आवासीय अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत लेयलानी फरहा ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत को आवासीय क्षेत्र में भी मानव अधिकारों पर आधारित एक व्यापक और अधिक दूरदर्शी कानून की आवश्यकता है. एक ऐसा कानून जो असमानता को दूर करता हो और लंबे समय के लिये रोड मैप मुहैया कराता हो.
फरहा ने कहा कि आवासीय नीतियों को बेघर और अवैध बस्तियों में रहने वाले लोगों को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए. रिपोर्ट में लिखा है कि देश में लोगों को घर मुहैया कराने के लिये तमाम योजनाएं जरूर चलाई जा रहीं हैं लेकिन इसके बाद भी तकरीबन 6 करोड़ की आबादी बेघर है या किसी न किसी रूप से इस समस्या से जूझ रही है.
पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में एक कदम ऐसे घर बनाना भी हो सकता है, जो उसे नुकसान ना पहुंचाएं. यूरोप के कई हिस्सों में लोग नए नए आइडिया लगाकर ऐसे घर बना रहे हैं जिनका क्षेत्रफल और कार्बन फुटप्रिंट दोनों ही कम हों.
तस्वीर: Colourboxघास की चादर में लिपटा और प्रकृति में ही घुला मिला दिखने वाला यह छोटा सा घर. धरती और पास के जंगल से लाई गई चीजों से ही इस घर को बनाने में केवल चार महीने लगे. इसके फर्श, दीवारें, और छत को तिनकों को जोड़ कर बनी परत की मदद से विद्युतरोधी बनाया गया है. पहाड़ी क्षेत्र में बनाने के कारण यह दूर से एक छोटी सी पहाड़ी जैसा ही दिखता है.
तस्वीर: cc-by-nc-sa/Simon & Jasmine Daleनाव की सैर में तो ज्यादातर लोगों को आनंद आता है लेकिन रात को पानी की लहरों के बीच डोलती ऐसी ही नाव में सोना कितने लोग पसंद करेंगे. हाल के सालों में यूरोप की नहरों में माल लादने वाली चौड़ी पेंदे वाली नावों पर बने घरों में रहने का चलन आया है. यह कई अलग अलग आकारों, डिजाइनों और कीमतों में उपलब्ध हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/JOKERयात्रा के शौकीन लोगों ने कहीं ना कहीं शायद सर्कस के तंबू कनातों जैसे आशियाने में रात गुजारी होगी. आजकल कई लोग सर्कस की गाड़ियों को ही अपना घर बना रहे हैं. इस वैकल्पिक व्यवस्था में आप प्रकृति के करीब भी रह सकते हैं और ईंट और कंक्रीट से ना बने होने के कारण इन्हें एक जगह से दूसरी जगह भी ले जा सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaजर्मन राजधानी बर्लिन में जब घरों की मांग बेतहाशा बढ़ी तो एक स्थानीय गृह निर्माण विशेषज्ञ ने एक अनोखा आइडिया सुझाया. उन्होंने छात्रों के लिए एक ऐसा पूरा गांव बसाने का फैसला किया जो पुराने कंटेनरों से बना हो. यह ट्रेंडी गांव बर्लिन के हरे भरे इलाके में बसाया गया है और इसे "इंडस्ट्रियल कूल" का उदाहरण माना जाता है.
तस्वीर: Jorg Duskeघरों का यह छरहरा अवतार है- होमबॉक्स. इनकी पतली और लंबी बनावट इसे काफी शालीन लुक देती है. खर्च बचाते हुए घर की बाहरी सतह को लकड़ी के प्राकृतिक रूप में ही रखा गया है. इसका आकार किसी औसत शिपिंग कंटेनर जितना ही है, फर्क बस इतना है कि वह जमीन पर पड़ा ना होकर खड़ा है. इस अनोखे तीन मंजिले घर में सभी आधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaधातु, लकड़ी या कई दूसरे पदार्थों से बने ट्री हाउस भी ईको फ्रेंडली घरों के बाजार का हिस्सा हैं. हाल के सालों में यूरोप में इनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी है और जंगलों में कई नए हॉस्टल और हॉलीडे होम बने हैं. घूमने जाने वाले लोग इन ट्री हाउस में रहकर जंगल में पक्षियों की तरह नजारे देखने का आनंद लेते हैं.
तस्वीर: Andreas Wenningजर्मन डिजाइनरों की यह पेशकश किसी मौजूदा बिल्डिंग के ऊपर, समुद्र के किनारे, मैदानों या फिर किसी भी खाली जगह में रखी जा सकती है. ये ईकोफ्रेंडली घर छोटे, हल्के और बेहद स्टाइलिश हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaपरंपरागत रूप से बड़े बड़े बगीचों में लोग थोड़ी छाया का इंतजाम करके छोटे कमरे तो बनाते ही आए हैं. हाल के सालों में यह कई तरह के डिजाइन और आकार में बनने लगे हैं और कई लोग कम बजट और कम जगह में इसे अपना ईकोफ्रेंडली घर बना रहे हैं.
तस्वीर: Colourbox हालांकि सरकार ने साल 2022 तक सबको मकान देने का आश्वासन दिया है लेकिन सरकार के इस दावे पर संशय बना हुआ है. एक ओर सरकार इस योजना को कारगार बनाने के लिये हर संभव कोशिश में लगी है लेकिन दूसरी ओर फिलहाल जमीनी हकीकत कुछ और है.
फरहा कहती हैं कि इन नीतियों का जोर लोगों को घर का मालिकाना अधिकार देने पर तो है लेकिन इसमें महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों और आदिवासी लोगों पर ध्यान नहीं दिया गया है. परामर्शीय सेवायें देने वाली कंपनी एफएसजी के मुताबिक भारत की शहरी आबादी का एक चौथाई हिस्सा किफायती आवास की कमी के चलते मलिन बस्तियों और अवैध कॉलोनियों में रहता है. बढ़ते शहरीकरण के चलते भविष्य में यह समस्या और भी गहरा सकती है. फरहा ने इस समस्या को प्राथमिकता देते हुये इसे मानवाधिकारों में शामिल करने पर जोर दिया ताकि साल 2030 तक इस समस्या से छुटकारा पाया जा सके.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब 10 लाख लोग शहरी क्षेत्रों में बेघर है लेकिन गैर सरकारी संस्थाओं के मुताबिक यह आंकड़ा तीन गुना से भी अधिक है.
एए/आरपी (रॉयटर्स)