तेल से लदा 300 मीटर लंबा टैंकर बर्फीले संमदर में अकेले निकल पड़ा. यह दुस्साहस ही था. उस रास्ते पर अकेले जाने की हिम्मत इससे पहले किसी ने नहीं जुटायी थी.
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रूसी तेल टैंकर ने बर्फ से जमे आर्कटिक को अकेले पार किया है. यह पहला मौका है जब बर्फ तोड़ने वाले विशेष जहाज (आइसब्रेकर) के बिना किसी जहाज ने इस बर्फीले सागर को पार किया है. नॉर्वे से दक्षिण कोरिया के लिए तेल लेकर निकला रूसी टैंकर 1.2 मीटर मोटी बर्फ को चीरता हुआ उत्तरी सागर से बाहर निकला.
फिलहाल यूरोप से पूर्वी एशिया जाने वाले जहाजों को भूमध्यसागर और स्वेज नहर का रास्ता लेना पड़ता है. जापान, सिंगापुर, थाइलैंड, मलेशिया, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जाने के लिए यह रास्ता बहुत लंबा पड़ता है. आर्कटिक या उत्तरी सागर वाला रास्ता 30 फीसदी समय बचाएगा.
30 करोड़ डॉलर की लागत से बने तेल टैंकर क्रिस्टॉफ दे मार्गेरी में बर्फ तोड़ने के खास इंतजाम हैं. 300 मीटर लंबे टैंकर में बर्फ की चादर को चीरने के लिए इंटरनल आइसब्रेकर लगाया गया है. टैंकर की मालिक रूसी कंपनी सोवोकोमफ्लोट के प्रवक्ता बिल स्पीयर्स के मुताबिक, "उत्तरी सागर बहुत ही जल्दी पार हो गया. पहले आइसब्रेकर की सुरक्षा में चलना पड़ता था. यह पता चलना बहुत ही रोचक है कि इस रूट पर अब जहाज साल भर चल सकते हैं."
रूस में अब ऐसे 15 और ऑयल टैंकर बनाए जाएंगे. एक अनुमान के मुताबिक जहाजों की बढ़ती आवाजाही के कारण आर्कटिक में तेल और गैस अभियान को भी तेजी मिलेगी. प्रतिष्ठित कहे जाने वाले कुछ सर्वेक्षणों में यह साफ हो चुका है कि उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक के नीचे हजारों अरब डॉलर की प्राकृतिक संपदा है. वहां तेल, गैस और बहुमूल्य धातुओं का भंडार है.
कारोबार के लिए भले ही यह अच्छी खबर हो, लेकिन पर्यावरण के लिए यह बुरी खबर है. विशेषज्ञों के मुताबिक आर्कटिक को आसानी से पारकर करने का मतलब है कि वहां बर्फ की चादर पतली हो रही है, यानि समंदर गर्म हो रहा है. 2017 की ही शुरुआत में वैज्ञानिकों ने दावा किया था जलवायु परिवर्तन के चलते पृथ्वी के सबसे ठंडे इलाकों में गर्म हवाएं चलने लगी हैं. इन बदलावों के चलते बर्फ की मोटायी रिकॉर्ड स्तर तक घट चुकी है.
(पनामा नहर यानि 13,000 किलोमीटर का शॉर्ट कर्ट)
खुल गई नई पनामा नहर
9 साल के निर्माण कार्य के बाद आखिरकार पनामा नहर चौड़ी हो गई. करीब 13,000 किलोमीटर का समुद्री सफर बचाने वाली इस नहर से अब विशाल जहाज भी गुजर सकते हैं.
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पश्चिम का गेट
पनामा नहर 82 किलोमीटर लंबी है. पुरानी नहर विशाल जहाजों के लिए छोटी पड़ रही थी. इसकी वजह से पनामा की अहमियत कम हो रही थी. लिहाजा नहर में नए और बेहद चौड़े लॉक लगाने का फैसला किया गया. नहर प्रशांत और अटलांटिक महासागर को जोड़ती है.
