कर्नाटक में भी दो ऐसे बुजुर्ग मतदाता हैं, जिन्होंने आजादी के बाद से लेकर अब तक हर चुनाव में वोट डाला है. दोनों बीते बदलती चुनावी राजनीति के गवाह भी हैं.
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106 वर्षीय वेंकटसुब्बाया और 107 वर्षीया थिमक्का एक बार फिर वोट देने जा रहे हैं. पद्मश्री से सम्मानित दोनों बुर्जुग कर्नाटक के उन 5,500 मतदाताओं में से है जिनकी उम्र 100 साल या उससे अधिक है.
वेंकटसुब्बाया लगभग 50 वर्षो की मेहनत के बाद 1,000 पन्नों वाले कन्नड़-अंग्रेजी शब्दकोष के निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं. वह 1951-52 और 2014 के बीच हुए सभी चुनावों में मतदान करने के बाद भी, इस वर्ष 18 अप्रैल को 17वीं लोकसभा के चुनाव में वोट डाल एक अलग इतिहास रचने की तैयारी में हैं.
उनके मुताबिक हर लोकसभा, विधान सभा और नगर निगम के चुनाव में अपने क्षेत्र से वोट डालने वाले वह पहले मतदाता होते हैं. यही रिकॉर्ड इस बार भी कायम रखने की चाहत है. और तो और मत डालने के बाद उनका एक ही प्रयास रहता है, अधिक से अधिक दोस्तों और नौजवानों को वोट डालने के लिए प्रोत्साहित करना.
इतने वर्ष मतदान करने के बाद भी वह अपना पहला 1951-52 में दिया गया वोट नहीं भूलते. उस समय उनकी उम्र 38 वर्ष की थी. वह स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव था. जैसा कि वह कहते हैं, आज 18 साल के लड़के लड़कियां अपना वोट आराम से डाल सकते हैं. यह भारतीय लोकतंत्र की सबसे भारी जीत है. उनके मुताबिक यह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत है.
पिछले तीन दशकों में ऐसी रही भारत की लोकसभा
भारत में 2019 के आम चुनावों में 17वीं लोकसभा चुनी जा रही है. 1990 के बाद हुए चुनावों में संसद में क्षेत्रीय पार्टियों का में दखल बढ़ा है. एक नजर लोकसभा में पार्टियों के प्रतिनिधित्व पर.
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1991, 27 पार्टियां
साल 1991 के लोकसभा चुनावों के बाद तकरीबन 27 पार्टियां सदन में पहुंची. उन चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. नतीजतन कांग्रेस ने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिल कर पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में एक अल्पमत सरकार बनाई.
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1996, 30 पार्टियां
11वीं लोकसभा में 30 पार्टियों को जगह मिली. उस वक्त बीजेपी 161 के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बीजेपी ने पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई जो महज 13 दिन चली. सरकार गिरी और कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे की सरकार बनी.
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1998, 40 पार्टियां
12वीं लोकसभा में करीब 40 राजनीतिक दलों को सदन मे जगह मिली. इस साल बीजेपी ने 182 सीटों पर जीत दर्ज की और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार बनी. लेकिन यह सरकार भी महज 13 महीने में गिर गई.
तस्वीर: UNI
1999, 41 पार्टियां
13वीं लोकसभा के चुनावों में बीजेपी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उस लोकसभा में अब तक सबसे अधिक 41 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. बीजेपी ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 17 दलों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई.
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2004, 36 पार्टियां
14वीं लोकसभा के चुनावों में बीजेपी के इंडिया शाइनिंग नारे के बीच कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 14वीं लोकसभा में करीब 36 राजनीतिक दलों को जगह मिली. कांग्रेस ने 30 पार्टियों के साथ मिल कर डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई.
तस्वीर: Reuters/B. Mathur
2009, 38 पार्टियां
15वीं लोकसभा में एक बार फिर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उस लोकसभा में 38 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. 2009 के चुनावों में बीजेपी का वोट पर्सेंट गिरा वहीं एक बार केंद्र में डॉं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी.
तस्वीर: Reuters
2014, 36 पार्टियां
16वीं लोकसभा में बीजेपी को पहली बार 283 सीटें मिली. उस लोकसभा में देश की 36 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी और इसके सहयोगी दलों की सरकार बनी.
तस्वीर: Reuters/K. Hong-Ji
2019, 33 पार्टियां
17वीं लोकसभा में भाजपा 303 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है. 1984 के चुनाव के बाद पहली बार किसी दल ने अकेले 300 का आंकड़ा पार किया है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में दूसरी बार भाजपा की सरकार केंद्र में बनी है.
तस्वीर: Reuters/A. Abidi
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उन दिनों के प्रचार की बात करते हुए प्रो. वेंकटसुब्बाया का चेहरा खिल उठता है. वह आज कल के चुनाव प्रचार और शोर शराबे से अधिक प्रसन्न नहीं हैं. बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि उस जमाने में लोग घोड़ा गाड़ी या साइकिलों में घर घर जा कर चुनाव प्रचार करते थे और इतना ज्यादा शोर अथवा नाटक नहीं होता था.
आज कल तो लोग व्हाट्सऐप, मोबाइल और इंटरनेट पर भी प्रचार करते हैं और कई बार सच और झूठ का पता भी नहीं चलता. इसके अलावा आज जगह जगह रास्ते रोक कर सार्वजनिक रैलियां कर जनता को परेशान करने की परंपरा ने जोर पकड़ लिया है.
इन सबसे परे पुराने दिनों में प्रतियोगी कई बार एक ही मंच का इस्तेमाल करते थे. जहां एक उम्मीदवार का समय समाप्त होता वहीं दूसरी पार्टी का प्रत्याशी जल्दी से मंच पर चढ़ अपना भाषण शुरू कर देता था.
