गर्म होती जलवायु के कारण आर्कटिक क्षेत्र में जमीन की सतह पर मौजूद बर्फ पिघल रही है जिससे वहां मौजूद बुनियादी ढांचे के लिए खतरा पैदा हो गया है. रिसर्चर कहते हैं कि तुरंत कदम उठाने होंगे, वरना बहुत देर हो जाएगी.
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एक नए अध्ययन में कहा गया कि बढ़ते तापमान के कारण आर्कटिक में बर्फ के नीचे की मिट्टी पिघलने लगी हैं, जिसे पर्माफ्रॉस्ट कहा जाता है. इससे आर्कटिक क्षेत्र का 70 प्रतिशत बुनियादी ढांचा खतरे में है, जिसमें तेल और प्राकृतिक गैस के कुछ प्रमुख क्षेत्र भी शामिल हैं. रिसर्चरों ने उत्तरी गोलार्ध के पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन किया कि इसके पिघलने से 2050 तक कितनी इमारतें, सड़कें, रेलवे और अन्य निर्माण खतरे में पड़ सकते हैं.
इस अध्ययन रिपोर्ट के मुख्य लेखक और फिनलैंड के ऑउलु विश्वविद्यालय में भौतिक भूगोल के प्रोफेसर जेन हॉजोर्ट का कहना है, "खतरे की विशालता एक तरह से हैरान करने वाली थी." समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में उन्होंने कहा कि "खासकर अभी जो 70 प्रतिशत इंफ्रास्ट्रक्चर पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र में आता है वहां पर बर्फ के नीचे की मिट्टी तेजी से पिघल सकती है."
जलवायु परिवर्तन से तहस-नहस हो रहा है वन्य जीवन
बढ़ता तापमान, समुद्र का बढ़ता जलस्तर या जंगलों में आग. जलवायु परिवर्तन के ये बस कुछ उदाहरण हैं. आइए जानते हैं कि वन्य जीवन पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ रहा है.
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जंगलों में आग
हाल के वर्षों में अमेरिका के कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी आग ने दुनिया का ध्यान खींचा है. आग लगने के पीछे कारण इंसानों का जंगलों पर कब्जा और वन प्रबंधन की कमी भी है. वन्य जीवन के विशेषज्ञ डेविड बाउमन कहते हैं कि स्थिति पहले से ही खराब थी और जलवायु परिवर्तन ने इसे और बढ़ा दिया है.
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सूखे का प्रकोप
पिछले 20 वर्षों से कैलिफोर्निया और दक्षिणी यूरोप ने कई बार सूखे की मार झेली है. जलवायु परिवर्तन से न सिर्फ गर्म और सूखी हवाएं चलने लगीं बल्कि जरूरी नमी भी कम होती गई. नतीजा यह कि जमीन सूखने लगी, जिससे जंगलों की आग को और बढ़ावा मिला. सूखे का मतलब है पेड़ों का मुरझा जाना और इसने आग के लिए ईंधन का काम किया.
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हरे-भरे पेड़ गायब
बदलते मौसम ने हरे-भरे पेड़ों से उनकी खूबसूरती छीन ली और नई प्रजातियों के पौधे मौसम के अनुकूल ढल गए. पौधों से नमी गायब होती गई और कांटेदार पौधों व झाड़ियों का कब्जा बढ़ता गया. विशेषज्ञ मानते हैं कि यह परिवर्तन तेजी से आया और अमेरिका के जंगलों में रोजमैरी और लैंवेडर के जंगली पौधे दिखने लगे.
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भूजल का गिरता स्तर
बारिश में कमी और बढ़ते तापमानों ने पेड़-पौधों की जड़ों पर असर डाला. पानी की तलाश में वे और नीचे तक बढ़ते चले गए और इससे भूजल का स्तर गिरता चला गया. आम लोगों को पानी के लिए सैकड़ों फीट नीचे तक खुदाई करनी पड़ती है, फिर भी पानी नहीं मिलता.
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कमजोर हुईं हवाएं
सामान्य तौर पर उत्तरी अमेरिका और यूरेशिया का मौसम शक्तिशाली और तेज हवाओं पर निर्भर होता है जो ध्रुवीय और भूमध्य क्षेत्र के बीच के विपरीत तापमानों की वजह से पैदा होती है. लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से आर्कटिक क्षेत्र का तापमान वैश्विक तुलना में दोगुनी तेजी से बढ़ा है. इसकी वजह से हवाएं की रफ्तार कमजोर हुई है और महाद्वीप के मौसम पर असर पड़ा है.
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बीटल की तबाही
तापमान बढ़ने से बीटल कनाडा के बोरियल जंगलों की ओर भाग रहे हैं. इन्होंने यहां तबाही मचाई हुई है और पेड़ों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया है. पेड़ सूख रहे हैं और जंगलों में आग को और भड़का रहे हैं. पेड़-पौधों के जलने से वायुमंडल को भारी नुकसान पहुंच रहा है और यह जलवायु परिवर्तन को बदतर बना रहे हैं. (एएफपी)
नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि "पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र के पिघलने की वजह से होने वाले नुकसान से 2050 तक 36 लाख लोग प्रभावित होंगे." इस अध्ययन में यह भी चेतावनी दी गई है कि रूसी आर्कटिक क्षेत्र में मौजूद आधे तेल और प्राकृतिक गैस भंडार ऐसे इलाकों में हैं जो 2050 तक बर्फ पिघलने की वजह से गंभीर खतरे झेल सकते हैं.
