एमएफ हुसैन के नाम से मशहूर हुए मकबूल फिदा हुसैन भारत के सबसे जानेमाने चित्रकारों में से एक थे. उनका जन्म 17 सितंबर 1915 को महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ. हुसैन जब डेढ़ साल के थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया. उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली और उनका परिवार इंदौर चला गया. हुसैन की स्कूली शिक्षा वहीं हुई. 1935 में हुसैन मुंबई चले गए और वहां जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स से अपने पेंटिंग के हुनर को निखारा. 1941 में उनकी शादी हुई. मुंबई में शुरू में आर्थिक तंगी के चलते उन्हें काफी बुरे दिन देखने पड़े. काफी समय तक उन्हें फिल्मों के पोस्टर पेंट करके गुजारा करना पड़ा.
कभी जूते न पहनने वाले हुसैन ने आखिरी वक्त तक खुद को सीखते रहने वाला कलाकार रहने दिया. कभी फिल्मों के पोस्टर बनाने वाले एमएफ हुसैन ने कब ब्रश थाम लिया, खुद उन्हें भी याद नहीं. जिस साल भारत आजाद हुआ, उस साल हुसैन के करियर को भी नई दिशा मिल गई जब वह मुंबई के प्रतिष्ठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल हो गए. तब 32 साल की उम्र में हुसैन भारत के सबसे बड़े चित्रकारों में गिने जाने लगे.
हैम्बर्ग के डाइष्टरहॉल की 25वीं जयंती पर प्रसिद्ध पेंटर पिकासो पर एक प्रदर्शनी लगी जिसका नाम है सामयिक कला में पिकासो. मजेदार बात यह है कि इसमें पिकासो की कोई पेंटिग नहीं है.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Sean Landers/Petzel, New Yorkहैम्बर्ग की प्रदर्शनी में दुनिया भर के 90 कलाकारों की रचनाएं प्रदर्शित हैं जिन्हें पिकासो ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है. अंत में सवाल यही रहता है कि ये नकल है या मूल रचना है. एस मिलर की इस तस्वीर में अभिनेता जॉन माल्कोविच पिकासो की भूमिका में हैं.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Sandro Miller courtesy Catherine Edelman Galleryइस साल हैम्बर्ग के डाइष्टरहॉल की ही जयंती नहीं है बल्कि जर्मनी में पिकासो की पेंटिंग गुरनिका के प्रस्तुतिकरण की 60वीं जयंती भी है. आधुनिक काल के शांति कार्यकर्ता पिकासो की यह कलाकृति उस समय म्यूनिख, कोलोन और हैम्बर्ग में दिखाई गई थी. उससे प्रभावित थॉमस जिप्प की यह तस्वीर.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Thomas Zippइस प्रदर्शनी में यह दिखाया जा रहा है कि पिकासो की कलाकृतियों ने दुनिया भर के सामयिक कलाकारों पर क्या और कितना असर डाला है. आकर्षण से लेकर दूरी के बनाने की कोशिश के बीच झूलते कलाकार. हर काल में पिकासो की कला का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी इनमें दिखता है.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Sean Landers/Petzel, New York20वीं सदी के शायद ही किसी और कलाकार को पिकासो जैसी लोकप्रियता हासिल है. विश्व भर में उनकी प्रदर्शनियों को देखने लाखों लोग आते हैं. कला पारखी डिर्क लुकोव कहते हैं कि पिकासो 20वीं सदी की आधुनिक कला के पर्याय बन गए हैं.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/VG Bild Kunst, Bonnप्रदर्शनी की बहुत सी रचनाएं दूसरे संग्रहालयों से उधार ली गई हैं. इस प्रदर्शनी के हॉल का आधुनिकीकरण भी कराया गया है. अब डाइषटरहॉल बड़े संग्रहालय की सभी शर्तें पूरी करता है. डिर्क लुकोव इस मौके को महत्वपूर्ण बताते हैं, "यह विश्व कला मंच पर हमारी दस्तक है."
