की जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ आरोपों पर सुनवाई अभी चल ही रही है. जानिए और क्या बताते हैं ताजा आंकड़े.
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कितनी जेलें
2019 में देश में कुल 1,350 जेलें थीं, जिनमें सबसे ज्यादा (144) राजस्थान में थीं. दिल्ली में सबसे ज्यादा (14) केंद्रीय जेलें हैं. कम से कम छह राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी केंद्रीय जेल नहीं है.
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जेलों में भीड़
इतनी जेलें भी बंदियों की बढ़ती संख्या के लिए काफी नहीं हैं. ऑक्यूपेंसी दर 2018 में 117.6 प्रतिशत से बढ़ कर 2019 में 118.5 प्रतिशत हो गई. सबसे ज्यादा ऊंची दर जिला जेलों (129.7 प्रतिशत) है. राज्यों में सबसे ऊंची दर दिल्ली में है (174.9 प्रतिशत).
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महिला जेलों का अभाव
'पूरे देश में सिर्फ 31 महिला जेलें हैं और वो भी सिर्फ 15 राज्यों/केंद्रीय शासित प्रदेशों में हैं. देश की सभी जेलों में कुल 4,78,600 कैदी हैं, जिनमें 19,913 महिलाएं हैं.
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कर्मचारियों का भी अभाव
2019 में जेल स्टाफ की स्वीकृत संख्या थी 87,599 लेकिन वास्तविक संख्या थी सिर्फ 60,787. सबसे बड़ा अभाव प्रोबेशन अधिकारी, कल्याण अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक आदि जैसे सुधार कर्मियों का था.
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कैदियों पर खर्च
2019 में देश में कैदियों पर कुल 2060.96 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जो कि जेलों के कुल खर्च का 34.59 प्रतिशत था. इसमें से 47.9 प्रतिशत (986.18 करोड़ रुपए) भोजन पर खर्च किए गए, 4.3 प्रतिशत (89.48 करोड़ रुपए) चिकित्सा संबंधी खर्च पर, 1.0 प्रतिशत (20.27 करोड़ रुपए) कल्याणकारी गतिविधियों पर, 1.1 प्रतिशत (22.56 करोड़ रुपए) कपड़ों पर और 1.2 प्रतिशत (24.20 करोड़ रुपए) शिक्षा और ट्रेनिंग पर किया गया.
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70 प्रतिशत कैदियों के मामले विचाराधीन
2019 में देश की सभी जेलों में अपराधी साबित हो चुके कैदियों की संख्या (1,44,125) ऐसे कैदियों की संख्या से ज्यादा थी जिनके खिलाफ मामले अभी अदालतों में विचाराधीन ही हैं (3,30,487). एक साल में विचाराधीन कैदियों की संख्या में 2.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इनमें से लगभग आधे कैदी जिला जेलों में हैं और 36.7 प्रतिशत केंद्रीय जेलों में.
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न्याय के इंतजार में
विचाराधीन कैदियों में 74.08 प्रतिशत कैदी (2,44,841) एक साल तक की अवधि तक, 13.35 प्रतिशत कैदी (44,135) एक से दो साल की अवधि तक, 6.79 प्रतिशत (22,451) दो से तीन सालों तक, 4.25 प्रतिशत (14,049) तीन से पांच सालों तक और 1.52 प्रतिशत कैदी (5,011) पांच साल से भी ज्यादा अवधि से जेल में बंद थे.
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शिक्षा का स्तर
सभी कैदियों में 27.7 प्रतिशत (1,32,729) अशिक्षित थे, 41.6 प्रतिशत (1,98,872) दसवीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े थे, 21.5 प्रतिशत (1,03,036) स्नातक के नीचे तक पढ़े थे, 6.3 प्रतिशत (30,201) स्नातक थे, 1.7 प्रतिशत 8,085 स्नातकोत्तर थे और 1.2% प्रतिशत (5,677) कैदियों के पास टेक्निकल डिप्लोमा/डिग्री थी.
