वैज्ञानिकों के मुताबिक दक्षिणी भारत में पाये जाने वाले मेंढकों के बलगम (कफ) में एक खास तरह का रसायन मिला है जिसका इस्तेमाल इंफ्लूएंजा के वायरस से निपटने के लिये किया जा सकता है.
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वैज्ञानिकों के मुताबिक मेंढकों के बलगम में इंफ्लूएंजा के वायरस को मारने की क्षमता होती है. यह खोज उपयोगी और शक्तिशाली एंटी-वायरल ड्रग्स के विकास में मदद कर सकती है लेकिन मेंढकों की कई प्रजातियों आज विलुप्त होने के कगार पर हैं जो वैज्ञानिकों के लिए चिंता का कारण भी है.
साइंस पत्रिका "इम्युनिटी" में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, मेंढकों की एक खास प्रजाति हाइड्रोफिलैक्स बहुविस्तारा में पाये जाने वाले कण यूरुमिन में फ्लू के वायरस को मारने की क्षमता होती है. शोधकर्ताओं ने चूहों पर इसका परीक्षण किया और देखा कि चूहे, स्वाइन फ्लू नामक एच1एन1 वायरस समेत अन्य फ्लू वायरस को खत्म करने में सक्षम हैं. मेंढकों पर इंफ्लूएंजा वायरस का कोई असर नहीं होता लेकिन बैक्टीरिया और कवक संक्रमणों के साथ-साथ अन्य रोगों से उन्हें खतरा है. इस खोज ने शोधकर्ताओं को एक कारण दिया है जो यह साबित करता है कि मेंढकों के पेप्टाइड बॉन्ड में एंटी वायरल तत्व शामिल हो सकते हैं.
इस खोज के बाद भी इसे दवाई में रूप में विकसित करने में समय लगेगा क्योंकि यूरुमिन कण मानव शरीर में लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता, ऐसे में वैज्ञानिकों के सामने इसे अधिक स्थायी बनाने की बड़ी चुनौती है. इसके बाद ही इसे उपचार में एक विकल्प के तौर पर देखा जा सकेगा.
खतरे में हैं मेंढक
दुनिया में उभयचरों की करीब छह हजार प्रजातियां खतरे में हैं. इनमें मेंढक भी शामिल हैं. कीटनाशकों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल, जलवायु परिवर्तन और चिट्रिड नाम की एक फंगस मेंढकों के अस्तित्व पर खतरा बन गई है.
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विलुप्त होने का खतरा
लाल आंखों वाला यह स्ट्रीम फ्रॉग खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है. बायोलॉजी में इसे 'डुएलमनोहिला युरैनोक्रोआ' कहते हैं. यह दुनिया भर में कम हो रहे उभयचरों का प्रतीक बन गया है. कभी यह निशाचर मेंढक कोस्टा रीका और पनामा में बहुत पाया जाता था. लेकिन लोगों के बढ़ने और फंगल बीमारी के कारण 165 उभयचर प्रजातियां हाल के सालों में खत्म हुई हैं.
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क्यों मर रहे हैं?
चिट्रिड फंगस उभयचरों के मारे जाने का मुख्य कारण है. इस फंगस के कारण मेंढकों की त्वचा खराब हो जाती है. इसी त्वचा के जरिए वह सांस भी लेते हैं. माना जाता है कि यह बीमारी अफ्रीकी नाखून वाले मेंढक से आई है. 1950 के दशक में अफ्रीकी क्लॉड फ्रॉग पर दुनिया भर में इंसानी गर्भ से जुड़े परीक्षण किए गए थे. उसी समय यह फंगस फैली और कई प्रजातियों को खत्म कर दिया. इनमें 'एटेलोपस जीनस' के ये हार्लेकिन मेंढक भी थे.
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अनिश्चितता
पनामा के वर्षावनों में खूब लंबी छलांग लगाने के लिए ये मेंढक मशहूर हैं. लेकिन लकड़ी की कटाई से उनके रहने की जगहें खत्म हो रही हैं. बाकी विनाश कीटनाशक कर रहे हैं.
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चेतावनी
उभयचर संकेत देते हैं कि पृथ्वी कितनी स्वस्थ है. वे पानी और हवा से पदार्थ लेते हैं इसलिए वे पर्यावरण में होने वाले छोटे से छोटे बदलावों के प्रति भी संवेदनशील होते हैं. इसलिए उनका गायब होना या कम होना खराब होते पर्यावरण की चेतावनी है.
