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इंजीनियर की 'सनक' से लद्दाख में जल संकट का समाधान

१३ मार्च २०१८

एक इंजीनियर ने कृत्रिम ग्लेशियर बना कर लद्दाख के सुदूर इलाकों से पानी का संकट दूर कर दिया अब वो वहां कृषि को बेहतर बनाने में जुटे हैं.

Indien Tso Pangong, Ladakh
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/L. Shepherd

वर्षो पहले जाड़े के दिनों में कड़ाके की ठंड के बीच एक सुबह लद्दाख के सुदूर पर्वतीय गांव में एक छोटा सा बालक बर्फ जमी आधी पाइप से निकल रहे पानी को गौर से निहार रहा था. उसने देखा कि पानी वहां एक गड्ढे में इकट्ठा होते ही जमता जा रहा है. गड्ढा किसी ग्लेशियर व हिमानी सा प्रतीत हो रहा था.

बालक च्यूवांग नोर्फेल बड़ा होकर कुछ साल बाद 1986 में जम्मू एवं कश्मीर ग्रामीण विकास विभाग में सिविल इंजीनियर के पद पर तैनात हुआ और अपने बचपन के प्रेक्षणों से प्रेरणा लेकर लेह में पहला कृत्रिम ग्लेशियर विकसित किया. इससे वहां के निवासियों के पानी का संकट दूर हुआ. इलाके में करीब 80 फीसदी लोग किसान थे और वे जौ व गेहूं उपजाकर अपना गुजारा करते थे.

अपने प्रयोग की सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने पूरे लद्दाख में 17 ग्लेशियर यानी हिमानी का निर्माण किया है, जिसके बाद उनको 'आइस मैन ऑफ इंडिया यानी भारत का हिम पुरुष' की उपाधि दी गई. उनकी इन परियोजनाओं में उनको प्रदेश सरकार द्वारा संचालित विभिन्न कार्यक्रमों के अलावा सेना और कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों से वित्तीय सहायता मिली.

प्रेरणा पुरुष नोर्फेल अब 80 साल के हो चुके हैं उनकी यह यात्रा आसान नहीं थी. शुरू में लोग उन्हें पागल कहा करते थे लेकिन, इससे वे अपने पथ से विमुख नहीं हुए क्योंकि उन्होंने वहां पानी का गंभीर संकट देखा था जिसका समाधान तलाशना लाजिमी था.

च्यूवांग नोर्फेल ने आईएनएस से बातचीत में कहा, "लद्दाख की आबोहवा कुछ अलग है जहां आपको कड़ाके की ठंड की डंक सहनी पड़ सकती है. यहां की करीब 80 फीसदी आबादी किसानों की है और उनकी सबसे बड़ी समस्या है कि अप्रैल-मई के दौरान जब बुआई का समय आता है तो पानी नहीं मिलता है क्योंकि हिमनद झरने जम जाते हैं और नदियों में बहुत कम पानी आता है."

प्रशस्तियों व अवार्ड से भरे कमरे में बैठे व लॉन की तरफ देखते हुए नोर्फेल ने कहा कि ताजा पानी का मुख्य स्रोत नदियां हैं लेकिन ऊंचाई पर पानी का बहाव किसानों के लिए कोई काम नहीं आता है.

2015 में पद्मश्री से अलंकृत नोर्फेल ने बताया कि इसलिए हमने गांवों के पास हिमनद बनाया. उनकी इन उपलब्धियों के लिए 2011 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) से भी पहचान मिली.

लद्दाख में जाड़े में कड़ाके की ठंड पड़ने के कारण इस मौसम में कोई फसल नहीं होती है. इस दौरान जो पानी बहता है वह बर्बाद हो जाता है जबकि बुआई के मौसम में पानी बहुत कम उपलब्ध होता है क्योंकि प्राकृतिक हिमनद जो वहां 20-25 किलोमीटर दूर करीब 5000 फुट की ऊंचाई पर हैं, जून में ही पिघलते हैं.

उन्होंने कहा, "इसलिए मैंने सोचा कि अगर कम ऊंचाई पर हिमनद हो तो उसमें जमी बर्फ जल्दी पिघलेगी क्योंकि वहां तापमान अपेक्षाकृत अधिक होता है. इसी से कृत्रिम हिमानी बनाने का विचार आया."

बर्फ के रूप में जाड़े के पानी को संरक्षित करने की यह एक विधि है और कम ऊंचाई पर कृत्रिम हिमानी बनाने से जरूरत पड़ने पर पानी मिलना संभव था.

