आइनश्टाइन और प्रथम विश्व युद्ध
३१ मई २०१४"ऐसे वक्त में पता चलता है कि आप किस दुखद जानवर की नस्ल के सदस्य हैं." इन शब्दों के साथ 19 अगस्त 1914 में वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनश्टाइन ने रूस और फ्रांस पर जर्मनी के हमले के एलान के बारे में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं. वे अपने साथ काम कर रहे दोस्तों को लिख रहे थे और इनमें से कई वैज्ञानिक देशभक्त भी थे, जिससे आइनश्टाइन को काफी परेशानी भी थी. इस समय वे एक बुद्धिजीवी और शांतिवादी के तौर पर अकेले पड़ गए थे. 35 साल के आइनश्टाइन ने लिखा, "मैं शांति से अपने विचारों में खो जाता हूं और मेरे मन में संवेदनशीलता और घृणा की मिश्रित भावनाएं हैं. "
आइनश्टाइन ने इसी साल प्रशियन विज्ञान अकादमी में काम करना शुरू किया और स्विट्जरलैंड से बर्लिन आ गए, जो विश्व युद्ध का केंद्र बन गया था. आइनश्टाइन हिंसा और सेना से जुड़ी हुई सारी बातों के खिलाफ थे. 16 साल की उम्र में उन्होंने अपनी जर्मन नागरिकता छोड़ दी थी ताकि उन्हें सैनिक के तौर पर युद्ध सेवा न करनी पड़े. लेकिन बर्लिन में उनके साथ काम कर रहे वैज्ञानिकों में भी युद्ध और देशभक्ति की भवनाएं उमड़ रही थीं.
इनमें से कई वैज्ञानिकों ने "सांस्कृतिक जगत को बुलावा" नाम के एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए जिसमें बेल्जियम पर जर्मन हमले की तारीफ की गई, जर्मनी की नैतिक और सांस्कृतिक धरोहर को सर्वश्रेष्ठ बताया गया और चीनी और अफ्रीकी मूल के लोगों के खिलाफ उकसाने की कोशिश की गई. इनके बारे में कहा गया कि वे जर्मनी को बर्बाद करना चाहते हैं.
आइनश्टाइन के लिए यह स्थिति असहनीय हो गई. अपने एक डॉक्टर दोस्त गेयॉर्ग फ्रीडरिष निकोलाई के साथ मिलकर उन्होंने एक अलग दस्तावेज पर काम करना शुरू किया. इसे "यूरोपीय नागरिकों को बुलावा" नाम दिया गया और इसमें यूरोपीय शांति स्थापित करने की बात की गई. लेकिन इस दस्तावेज को समर्थन देने वाले केवल दो लोग थे. डॉक्टर निकोलाई का करियर पूरी तरह खत्म हो गया. आइनश्टाइन को स्विट्जरलैंड का नागरिक मानकर उनसे लोगों को इस तरह की सोच की उम्मीद थी और वे किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से बच निकले.
आइनश्टाइन चार साल तक बर्लिन में रहे. पहले विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद वे काफी खुश हुए और उन्हें लगा कि सेना कभी वापस नहीं आएगी. लेकिन वे गलत थे. 19 साल बाद हिटलर को चांसलर चुना गया. 1933 में अमेरिका को निकले आइनश्टाइन इसके बाद अपने देश कभी वापस नहीं लौटे.
रिपोर्टः टिलमान बेंडिकोव्स्की/एमजी
संपादनः महेश झा