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इंदिरा गांधी: करिश्मे और विवाद का एक महा दौर

३० अक्टूबर २००९

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या को 25 साल हुए. देश ने राजनैतिक परिवर्तन के कई दौर देखे. लेकिन इंदिरा के व्यक्तित्व का करिश्मा ही था जो वो अब भी समकालीन राजनैतिक इतिहास में शिद्दत से याद की जाती हैं.

इंदिरा गांधी की हत्या के 25 सालतस्वीर: AP

1950 के दशक में पच्चीस छब्बीस साल की उम्र में जब इंदिरा गांधी ने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में क़दम रखा तो उन्हें एक गूंगी गुड़िया समझा गया. कांग्रेस पार्टी में उन्हें स्वीकार्यता मिली लेकिन देर से. और देखते ही देखते गूंगी गुड़िया आयरन लेडी यानी लौह महिला का दर्जा पा गई.

लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में अपनी पारी शुरू करने वाली इंदिरा की अदम्य राजनैतिक जीवटता और महत्वाकांक्षा ही थी जो वो जल्द ही देश की तीसरी प्रधानमंत्री बन गई. प्रधानमंत्री के रूप में पहला बडा़ फ़ैसला उन्होंने किया बैंको के राष्ट्रीयकरण का. ये बात है उन्नीस सौ उन्हत्तर की. और दो साल बाद ही इंदिरा ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपने राजनय की दूरदर्शिता और तीखेपन की ऐसी मिसाल पेश की कि सब देखते रह गए.

रिचर्ड निक्सन इंदिरा से बेतरह चिढ़े रहेतस्वीर: AP

1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ और बांग्लादेश का जन्म हुआ. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन इंदिरा को चालाक लोमड़ी और न जाने क्या क्या कह कर हाथ मलते रहे. इसी दौर में इंदिरा ने सोवियत संघ से रिश्तों की नई शुरूआत की. यही नहीं, 1974 में परमाणु परीक्षण कर उन्होंने दुनिया को एक बार फिर झकझोर दिया. दूसरी तरफ़, यही वो दौर था जब इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति का नारा दिया. और देश में बेशुमार खाद्यान्न उत्पादन का दौर शुरू हुआ. इंदिरा ने 1971 में जब ग़रीबी हटाओ का नारा दिया तो उनके चाहने वालों ने कहना शुरू कर दिया था कि इंडिया इज़ इंदिरा और इंदिरा इज़ इंडिया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले और इंदिरा की हठधर्मिता से जलते हुए सत्तर के दशक ने इमरजेंसी का क्रूर चेहरा देखा. 1975 में इंदिरा ने इमरजेंसी लगाकर राजनीति से लेकर मीडिया तक अपने विरोधियों को ख़ामोश करने की कोशिश की. कहते हैं कि इस दौरान अघोषित रूप से कमान संभालने वाले उनके छोटे बेटे संजय गांधी और उनकी टोली ने जमकर उत्पात मचाया. नतीजा यह हुआ कि 1977 के चुनाव में इंदिरा हार गई. बिहार से इमरजेंसी के ख़िलाफ़ एक स्वत स्फूर्त आंदोलन उठा जिसके नायक बने जयप्रकाश नारायण. इंदिरा का आरोप था कि उनके पिता के मित्र जेपी हिंदूवादी ताक़तों की मदद से उन्हें ललकार रहे हैं.

अपार जन विरोध की आंधी में इंदिरा को फौरन इमरजेंसी उठाने का फ़ैसला करना पड़ा. 1977 में उन्होंने आम चुनाव भी करा दिए. और हार गईं. कई दलों की मिली जुली जनता पार्टी सत्ता में आई लेकिन आपसी टकराहटों ने इस जनता सरकार को ज़्यादा दिन चलने नहीं दिया. 1980 में फिर चुनाव हुए और इंदिरा गांधी एक बार फिर राजनीति के दृश्य पटल पर उभर आईं. वो चुनाव जीतीं वो भी प्रचंड बहुमत के साथ. फिर तो उनके चाहने वाले कभी उन्हें दुर्गा कहते, कभी काली. लोग इमरजेंसी का दंश भुलाने लगे. और यही इंदिरा की राजनैतिक सफलता थी.

दलाई लामा के साथ इंदिरा 1959 मेंतस्वीर: AP

यही वो दौर था जब इंदिरा अंतरराष्ट्रीय मंचों में एक केंद्रीय भूमिका में नज़र आने लगीं. दिल्ली में 1983 में सातवां गुटनिरपेक्ष सम्मेलन हुआ तो क्यूबा के तत्कालीन राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने अध्यक्षता इंदिरा को सौंपी. उस ऐतिहासिक मौके पर कास्त्रों इंदिरा के गले लगे और उन्हें अपनी बहन कहा.

लेकिन 80 का दशक इंदिरा के लिए शुरूआत से ही सघन दौड़ धूप से भरा रहा. देश के भीतर अलगवावादी आवाज़ें मुखर होनें लगीं. पंजाब में सिख चरमपंथ उभरा. और इंदिरा गांधी ने आखिरकार अपने राजनैतिक दुस्साहस का एक बार फिर परिचय दिया. 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ. सेना की टुकड़ियां अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में घुस गईं.

गांधी नेहरू परिवार की देश के पिछड़ों में रही ख़ास छवितस्वीर: AP

इंदिरा के इस फ़ैसले से देश के राजनैतिक इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा, जिसमें ख़ून के छींटे बिखरे हुए थे. इंदिरा ने ऑपरेशन के बाद एक जगह रैली में कहा कि उनके ख़ून की एक एक बूंद देश के काम आएगी. इस भाषण के कुछ ही दिन बाद 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी को सुबह के वक़्त उनके दो सिख अंगरक्षकों ने उनके दिल्ली स्थित निवास पर गोलियों से भून डाला.

भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी की क़रीब चार दशक की दबंग जीवट और दुस्साहस से भरी मौजूदगी इतनी सघन और पुरअसर है कि मौत के 25 साल बाद भी उनका नाम लिए बगैर राजनीति का कोई किस्सा शायद कभी पूरा नहीं होगा.

रिपोर्ट-प्रिया एसेलबोर्न

संपादन-एस जोशी

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