अध्ययन यह भी कहता है कि अगर दुनिया भर के नेता पेरिस जलवायु समझौते में किए गए वादे पूरे भी करते है, तब भी 2050 तक बर्फ पिघलने से इंफ्रास्ट्रक्चर को होने वाला खतरा बना रहेगा. हालांकि रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि पूर्व औद्योगिक स्तरों के मुकाबले तापमान में वृद्धि को अगर 2 सेल्सियस से नीचे रखा जा सके तो इससे 2050 में संभावित विनाश को कम किया जा सकता है.
हॉजोर्ट ने कहा, "इन नतीजों को चेतावनी की तरह देखना चाहिए." उनका मानना है कि पर्माफ्रॉस्ट पिघलने से होने वाले जोखिम को बेहतर तरीके से समझने के लिए स्थानीय स्तर पर उनका ज्यादा से ज्यादा आकलन होना चाहिए. पर्माफ्रॉस्ट एक जमी हुई जमीन होती है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह स्थायी हो. यह ज्यादातर उत्तरी गोलार्ध में पाई जाती है और वहां एक चौथाई जमीन ऐसी ही है. कई बार यह हजारों साल पुरानी होती है.
रंगीन हुए चीन के तालाब
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आर्कटिक सर्किल और उत्तरी जंगलों के बीच एक बड़ी पट्टी पर्माफ्रॉस्ट वाली है जो अलास्का, कनाडा, उत्तरी यूरोप और रूस के इलाकों तक फैली है. दक्षिणी गोलार्ध में पर्माफ्रॉस्ट कम पाई जाती है क्योंकि वहां जमने वाली ज्यादा जमीन नही हैं.
कुल मिलाकर, रूस का लगभग 65 प्रतिशत क्षेत्र परमाफ्रॉस्ट है और रूस पहले ही बर्फ पिघलने के संकट से जूझ रहा है. साइबेरियाई के शहर यकुत्स्क में जमीन खिसकने की वजह से इमारतों में दरारें पड़ने लगी हैं. यकुत्स्क यकुतिया क्षेत्र का हिस्सा है जहां इस साल एक परमाफ्रॉस्ट संरक्षण कानून पारित किया गया. इलाके के नेता रूस की सरकार से राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाने के लिए भी दबाव डाल रहे हैं.
यह कानून परमाफ्रॉस्ट के स्थायी नुकसान की निगरानी और रोकथाम के लिए बनाया गया है. रूस में शोधकर्ता ऐसे तरीके भी तलाश रहे है कि वातावरण गरम होने के बावजूद जमीन को पिघलने से कैसे रोकें. लेकिन अध्ययन से पता चलता है कि "इस पर लागत इतना ज्यादा आएगी कि इसे क्षेत्रीय स्तर पर लागू करना मुश्किल होगा." अध्ययन के मुताबिक यह समझना बहुत जरूरी है कि पर्माफ्रॉस्ट इलाके में मौजूद किन बुनियादी ढांचों पर सबसे ज्यादा खतरा है और उससे बचने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं.
किन देशों को पड़ रही है मौसम की मार
बॉन में चल रहे जलवायु सम्मेलन के दौरान जर्मनी की गैरलाभकारी संस्था जर्मनवॉच ने ग्लोबल क्लाइमेट इंडेक्स, 2018 जारी किया. यह ऐसे देशों की सूची है जहां जलवायु परिवर्तन का असर सबसे अधिक रहा.
तस्वीर: Reuters/Jitendra Prakash
हैती
रिपोर्ट के मुताबिक हैती की अर्थव्यवस्था सितंबर 2016 के मैथ्यू और निकोल चक्रवात के चलते बुरी तरह प्रभावित हुई है.
तस्वीर: AFP/Getty Images/E. Santelices
जिम्बाब्वे
अल नीनो जैसी मौसमी दशाओं के चलते देश में सूखा पड़ा जिसके चलते कृषि को खासा नुकसान हुआ.
तस्वीर: Reuters/B. Stapelkamp
3. फिजी
सम्मलेन की अध्यक्षता कर रहे फिजी की अर्थव्यवस्था को भी जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगतना पड़ा. चक्रवात विंस्टन के चलते यहां काफी तबाही मची
तस्वीर: NU-EHS/C. Corendra
श्रीलंका
बीते साल मई के रोआनू तूफान ने देश की तटीय क्षेत्रों को बहुत अधिक प्रभावित किया. जिसके चलते बड़े हिस्से सूखाग्रस्त भी रहे
तस्वीर: Getty Images/AFP/L. Wanniarachchi
वियतनाम
वियतनाम में साल 2016 में सूखा पड़ा, जिसे पिछले 100 सालों का सबसे भयंकर सूखा कहा गया.
तस्वीर: Getty Images/AFP
भारत
भारत में 2 हजार लोग प्राकृतिक आपदाओं के चलते मारे गये. साथ ही दक्षिणी भारत में चेन्नई के निकट आये चक्रवात वर्धा ने बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Rout
ताइवान
ताइवान में जोरदार ठंड के चलते 85 लोगों की मौत हो गयी. साल 2016 में इस क्षेत्र में यहां 6 टायफून आये थे.
तस्वीर: Getty Images/B.H.C.Kwok
रिपब्लिक ऑफ मैसेडोनिया
साल 2016 के दौरान मैसेडोनिया में तापमान -20 डिग्री तक कम हो गया. यहां बाढ़ ने भी काफी लोगों को प्रभावित किया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/G. Licovski
बोल्विया
साल 2016 में बोलिविया की राजधानी ला पेज में जबरदस्त सूखा पड़ा. साथ ही भूस्खलन ने लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित किया.
तस्वीर: AP
अमेरिका
अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी कैरोलाइना में बाढ़ और तूफान में कई जानें गयी. पिछले कुछ समय से अमेरिका में जलवायु परिवर्तन का असर सीधे तौर पर नजर आ रहा है.