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इतिहास से सीख लेकर बना जर्मन संविधान

२२ मई २०१९

जर्मनी का नाम लेते ही लोगों के जेहन में नाजी काल और हिटलर की दी यातनाएं दौड़ जाती हैं. इस त्रासदी से सीख लेते हुए जर्मनी ने 70 साल पहले जब संविधान लिखा, तो मानव गरिमा को सबसे ज्यादा अहमियत दी.

Deutschland Parlamentarische Rat im Museum König in Bonn
तस्वीर: picture-alliance/dpa

"मानव गरिमा अलंघनीय है." राष्ट्र निर्माण के बारे में पेचीदा पंक्तियों की जगह जर्मनी के संविधान की शुरुआत इन शब्दों से होती है. ये शब्द ना केवल साफ हैं, बल्कि किसी विवेचना से परे हैं. नाजी काल में मानव गरिमा की कोई अहमियत नहीं थी. लाखों लोगों को अपमानित किया गया, प्रताड़ित किया गया और उनकी हत्या की गई. हिटलर का दौर खत्म होने के बाद मानव गरिमा को एक बार फिर केंद्र में लाना जरूरी था.

"बेसिक लॉ" से पहले जर्मनी में वाइमार संविधान हुआ करता था. अपने समय के हिसाब से वह बेहद प्रगतिशील भी था. उसमें भी लोगों के मौलिक अधिकारों का वर्णन था. यहां तक कि उसने जर्मनी में महिलाओं को मताधिकार तक दिलाया. लेकिन वह तानाशाही को नहीं रोक पाया. कानूनी मामलों के जानकार प्रोफेसर उलरिष बाटिस का कहना है, "वाइमार अपने संविधान की वजह से विफल नहीं हुआ, बल्कि इसलिए कि वहां लोकतांत्रिक सोच वाले बहुत कम लोग थे." लेकिन वाइमार के संविधान में कई कमजोरियां थीं और नया संविधान "बेसिक लॉ" बनाते समय उन गलतियों से बचने की कोशिश की गई.

कमजोर राष्ट्रपति

वाइमार संविधान की एक बहुत बड़ी समस्या यह थी कि उसमें राष्ट्रपति बेहद महत्वपूर्ण था. इतना कि वह चाहे तो संसद को भंग कर दे और आपातकाल लगा कर संसद को खुद ही चलाने लगे. इसी ने आडोल्फ हिटलर को सत्ता में आने में मदद की. यही वजह है कि आज जर्मनी के राष्ट्रपति की भूमिका मुख्य रूप से सिर्फ एक प्रतिनिधि की है. "बेसिक लॉ" ने संसद और संसद द्वारा चुने जाने वाले चांसलर को ज्यादा शक्तियां दी हैं.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Kalaene

संविधान निर्माताओं को लोकतंत्र पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं था और इसकी वजह भी देश के इतिहास में ही छिपी थी. नाजी काल में जनता सीधे राष्ट्रपति को चुनती थी. राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता के माहौल में यह बेहद खतरनाक साबित हो सकता था. "बेसिक लॉ" ने यह बदलाव किया कि देश का राष्ट्रपति नेताओं द्वारा चुना जाने लगा. आज शायद लोकतंत्र में वह अविश्वास एक अतिश्योक्ति लगे लेकिन उलरिष बाटिस आज भी जनता द्वारा राष्ट्रपति को सीधे चुने जाने को गलत मानते हैं क्योंकि ऐसे में राष्ट्रपति अपने चुनाव का इस्तेमाल संसद के खिलाफ कर सकता है

अस्थायी संविधान

"बेसिक लॉ" को सिर्फ वाइमार रिपब्लिक की विफलता और नाजी काल के बुरे तजुर्बों ने ही नहीं खड़ा किया है, बल्कि जिस वक्त इसे लिखा गया, उस वक्त के हालात का भी इसमें बड़ा योगदान है. 1949 में जर्मनी का विभाजन इसकी नींव बना. "बेसिक लॉ" केवल पश्चिमी जर्मनी के लिए लिखा गया था लेकिन वह एकजुटता के लक्ष्य पर टिका रहा. और इसे अस्थायी रूप से बनाया गया था. "बेसिक लॉ" को इस रूप में तब तक रहना था जब तक सभी जर्मन लोग इस संविधान से जुड़ नहीं जाते. इसीलिए इसे "बेसिक लॉ" कहा गया, संविधान नहीं.