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मृत्युदंड वाले कैदी
सभी कैदियों में कुल 400 कैदी ऐसे थे जिन्हें मौत की सजा सुना दी गई थी. इनमें से 121 कैदियों को 2019 में मृत्युदंड सुनाया गया था. 77,158 कैदियों (53.54 प्रतिशत) को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
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जेल में मृत्यु
2018 में 1,845 कैदियों के मुकाबले 2019 में 1,775 कैदियों की जेल में मृत्यु हुई. इनमें से 1,544 कैदियों की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई. अप्राकृतिक कारणों से मरने वाले कैदियों की संख्या 10.74 प्रतिशत बढ़ कर 165 हो गई. इनमें से 116 कैदियों की मौत आत्महत्या की वजह से हुई, 20 की मौत हादसों की वजह से हुई और 10 की दूसरे कैदियों द्वारा हत्या कर दी गई. कुल 66 मामलों में मृत्यु का कारण पता नहीं चल पाया.
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पुनर्वास
2019 में कुल 1,827 कैदियों का पुनर्वास कराया गया और 2,008 कैदियों को रिहाई के बाद वित्तीय सहायता दी गई. कैदियों द्वारा कुल 846.04 करोड़ रुपए मूल्य के उत्पाद भी बनाए गए.
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इंडियन एविडेंस ऐक्ट 1872 के तहत, प्रूफ बियॉन्ड रिजनेबल डाउट यानी पर्याप्त और तार्किक संदेह से आगे के साक्ष्य को विशेषज्ञों ने आपराधिक मामलों की सुनवाई और निर्णयों में एक महत्त्वपूर्ण पहलू की तरह रेखांकित किया है. समय समय पर अदालतों, खासकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में इस पर टिप्पणियां भी की हैं और इसकी रोशनी में फैसले भी सुनाए हैं. इसीलिए अक्सर यह भी देखा जाता है कि जब हत्या या किसी संगीन अपराध का दोषी व्यक्ति अदालत से बरी होता है, तो आम लोग फैसले पर हैरान या आक्रोशित हो जाते हैं और जानकारों का मानना है कि यह स्वाभाविक भी है. ठीक उसी तरह जब पुलिस किसी आंदोलनकारी नागरिक, लेखक, कलाकार, पर्यावरण या मानवाधिकार एक्टिविस्ट पर राजद्रोह या वैसा ही कोई संगीन मामला जड़ देती है, जिनकी हम अब बहुतायत देख ही रहे हैं. लेकिन अदालत से बरी हो जाने पर हत्या के अभियुक्तों के मामले में, जैसा कि ओडीशा में हुआ, जनता को कानून की पेचीदगियों और साक्ष्यों के लीगल महत्त्व या सैंक्टिटी की पूरी जानकारी नहीं हो पाती. वैसे, इस बारे में मीडिया भी अपनी भूमिका को और व्यापक बना सकता है.