तस्वीर: Courtesy Zentrum Paul Klee, Bernपहली बार चुनिंदा मिसालों के आधार पर जर्मनी की सामयिक कला पर पिकासो के असर को दिखाया गया है. एआर पेंक, गियॉर्ग बाजेलित्स और कार्ल ऑटो गोएत्स की तस्वीरें पूरब और पश्चिम जर्मनी में कलाकारों पर पिकासो के प्रभाव को दिखाती हैं.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/VG Bild-Kunst, Bonnहैम्बर्ग के डाइष्टरहॉल में दिखाई जा रही तस्वीरें अफ्रीका जैसे दुनिया के दूसरे इलाकों में पिकासो के प्रभाव को भी दिखाती हैं. झेंग फंझी, झांग होंगतू और झाऊ तीहाई की तस्वीरों के साथ चीन के तीन अहम कलाकारों की तस्वीरें भी प्रदर्शनी में शामिल हैं.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Tiehai Zhou/Frank Kleinbachप्रदर्शनी के केंद्र में पिछले 50 साल की रचनाएं हैं जिनमें पिकासो का असर दिखता है. लेकिन उनमें बहुत सी नई कलाकृतियां भी दिखाई जा रही हैं जिनमें कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें खास तौर पर इस प्रदर्शनी के लिए ही बनाया गया है. जैसे जॉन स्टेत्साकर की यह रचना.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/John Stezakerपिकासो ने खुद कला के बड़े नामों के साथ बहुत दिनों तक लुकाछिपी का खेल दिखाया. इसमें पिकासो के कला जीवन के सभी अहम काल शामिल हैं. मसलन नीले रंग का काल और उससे जुड़ी अकेलेपन की यादें लेकिन गुलाबी काल की खुशनुमा तस्वीरें भी.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburg/Rachel Harrison/John Berens Photographyप्रदर्शनी में शामिल कलाकारों में एक समानता है. पिकासो की कला के साथ अपनी रचनाओं को उनके बुद्धिमानी, क्रांतिकारिता और काव्यात्मकता में उतार सकने की इच्छा. इसी में दिखता है कि कलाजगत पर पिकासो का असर कितना स्थायी है.
तस्वीर: Deichtorhallen Hamburgडाइष्टरहॉल 1984 तक हैम्बर्ग का हाट हुआ करता था. उसके जीर्णोद्धार के बाद 1989 में उसका कलाकेंद्र के रूप में उद्घाटन हुआ. इस बीच डाइष्टरहॉल यूरोप के सबसे बड़े प्रदर्शनी हॉलों में शामिल है.
तस्वीर: Conny Hilker कैनवस ने हुसैन को नई पहचान भले ही दी हो लेकिन उनकी जिंदगी फिल्मों के साथ शुरू हुई थी. इसलिए उनके मन में फिल्मों को लेकर अलग जगह बनी रही और 1960 के दशक में वह फिल्मों की ओर बढ़े. 1967 में बनाई पहली फिल्म ‘थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर' को अंतरराष्ट्रीय पर्दे पर ख्याति मिली. इस फिल्म को बर्लिन फिल्म महोत्सव में गोल्डन बीयर पुरस्कार मिला. 1971 में पाब्लो पिकासो के साथ साओ पाओलो बीएनाले में हुसैन खास अतिथि बने.
इस नाम और लोकप्रियता से परे एमएफ हुसैन के चित्र विवादों में ही ज्यादा रहे. खासकर हिन्दू देवियों के चित्रों पर हिन्दू कट्टरपंथियों की कुपित नजर बनी रही. उन पर आठ आपराधिक शिकायतें दर्ज की गई लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया.
90 की उम्र में हुसैन के लिए यह इतना बड़ा सिरदर्द हो गया कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा. भारतीय अदालतों में चलते मुकदमे और कुछ लोगों का विरोध हुसैन को तोड़ गया. उनकी कला भी प्रभावित हो गई और उन्हें कतर में शरण लेनी पड़ी. बाद में कतर ने उन्हें नागरिकता भी दे दी. हालांकि आखिर के कुछ साल हुसैन ज्यादातर ब्रिटेन में ही रहे. उन्होंने पूरी जिंदगी 60,000 से ज्यादा पेंटिंग्स बनाईं.
हुसैन को 1955 में पद्मश्री, 1973 में पद्मभूषण और 1991 में पद्मविभूषण सम्मान से नवाजा गया. 9 जून 2011 को लंबी बीमारी के बाद हुसैन का लंदन में 95 साल की उम्र में निधन हो गया.