1990 में जर्मनी के एकीकरण के साथ इसने अपना लक्ष्य पूरा किया. लेकिन पूरी तरह से एक नया संविधान लिखने की जगह तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने फैसला किया कि पूर्वी जर्मनी जीडीआर भी इसके साथ ही जुड़ जाएगा. इसलिए इसे बदला नहीं गया लेकिन इसमें से "अस्थायी" शब्द हटा दिया गया. 1992 से अनुच्छेद 23 की जगह एक यूरोपीय अनुच्छेद ने ले ली जो एक "एकजुट यूरोप" की पैरवी करता है.

महिलाओं की भूमिका

आज जब जर्मनी के संविधान की बात होती है तो उसे लिखने वाले अनेकों  माताओं और पिताओं की भी चर्चा होती है. लेकिन जब इसे लिखा जा रहा था तब संसदीय परिषद के 61 पुरुषों का ही नाम लिया जाता था, परिषद में मौजूद चार महिलाओं का नहीं. लेकिन इन्हीं महिलाओं की बदौलत आज "बेसिक लॉ" कहता है कि सभी "पुरुष और महिला एक समान हैं." इसमें खास कर एलिजाबेथ जेलबर्ट की अहम भूमिका रही. उलरिष बाटिस कहते हैं, "यह दिखाता है कि दृढ़निश्चयी महिलाएं क्या कर सकती हैं. पुरुषों ने भी इस पर कोई आपत्ति नहीं की."

उस समय हालांकि दावों और हकीकत में बहुत फर्क था. 1977 तक महिलाएं अपने पतियों की अनुमति के बिना नौकरी नहीं कर सकती थीं और 1997 के बाद जा कर वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया. 1994 से "बेसिक लॉ" यह भी कहता है कि "सरकार महिलाओं और पुरुषों के लिए समान अधिकारों को प्रभावी रूप से अमल में लाने को बढ़ावा देती है और मौजूदा कमियों को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है."

तस्वीर: picture-alliance/Joker/A. Stein

कुछ चीजें शाश्वत

यह मिसाल दिखाती है कि किस तरह "बेसिक लॉ" वक्त के साथ बदलता रहा है. पिछले 70 सालों में इसमें 60 बार बदलाव किए जा चुके हैं. एक अन्य उदाहरण है जर्मनी में शरण लेने के अधिकार संबंधी अनुच्छेद. शुरुआत में साफ साफ लिखा गया था, "राजनीतिक रूप से सताए जा रहे लोगों को शरण का अधिकार है." लेकिन 1990 के दशक में जब शरणार्थियों के आवेदनों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई, तब संसद में जरूरी दो तिहाई के बहुमत से इस अनुच्छेद को बदल दिया गया. तब से वे लोग जर्मनी में शरण का आवेदन नहीं दे सकते हैं, जो यूरोपीय संघ के किसी देश से होते हुए जर्मनी आए हैं.

"बेसिक लॉ" में कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिन्हें ना ही कभी बदला जा सकता है और ना ही हटाया जा सकता है. इन्हें एक "शाश्वतता अनुच्छेद" के जरिए सुरक्षित किया गया है. जैसे कि लोकतंत्र ("सरकार को सारी ताकत जनता से मिलती है") और कानून व्यवस्था ("कार्यकारी शक्तियां और अधिकार क्षेत्र कानून और नियमों से बंधे हैं"). साथ ही अनुच्छेद 1 भी जो मानव गरिमा की बात करता है. इसके अलावा संवैधानिक संरचना को कतई बदला नहीं जा सकता.

सबसे लंबा संविधान

बेसिक लॉ को 1949 में एक अस्थायी समाधान के रूप में पारित किया गया था. लेकिन यह जर्मनी का सबसे लंबा चलने वाला संविधान बन चुका है. वक्त के साथ साथ कई अनुच्छेद विस्तृत होते चले गए. उनमें और शब्द जुड़ते गए. लेकिन आज भी लोगों को सबसे ज्यादा आकर्षित करते हैं वे सरल शब्द जो मानव गरिमा की बात करते हैं.

उलरिष बाटिस का कहना है कि जर्मन लोगों को अपने संविधान और संघीय संवैधानिक न्यायालय पर सबसे ज्यादा भरोसा है. यह जर्मनी की सर्वोच्च अदालत है और इसने कई बार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए सरकार के खिलाफ फैसले सुनाए हैं. इस अदालत का काम संविधान की रक्षा करना है. वही संविधान जो जर्मनी के इतिहास से सबसे जरूरी सीख लेकर बना है: नागरिकों को सरकार के आगे झुकना नहीं चाहिए, बल्कि सरकार नागरिकों के लिए ही बनी है.

रिपोर्ट: क्रिस्टोफ हासेलबाख/आईबी

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