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न्याय के सिद्धांतों का हनन करने वाला कानून, कानून नहीं
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में इस तरह के आदेशों के प्रति आम भ्रम या दुराव की स्थिति को भी दूर करने में मदद मिल सकती है. आम नागरिक का भी कानूनों के बारे में सहज उत्सुकता ही नहीं सहज बोध और सामान्य ज्ञान होना भी जरूरी है. जागरूक नागरिक ही देश के विकास में सच्चे भागीदार बनते हैं. समाज के सभी वर्गों को कानूनी अधिकारों और अहम मामलों पर जागरूक रहना जरूरी है. स्त्री, बाल, छात्र, बुजुर्ग, किसान, मजदूर, कर्मचारी, शिक्षक, पत्रकार और समाज के बहुत से वर्गों और समाज के कमोबेश सभी क्षेत्रों में कानूनी अधिकारों के प्रति सजगता हर हाल में जरूरी है. सभी नागरिकों पर यह बात लागू होती है, खासकर समाज के उपेक्षितों, वंचितों और गरीबों को जिनके लिए कानून की लड़ाई अक्सर एक जीवन-संघर्ष सरीखा बन जाता है. न सिर्फ किसी बेगुनाह को सजा मिलनी चाहिए, बल्कि संसाधनविहीन, गरीब व्यक्ति को भी वहां से किसी भी रूप में निराश न लौटना पड़े, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
19वीं सदी की अमेरिकी लेखिका, एक्टिविस्ट और पत्रकार लीडिया मारिया फ्रांसिस चाइल्ड का एक प्रसिद्ध कथन कानून और मानवाधिकार के हल्कों में आज भी अक्सर कोट किया जाता है कि शाश्वत न्याय के सिद्धांतों का हनन करने वाला कानून, कानून नहीं है. संदेह और साक्ष्य के आकार, स्थिति और उपलब्धतता के आधार पर तय की जाने वाली कानूनी और अदालती बारीकियों के बीच यह देखा जाना भी जरूरी है कि सही इंसाफ के हकदार सभी हैं और अदालतों के फैसले में साक्ष्य की विसंगतियों का ही नहीं मामले से जुड़े मानवीय पहलुओं का भी आकलन किया जाना चाहिए.
भारत में जानवरों के प्रति क्रूरता को रोकने के लिए बने कानून के प्रावधानों को और कड़ा बनाने की मांग उठ रही है. जानिए कितना पुराना है ये कानून और क्या कमियां हैं इसमें.
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60 साल पुराना कानून
जानवरों के प्रति क्रूरता रोकथाम अधिनियम 1960 में बना था. तब से अभी तक इसके दंड संबंधी प्रावधानों में कोई संशोधन नहीं किया गया है.
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बढ़ती क्रूरता
जानवरों के प्रति क्रूरता के मामले चिंताजनक रूप से बढ़ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई एक याचिका के अनुसार सिर्फ 2012 से 2015 के बीच देश में 24,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे. बड़ी संख्या में मामले दर्ज ही नहीं होते.
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50 रुपये जुर्माना
1960 के इस इस कानून के तहत पहली बार जानवरों के प्रति क्रूरता के दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के लिए न्यूनतम 10 रुपये से लेकर अधिकतम 50 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है.
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तीन महीने की जेल
अगर व्यक्ति पहले अपराध के तीन साल के अंदर फिर से क्रूरता का दोषी पाया जाता है तो उसके लिए न्यूनतम 25 रुपये और अधिकतम 100 रुपये जुर्माने का प्रावधान है. बार बार अपराध के दोषी पाए जाने पर तीन महीने तक की जेल भी हो सकती है.
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संशोधन लंबित
पशु कल्याण बोर्ड 2011 में एक पशु कल्याण अधिनियम लेकर आया था, जिसमें पशुओं के प्रति क्रूरता कीे रोकथाम के लिए कड़े प्रावधान लाए गए थे. 2014 में बोर्ड एक और नया मसौदा लेकर आया, लेकिन ये संसद से अभी तक पारित नहीं हुआ है.
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राज्यों में कानून
2017 में महाराष्ट्र और कर्नाटक ने सिर्फ जल्लिकट्ट कराने के लिए और उससे संबंधित अपराध रोकने के लिए 1960 के कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन किए. लेकिन इनमें और किसी भी मामले में सजा के प्रावधानों को और कड़ा नहीं किया गया.
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दुनिया में सबसे पीछे
पशु संरक्षण सूचकांक 2020 में भारत को सबसे नीचे की श्रेणी वाले देशों में "सी" दर्जा मिला हुआ है. यह सूचकांक 20 देशों को उनके पशु कल्याण कानून और नीतियों के अनुसार रैंक करता है.
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50 रुपए जुर्माना
1960 के इस इस कानून के तहत पहली बार जानवरों के प्रति क्रूरता के दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के लिए न्यूनतम 10 रुपए से लेकर अधिकतम 50 रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है.