उन्होंने कहा, "अक्टूबर में हिमानी बनाने का काम शुरू होता है जब गांववासी हिमनद के झरनों का रुख मोड़कर बांध बनाते हैं और जिससे पानी का वेग कम होता है. हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि गहराई कुछ ही इंचों का हो ताकि पानी आसानी से जम पाए."

नोर्फेल ने लद्दाख के दुर्गम पर्वतीय इलाके में हिमनद बनाया है इसमें एक स्थान धा भी शामिल है. ब्रोकपा जनजाति का यह गांव अपनी संस्कृति और कारगिल युद्ध में अपने योगदान के लिए पूरे क्षेत्र में चर्चित है.

तस्वीर: CC / mckaysavage

लेकिन उनको सबसे ज्यादा पसंद फुकते घाटी में 1000 फुट चौड़ी ग्लेशियर है जिससे पांच गांवों को पानी की आपूर्ति होती है. इसके बनाने पर करीब 90,000 रुपये की लागत आई थी.

उन्होंने बताया कि आज कृत्रिम ग्लेशियर की लागत 15 लाख तक आती है जोकि उसके आकार व क्षमता पर निर्भर करता है.

नोर्फेल ने बताया कि फुकते गांव में कृत्रिम हिमानी बनाने की उनकी संकल्पना पर किस तरह लोग उपहास करते थे.

उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, "कोई मेरी बातों को गंभीरता से नहीं लेता थे लेकिन आज उन सबको फायदा मिला है. मुझे इन हिमनदों पर गर्व है. दरअसल, मेरी संकल्पनाओं से अनेक लोग लाभान्वित हुए हैं जिससे मेरे मन को सुकून मिला है."

सरकारी सेवा में 34 साल बिताने के बाद 1994 में सेवामुक्त हुए नोर्फेल को बेकार बैठे रहना पसंद नहीं है. जब वह किसी काम के लिए बाहर नहीं जाते हैं तो वह अपनी पत्नी के साथ अपने कमरे में चिंतन-मनन करते हैं या अपने छोटे से बगीचे में जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रयोग करते हैं कि कैसे इस बदलाव का उपयोग समाज के हित में किया जा सकता है. वह मैदानी क्षेत्र की भांति पहाड़ पर शलजम, बैगन, शिमला मिर्च और खीरा उगाने के उपक्रम में जुटे रहते हैं.

जो उन्हें करीब से जानते हैं उनके लिए वह नायक हैं. नोर्फेल इस उम्र में भी और शक्ति व ऊर्जा की कामना करते हैं.

उन्होंने कहा, "पहले मुझ में काफी ऊर्जा थी लेकिन अब लगता है बुढ़ावा असर दिखा रहा है. लेकिन अब मेरी इच्छा है कि युवा इस जिम्मेदारी को संभालें. मेरी कामना है कि वे जलवायु परिवर्तन को व्यावहारिक रूप से समझें."

तस्वीर: cc-by-2.0/Gopal Vijayaraghavan

उनके घर में दुनियाभर से आए छात्रों का जमघट लगा रहता है. वर्तमान में वह कई एनजीओ को ऊंचाई पर बसे चांगतांग जिला और निचले क्षेत्र जहां बेहतर खेती के लिए जमीन, पानी और उचित तापमान में से कम से कम एक चीज की कमी जरूर होती है, समेत संपूर्ण शीत मरुभूमि में उनकी संकल्पना का अनुकरण करने में मदद कर रहे हैं.

उन्हें बताया, "चांगतांग क्षेत्र में कृषि योग्य जमीन और पानी है लेकिन खेती के लिए जरूरी तापमान नहीं होता है क्योंकि वहां काफी सर्दी होती है. वहीं, लेह में कृषि योग्य भूमि व तापमान है लेकिन पानी नहीं है और लेह से नीचे के इलाके में पानी व तापमान है लेकिन कृषि योग्य पर्याप्त भूमि नहीं है. हम संसाधनों व प्रौद्योगिकी का बेहतर इस्तेमाल कर रहे हैं."

उन्होंने बताया, "इजरायल में पानी कम है और तापमान भी अनुकूल नहीं है. इसके अलावा भूमि भी सीमित है. फिर भी उनकी पैदावार अच्छी है. हम वैसा ही करना चाहते हैं."

वह जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को देखते हैं और उनका उत्तम उपयोग करना चाहते हैं.

उन्होंने कहा, "लद्दाख में जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक और नकरात्मक दोनों पक्ष हैं. पहले फसल उगाने के बहुत कम विकल्प थे लेकिन अब हमारे पास ज्यादा विकल्प हैं. हम सब्जी उगा सकते हैं. नकारात्मक पक्ष यह है कि अनके हिमनदीय झरनों का जल बेकार हो जाता है."

कुशाग्र दीक्षित (आईएएनएस)

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