20 जून 1991 को जर्मनी की राजधानी फिर से बर्लिन ले जाने के बारे में संसद में मतदान हुआ था. इस प्रस्ताव के पक्ष में 338 और विरोध में 320 वोट पड़े.
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इसी के साथ तय हो गया कि एकीकृत जर्मनी की राजधानी बॉन की बजाए बर्लिन होगी. देश के दक्षिणी और पश्चिमी प्रांतों के सांसदों ने बॉन के पक्ष में जबकि उत्तरी और पूर्वी प्रांतों के सांसदों ने बर्लिन के पक्ष में मत दिया.
1990 में जर्मनी के एकीकरण के बाद से बर्लिन को फिर से राजधानी बनाने की बहस शुरू हो गई थी. इस फैसले के साथ ही सरकार और संसद बॉन से बर्लिन चली गई, लेकिन छह मंत्रालयों का मुख्यालय अभी भी बॉन में ही हैं, जिनमें रक्षा और कृषि मंत्रालय शामिल हैं. जो मंत्रालय बर्लिन चले गए हैं, उनकी एक शाखा बॉन में भी है. राजधानी बदलने का फैसला होने के बाद उसे लागू करने में आठ साल और लग गए. 1999 में राजधानी बर्लिन चली गई.
1949 में पश्चिमी जर्मनी की अंतरिम राजधानी बॉन बनाई गई. इस शहर को पश्चिम जर्मनी के पहले चांसलर कोनराड आडेनावर की सलाह पर चुना गया. आडेनावर कोलोन के मेयर थे और इसी इलाके के रहने वाले भी. उनका मानना था कि बॉन को अंतरिम राजधानी बनाने से एकीकरण के बाद उसे बर्लिन ले जाना आसान होगा.
ढह गई जुदा करने वाली दीवार
यह जर्मन इतिहास को बदलने वाली घड़ी थी. जीडीआर के नेता गुंटर शाबोव्स्की यात्रा संबंधी नए नियमों की घोषणा करने आए थे. लेकिन उनके मुंह से निकले संदेश ने इतिहास की सूरत बदल दी और ढह गई बर्लिन की दीवार.
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बॉर्डर खुलने के 48 घंटे के अंदर ही इस जगह को लेकर लोगों का खौफ खत्म हो चुका था. बर्लिन वाले इस दीवार के सामने और ऊपर चढ़ कर नाचे जिसने इतने सालों तक शहर को बांट कर रखा. पूर्व और पश्चिम जर्मनी एक हो चुके थे.
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2 मई 1989 को हंगरी के सैनिकों ने हंगरी और ऑस्ट्रिया को अलग करने वाली बाड़ के हिस्से हटाने शुरू किए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी और पश्चिमी यूरोप के बीच खड़ी हुई लोहे की दीवार में पहली बार छेद यहीं हुए थे.
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7 मई 1989 को पूर्व जर्मनी के लोगों ने संसदीय चुनाव में हिस्सा लिया. परिणाम क्या होंगे लोग जानते थे, क्योंकि एक बार फिर चुनावों में धांधली हुई. सत्ताधारियों का दावा था कि 98 फीसदी वोट उन्हें मिले. यहां से विरोध की शुरुआत हुई और अगले दिन लाइपत्सिष की सड़कों पर प्रदर्शनकारी उतर चुके थे.
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1989 की जुलाई में वारसा संधि वार्ता हुई. सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाएल गोर्बाचेव ने ब्रेजनेव की नीति खारिज कर दी. इससे सोवियत संघ के समाजवादी पड़ोसी के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के अधिकार खत्म हो गए. इसके बाद से उनके पड़ोसी देशों को अपनी राष्ट्रीय समस्याओं का हल खुद निकालना था.
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पश्चिम जर्मनी के दूतावास 1989 में छुट्टियां बिताने का अहम स्थान बन गए. इमारतें पूर्वी जर्मनी के लोगों से भरी हुई थीं. एक स्थिति तो ऐसी आ गई कि प्राग के पैलेस लोबकोवित्स में पांच हजार लोग ठहरे हुए थे.
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30 सितंबर 1989 को पश्चिम जर्मनी के विदेश मंत्री हंस डीटरिष गेंशर ने जीडीआर के हजारों नागरिकों से कहा कि वे बेझिझक पश्चिम जर्मनी जा सकते हैं. यह एक बेहद भावनात्मक पल था.
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नवंबर तक प्रदर्शन पूर्व जर्मनी की राजधानी तक पहुंच चुके थे. सैकड़ों हजार लोग अपनी ही सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों पर उतर आए थे. उनका स्लोगन था 'नो वॉयलेंस'. जीडीआर के 40 साल के इतिहास में यह सबसे बड़ा प्रदर्शन माना जाता है.
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पश्चिम बर्लिन के आलेक्जांडर प्लात्स पर जारी प्रदर्शन टीवी पर लाइव दिखाए जा रहे थे. विपक्ष ने अपनी मांगे रखीं. यात्रा करने की आजादी, प्रेस की स्वतंत्रता, और सदन की स्वतंत्रता अहम मांगें थीं. मांग यह भी की गई कि स्टाजियों के अपराधों को माफ न किया जाए.
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कुछ शब्दों ने इतिहास बदल कर रख दिया. कमजोर तैयारी के साथ आए जीडीआर अधिकारी गुंटर शाबोव्स्की संदेश देने में लड़खड़ा गए और पूर्व जर्मनी के नागरिकों के लिए सीमा पार जाने के नए अस्थायी नियमों की घोषणा कर दी. साफ कहने पर जब जोर दिया गया तो वे कह गए कि बॉर्डर अभी से खुल गई है.
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9 नवंबर 1989 की रात जो हुआ वह ऐतिहासिक थी. 48 घंटों के अंदर हजारों पूर्व जर्मनी वासी बर्लिन दीवार तक पहुंच गए. चेकप्वाइंट चार्ली जश्न का मंजर बन गया.
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बर्लिन की दीवार गिरने के चार दिन बाद पूर्व और पश्चिम जर्मनी के टीवी दर्शक देख रहे थे कि अब तक हावी शासक कैसे कठपुतली से लग रहे थे. स्टाजी प्रमुख एरिष मील्के पश्चिम जर्मनी की संसद में गिड़गिड़ा रहे थे.