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वो पहला जहाज
चाइनीज कंपनी का जहाज "कोस्को शिपिंग पनामा" चौड़ी नहर से गुजरने वाला पहला जहाज बना. जहाज को लॉक पार कराने वाले कप्तान ने कहा, "मैं यहां से कई बार गुजरा हूं लेकिन पहली बार जहाज को नए चैनल से ले जाना जबरदस्त अनुभव रहा."
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कई बार अभ्यास
उद्घाटन से पहले कई बार मॉडल जहाज को नहर के नए और विशाल लॉक से गुजारने का अभ्यास किया गया. अब 366 मीटर लंबे और 49 मीटर चौड़े जहाज यहां से गुजर सकेंगे. नए लॉक 14,000 कंटनरों से लदे जहाज को भी आर पार करा सकते हैं. उम्मीद है कि नए लॉक लगाने के बाद नहर से 60 करोड़ टन सामान की आवाजाही होगी, पहले से करीब दोगुना सामान.
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अथाह खर्च
नहर को चौड़ा करने में करीब 5.25 अरब डॉलर लगे. पूर्वानुमान से दो अरब डॉलर ज्यादा खर्च हुए. लॉक बनाने में 40,000 लोगों की मेहनत लगी. 15 करोड़ घनमीटर मिट्टी हटाई गई. 1,92,000 टन स्टील का इस्तेमाल हुआ. मजदूरों की हड़ताल के चलते निर्माण कार्य दो साल देर से पूरा हुआ.
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बड़े जहाजों के लिए बड़े लॉक
पनामा नहर में तीन लॉक सिस्टम लगे हैं. इन लॉकों में करोड़ों लीटर पानी भरा जाता है. यह पानी जहाजों को ऊपर उठाता है और अगले लॉक तक ले जाता है. इस तरह जहाज ऊपरी झील तक पहुंचते हैं. नीचे आते समय लॉकों का पानी कम किया जाता है. नए लॉकों के बनने के बाद दुनिया भर के 96 फीसदी जहाज इसका इस्तेमाल कर सकेंगे.
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आर्थिक कारण
38 लाख की आबादी वाला देश पनामा, राजस्व के लिए नहर पर काफी हद तक निर्भर है. जहाजों पर लगने वाले टैक्स की बदौलत देश हर साल अरबों डॉलर कमाता है. उम्मीद है कि नए लॉक लगने के बाद पनामा को नहर से हर साल 4 अरब डॉलर की कमाई होगी. नहर देखने हर साल लाखों टूरिस्ट भी आते हैं. स्थानीय अर्थव्यवस्था को इस पर्यटन से खासा सहारा मिलता है.
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अमेरिकी प्रभाव से मुक्त
1999 में अमेरिका ने नहर का नियंत्रण पनामा को दे दिया. असल में 1903 में निर्माण से पहले ही अमेरिकी सेना ने इस इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया था. नहर को नियंत्रण में रख अमेरिका अपना सप्लाई रूट खुला रखना चाहता था.
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एक सदी का सफर
पनामा नहर से पहला जहाज 15 अगस्त 1914 को गुजरा. उसमें 200 मुसाफिर सवार थे. इस नहर को अमेरिकी सेना की इंजीनियर्स कॉर्प्स ने बनाया था. 1905 से 1914 तक चले निर्माण कार्य के दौरान 6,000 लोगों की जान गई.
उत्तर में निकारागुआ अब पनामा से भी चौड़ी नहर बना रहा है. प्रोजेक्ट को चीन फाइनेंस कर रहा है. निकारागुआ की नहर पनामा के नहर की अहमियत कम कर सकती है. कम से कम आमदनी में बंटवारे की आशंका तो है ही. प्रतिस्पर्धा कारोबार बढ़ाती है, लेकिन इस नहर से यह होगा या नहीं, समय बताएगा.