51 फीट लंबाई, 8 फीट ऊंचाई और पांच टन का वजन, यह किसी गाड़ी के बारे में नहीं बल्कि पहले स्वचालित इलेक्ट्रॉनिक कैलकुलेटर हार्वर्ड मार्क वन की बात हो रही है. आज ही के दिन इस कैलकुलेटर को पहली बार पेश किया गया था.
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इसका श्रेय अमेरिकी कंपनी आइबीएम को जाता है. ऑटोमैटिक सीक्वेंस कंट्रोल्ड कैलकुलैटर (एएससीसी) का आयडिया हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ग्रैजुएशन की पढ़ाई कर रहे होवर्ड एच आइकन ने 1930 में पेश किया. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आइबीएम ने इस आयडिया पर काम करना शुरू किया.
आइकन ने पहले इस कैलकुलेटर का प्रस्ताव हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के फिजिक्स विभाग, फिर एक दूसरी मशीन कंपनी मोनरो और वहां भी नाकाम होने के बाद आइबीएम के सामने रखा. प्रस्ताव आइबीएम को पसंद आया और आइबीएम इंवेंटर्स एंड साइंटिस्ट्स के डीन जेम्स ब्राइस ने कंपनी के मुख्य इंजीनियर क्लेयर डे लेक को 1939 में इस पर काम करने को कहा. आइकन भी इस प्रोजेक्ट पर उनके साथ काम कर रहे थे. फरवरी 1944 में कैलकुलेटर के मशीनी हिस्सों को अलग अलग शिप पर सवार कर हार्वर्ड भेजा गया और कंपनी ने 7 अगस्त 1944 को यूनिवर्सिटी को यह कैलकुलेटर भेंट किया. इसकी लागत दो लाख डॉलर आई थी. उसके ऊपर से एक लाख डॉलर कंपनी ने यूनिवर्सिटी को कैलकुलेटर पर काम करने के लिए दिया.
युद्ध और बच्चों की किताबें
1914 में शुरू हुए पहले विश्व युद्ध के प्रति बच्चों की भी दिलचस्पी बढ़ाने की कोशिश हो रही थी. इश्तिहारों में लड़ाई और नेताओं की कहानियां बताई जाती थीं.
तस्वीर: DW/S. Hofmann
लड़ने गए हैं पापा
अगस्त 1914 में यूरोप और फिर पूरी दुनिया युद्ध में शामिल हो गई. बच्चे भी इससे दूर नहीं थे. उनके भाई और पिता भी इस युद्ध में लड़ने गए थे और वह परिवार के साथ अकेले थे. उस वक्त बच्चों की किताबों में ज्यादातर लड़ाई की बात होती.
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युद्ध के वीर
जर्मन हर ट्रोसडॉर्फ में चल रही प्रदर्शनी में ऐसी किताबें दिखती हैं. कुछ किताबों में देशभक्ति और लड़ाई के लिए उकसाने वाली बाते हैं. कुछ याद दिलाते हैं कि युद्ध में दुश्मन भी इंसान ही होता है.
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हंसी मजाक में
इस किताब में मजेदार तस्वीरों के साथ बताया जा रहा है कि सैनिकों ने किस बहादुरी से दुश्मनों को अपने बगीचे से भगाया. लेकिन कुछ लेखकों ने मजाक की सारी हदें पार कर दीं.
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लड़ाई है, मजाक नहीं
ब्रिटिश साहित्य व्यंग्य करने में माहिर है, बच्चों की किताबों में भी. लेकिन इस किताब ने सारी सीमाएं लांघ दी हैं. एक बच्ची को बमों के साथ लुका छिपी खेलते दिखाया जा रहा है.
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आओ बच्चो, खेलें खेल
बच्चों की इस तस्वीर में दिखाया जा रहा है कि कैसे फ्रांस के बच्चे ब्रिटेन और बेल्जियम के साथ मिल कर जर्मन जहाजों को खत्म कर रहे हैं. जर्मन किताबों में भी बच्चे युद्ध का खेल खेलते दिखते हैं.
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ताश में भी लड़ाई
किताबें ही नहीं बल्कि बोर्ड गेम्स और ताश में भी लड़ाई को लाया जाता रहा. इस खेल में सर्बिया के राजा को जोकर बनाया गया है. लड़ाई के लिए प्रचार ही नहीं बल्कि प्रकाशनों ने युद्ध से खूब पैसे कमाए.
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युद्ध की क्लास
घर पर ही नहीं, स्कूल में भी शिक्षक बच्चों को लड़ाई के बारे में बताते. लेकिन अकसर स्कूल की छुट्टी कर दी जाती क्योंकि स्कूल को अस्पताल में बदल दिया जाता या चूल्हे के लिए कोयला या लकड़ी की कमी होती. बच्चों को फिर खेत में मदद करनी पड़ती थी.
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लड़कियों की किताबें
लड़के ही नहीं बल्कि प्रकाशनों ने लड़कियों के लिए भी किताबें निकालीं. इनमें उन लड़कियों की कहानियां होतीं जिनके परिवार वाले युद्ध में लड़ने गए होते और जिन्होंने बर्लिन में युद्ध का अनुभव किया.
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मिनटों में कला
बच्चों की किताबों पर शोध कर रहे फ्रीडरिष सी हेलर कहते हैं कि उस वक्त कलाकार लड़ाई की हर घटना को तस्वीरों में उतारते थे. फ्रांस की किताबों की क्वालिटी ज्यादा अच्छी थी. इस तस्वीर में दिखाया गया है कि जर्मनी का काला बूट किस तरह लियेज शहर को कुचल देता है.
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भूखे नहीं रहेंगे
इस तरह के विज्ञापनों में खाते पीते बच्चे दिखाए गए हैं. इस तस्वीर के नीचे लिखा है, "भूखे नहीं रहने देंगे." इससे सामाजिक संगठन बच्चों के लिए खाना जमा करने की तैयारी कर रहे थे और बता रहे थे कि कमी के बावजूद बच्चों को पूरा खाना मिलना चाहिए.
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खुशी की खबर नहीं
युद्ध के बढ़ने के साथ साथ बच्चों की किताबों में तस्वीरें भी गंभीर होती गईं. मजेदार कहानियों की जगह लड़ाई में जहरीली गैस और टैंकों के बारे में बताया गया.
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रांस का चर्च
इस तस्वीर में दिखाया गया है कि रांस चर्च, जो युद्ध में बर्बाद हो गया है, किस तरह उठ खड़ा होता है और लोगों को एक करता है.
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शांति के कुछ साल
11 नवंबर 1918 को जर्मनी फ्रांस और इंग्लैंड के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करता है. लेकिन शांति कुछ 20 साल बाद 1939 में खत्म हो जाती है.