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इंसानों की जरूरत
मेंढकों, छिपकलियों, गिरगिट, केंचुओं की खाद्य श्रृंखला में अहम भूमिका होती है. वे कीड़े खाते हैं और उन्हें सांप, चिड़िया या इंसान खाते हैं. मेडिकल रिसर्च के मुताबिक कुछ उभयचर ऐसे रसायन पैदा करते हैं जो इंसानी बीमारियों को ठीक कर सकते हैं. तस्वीर में दिखता मेंढक ऐसा जहर पैदा करता है जिसे भाले पर लगाया जाता था.
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नई प्रजातियां
एक ओर तो कई प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, दूसरी ओर कुछ नई प्रजातियां मिल भी रही हैं. पिछले साल यह 'यलो डायर' मेंढक मिला. अगर इसे छू लें तो हाथ पीले हो जाते हैं. इसे पश्चिमी पनामा के जंगलों में जर्मन मूल के बायोलॉजिस्ट आंद्रेयास हेर्ट्स ने ढूंढा. इसका वैज्ञानिक नाम 'डियास्पोरस सिट्रिनोबाफियस' है.
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एम्फिबीयन आर्क
उभयचरों और सरीसृप के विशेषज्ञ हेरपेटोलॉजिस्ट कहे जाते हैं. आंद्रेयास हेर्ट्स इन्हीं में से एक हैं. वे लैटिन अमेरिका के दुर्लभ उभयचरों को ढूंढने के मिशन पर हैं. 2007 से वह एम्फिबियन आर्क नाम के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. इसमें प्रजातियों को जानलेवा चिट्रिड फंगस से बचाने के लिए पकड़ कर सुरक्षित रख दिया जाता है.
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इस्राएल में मिले
इस पत्ती जैसे रंग वाले मेंढक को छह दशक से विलुप्त माना जा रहा था लेकिन 2011 में उत्तरी इस्राएल में यह मिला. इसके बाद और भी मिले. बताया जा रहा है कि हूला घाटी में इस प्रजाति के 200 मेंढक रहते हैं. ये ऐसे जीव हैं जिनमें लाखों साल से कोई बदलाव नहीं हुआ है. उन्हें लिविंग फॉसिल कहा जाता है.
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विविध और सुंदर
आईयूसीएन की रेड लिस्ट में सबसे कम चिंता वाली स्थिति स्ट्रॉबेरी पॉइजन डार्ट फ्रॉग की है. यह ढाई सेंटीमीटर का मेंढक कोस्टारिका, पनामा और पुएर्तो रिको में मिलता है. इसका जहर इंसान को उतना नुकसान नहीं पहुंचाता जितना दूसरे जहरीले मेंढकों का, लेकिन परेशान तो करता ही है.
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बिना फेंफड़े वाले
चपटे सिरवाले बोर्नियन मेंढकों के फेंफड़े नहीं होते. वे त्वचा से सांस लेते हैं. इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप पर ठंडे और तेजी से बहने वाले पानी में ये रहते हैं. अवैध सोने की खदानों और प्रदूषण के कारण इस दुर्लभ मेंढक की जान पर बन आई है.
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वैज्ञानिकों को भरोसा है कि आने वाले समय में इस कण को रासायनिक बदलाव कर इस तरह ढाला जा सकेगा कि यह मनुष्यों के उपयोग में भी आ सके. वैसे इस खोज ने भविष्य की संभावनाओं को बल दिया है और वैज्ञानिकों को भरोसा है कि मेंढकों की अन्य प्रजातियों में ऐसे तत्व जरूर होंगे जो अन्य वायरस से निपटने में कारगर साबित हो सकें और डेंगू बुखार जैसी बीमारियों का सामना करने में सक्षम हो.
साल 2005 में साइंस पत्रिका "जर्नल ऑफ वीरोलॉजी" में छपे एक अध्ययन में कहा गया था कि कुछ मेंढकों की त्वचा में एक खास तरह का रसायन पाया जाता है जो एचआईवी इंफ्केशन से निपटने में कारगर साबित हो सकता है.
हालांकि यह अध्ययन विलुप्त होने की कगार पर खड़े मेंढकों को बचाने का एक कारण भी देता है. इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की रेड लिस्ट मुताबिक मेंढकों की तकरीबन 466 प्रजातियां गंभीर खतरे में हैं. साल 1980 से लेकर अब तक मेंढकों की करीब 120 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और इनकी विलुप्तता का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन, आवास की कमी, शिकार और बीमारियों को बताया गया है.