मेरी नजरें भी ऐसे काफिरों की जान ओ ईमां हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं...
28 अगस्त 1896 को रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर में हुआ. वह भारत के एक जाने माने शायर, लेखक और आलोचक रहे हैं. महात्मा गांधी के साथ असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया. उर्दू में शायरी करने वाले फिराक गोरखपुरी ने इलाहबाद यूनिवर्सिटी में इंग्लिश लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया. 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी, 1968 में पद्म भूषण और 1969 में किताब गुल ए नगमा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया.
गोरखपुरी का जमाना वह था, वह उर्दू शायरी की दुनिया में मुहम्मद इकबाल और जोश मलीहाबादी जैसे शायरों का नाम चलता था. फिराक गोरखपुरी ने उर्दू में गजल, नज्म और रुबाइयां लिखी हैं, वहीं हिन्दी और इंग्लिश में भी उन्होंने लिखा है. साहित्य और संस्कृति से जुड़े विषयों पर उन्होंने इंग्लिश में चार किताबें लिखी हैं.
कभी पाबंदियों से छूट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही जिंदा नहीं होता
यकीं लाएं तो क्या लाएं, जो शक लाएं तो क्या लाएं
कि बातों से तेरी सच झूठ का इमकां नहीं होता....
विलियम शेक्सपीयर ऐसे लेखक हैं जो दुनिया भर में लोकप्रिय हैं. उनके नाटकों का हर देश में मंचन होता है और फिल्में भी बनाई जाती हैं. इस लोकप्रियता के पीछे उनका ब्रिटिश होना है या उनकी रचनाओं का वैश्विक विषय.
तस्वीर: Murali Krishnanशेक्सपीयर की रचनाओं का हर संस्कृति और हर भाषा में रूपांतर संभव है. इसकी वजह उसके विषयों का शाश्वत होना है, प्यार, ईर्ष्या और साजिश से लेकर बदला, हमला और हत्या तक.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesशेक्सपीयर अपने पात्रों के मानवीय पहलू को उभारते हैं जिसमें दर्शक या पाठक अपनी परछाईं देखता है, या उनसे परहेज करता है. मैकबेथ सत्ता की लालसा की कहानी है (यहां तेहरान में एक प्रदर्शन).
तस्वीर: Farsवही कथानक पर नतीजा एकदम अलग. अफ्रीकी मिथकों के लिए शेक्सपीयर जगह छोड़ते हैं. 2009 में ओकावांगो मैकबेथ बोत्स्वाना का पहला ऑपेरा था. अलेक्जेंडर मैककॉल ने उसे अपने देश की राजनीतिक हालात के अनुरूप ढाला.
तस्वीर: Getty Imagesअकीरा कुरोसोवा ने अपनी फिल्म कुमोनोसू जो में मैकबेथ को जापान के समुराई काल में भेज दिया. जापान के महान फिल्मकार की यह कालजयी फिल्म भय का अहसास कराती सुंदर तस्वीरों में त्रासदी दिखाती है.
तस्वीर: picture-allianceसमुराई से पॉप संस्कृति तक. 1996 में शेक्सपीयर की विख्यात रचना रोमियो और जूलियट को बैज लुरमन ने लियोनार्दो दे कैप्रियो और क्लेयर डेन्स के रूप में पर्दे पर पेश किया. उनका भी मकसद लोगों का मनोरंजन था.
तस्वीर: picture-alliance/picture-allianceरास्टा थोमस और ऐड्रिएन कांतेर्ना ने सोचा रोमानी प्रेम गाथा के चरित्र नाच क्यों नहीं सकते? और उन्होंने रोमियो और जूलियट को रॉक बैले के रूप में मंच पर उतार दिया. (यहां 2013 में हैम्बर्ग में प्रदर्शन).
तस्वीर: Manfred H. Vogelइराकी थियेटर कंपनी ने अपने प्रदर्शन रोमियो और जूलियट के लिए बगदाद में रोमियो को शिया और जूलियट को सुन्नी बना दिया. इस प्रस्तुति ने विवाद के आयाम को व्यक्तिगत दायरे से निकाल कर पूरे समाज में फैला दिया.
तस्वीर: Getty Imagesएशियाई थिएटर में भी शेक्सपीयर लोकप्रिय हैं. कोरियाई थिएटर कंपनी योहांग्जा ने 2010 में अपनी प्रस्तुति "गर्मी की रातों का सपना" से तहलका मचा दिया. संगीत और लय का पटाखा छोड़ती यह प्रस्तुति मिथक और अभिनय का मिश्रण है.
तस्वीर: Getty Imagesशेक्सपीयर के प्रभाव से जॉर्डन की मरुभूमि में जतारी शरणार्थी शिविर भी अछूता नहीं. 13 साल की उम्र में सीरिया के गृह युद्ध के कारण घर छोड़ने को मजबूर मजीद अमारी इस प्रस्तुति में किंग लीयर की भूमिका निभा रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images1960 के दशक को अफगान थियेटर का स्वर्ण काल कहा जाता है. लेकिन उसके बाद तालिबान ने सभी नाटक केंद्रों को बंद कर दिया. काबुल में 2012 में शेक्सपीयर के नाटक तूफान का प्रदर्शन एक तरह का संकेत भी था.
तस्वीर: Getty Imagesपंजाबी में लिखने वाले सुरजीत हंस पहले भारतीय लेखक हैं जिन्होंने किसी भारतीय भाषा में शेक्सपीयर के सभी 37 नाटकों का अनुवाद किया है.
तस्वीर: Murali Krishnan