इसी विषय पर बोलते हुए थिमक्का, जो अपने जीवनकाल में 8,000 से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं, कहती हैं कि 1970 के चुनावों तक, प्रत्याशी अधिकतर एक दूसरे को अपने तर्क से मात देने की कोशिश करते थे, न कि इल्जाम लगा कर. आज कल तो उम्मीदवार बिना डरे या अपमानित हुए एक दूसरे पर लांछन लगाने से नहीं कतराते.
उन दिनों अलग अलग पार्टियों के उम्मीदवार मान मर्यादा की सीमा का उलंघन कभी भी नहीं करते थे. कुछ प्रत्याशी तो विपक्ष के साथी पर व्यंग्यात्मक प्रहार कर के जीतने में माहिर थे. थिमक्का के अनुसार आज नेता, तर्क से नहीं बल्कि एक दूसरे पर सिर्फ कीचड़ उछाल कर जीतना चाहते हैं.
वेंकटसुब्बाया की ही तरह, थिमक्का भी अब तक के हुए हर चुनाव में मतदान कर चुकी हैं. पिछले वर्ष हुए विधान सभा चुनाव में तो वह मतदाता केंद्र से लगभग 200 किलोमीटर दूर थीं. यह सफर उनकी उम्र को देखते हुए काफी लंबा था, लेकिन उनकी जिद के आगे किसी की नहीं चली. जब तक उन्होंने अपना वोट नहीं डाला, तब तक उन्होंने किसी को भी चैन से नहीं बैठने दिया.
वोटरों को पैसों या उपहारों से लुभाने के विषय पर दोनों बुजुर्ग एक ही राय रखते हैं. उनके अनुसार इस कुप्रथा का आरम्भ कुछ चुनाव पहले ही हुआ, क्योंकि 1970 तक हुए चुनावों में काफी हद तक ऐसा कभी सुनने में नहीं आया था. वेंकटसुब्बाया स्वयं मानते हैं कि इसका एक मुख्य कारण पार्टियों की भरमार है और साथ साथ निर्दलीय उम्मीदवार भी काफी तादाद में देखे जा सकते हैं.
थिमक्का कहती हैं 1950 और 1960 के बीच जितने भी चुनाव हुए थे, उनमें पार्टियों की संख्या गिनी चुनी होती थी और निर्दलीय तो बहुत कम या न के बराबर होते थे.
इन सब के बीच दोनों निर्वाचन आयोग से अत्यंत प्रसन्न है, खास कर जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का सवाल आता है. एक तरफ वेंकटसुब्बाया इसे वोटरों के लिए एक अत्यंत आवश्यकीय सहूलियत मानते हैं वहीं थिमक्का ईवीएम को वरदान से कम नहीं समझतीं.
वोट देने से पहले जान लें कैसे काम करती है ईवीएम
चुनावों के दौरान अकसर ईवीएम के खराब होने या फिर हैक किए जाने जैसी खबरें भी शुरू हो जाती हैं. ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन होती क्या है और कैसे काम करती है, जानिए यहां.
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पहली बार इस्तेमाल
1982 में केरल विधानसभा के उपचुनावों में पहली बार 50 मतदान केंद्रों में ईवीएम का इस्तेमाल किया गया. यह एक टेस्ट फेज था. फिर 1998 में 16 विधानसभा क्षेत्रों में ईवीएम लगाई गईं. इनमें से पांच मध्य प्रदेश में, पांच राजस्थान में और छह दिल्ली में थीं. ये मशीनें 1989 से 1990 के बीच बनाई गई थीं. साल 2000 के बाद से तीन लोकसभा चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल हो चुका है.
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इंटरनेट से लेना देना नहीं
भारत में इस्तेमाल होने वाली वोटिंग मशीनें वाईफाई या किसी भी तरह के नेटवर्क से जुड़ी नहीं होती हैं और ना ही एक मशीन दूसरी से कनेक्टेड होती है. चुनाव आयोग के अनुसार इस वजह से इन पर हैकिंग का खतरा नहीं रहता है. हर मशीन अपने आप में एकल डिवाइस है. एक मशीन के खराब होने का पूरी चुनावी प्रक्रिया पर कोई असर नहीं होता.
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माइक्रो चिप का कमाल
वोटिंग का सारा डाटा एक माइक्रो चिप में सुरक्षित होता है. इस चिप के साथ ना तो कोई छेड़छाड़ की जा सकती है और ना ही रीराइट किया जा सकता है. यही ईवीएम को फूल प्रूफ भी बनाता है. लेकिन बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनावों में धांधली के आरोप लगते रहे हैं. हालांकि इन्हें सिद्ध नहीं किया जा सका है.
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कैसे काम करती है?
जिस किसी ने ईवीएम इस्तेमाल किया है या फिर उसकी तस्वीर देखी है, वह समझ सकता है कि हर पार्टी के निशान के सामने एक बटन होता है. एक व्यक्ति एक ही बार बटन दबा सकता है. इसके बाद मशीन लॉक हो जाती है. बार बार बटन दबाने से वोटिंग दोबारा नहीं होती है.
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मशीन के दो हिस्से
हर मशीन में एक बैलेटिंग यूनिट होती है और एक कंट्रोल यूनिट. बैलेटिंग यूनिट के जरिए मतदाता अपना वोट देता है और कंट्रोल यूनिट के जरिए पोलिंग अधिकारी मशीन को लॉक करता है. मतदान पूरा होने के बाद जो लॉक का बटन दबाया जाता है, उसके बाद मशीन कोई डाटा नहीं स्वीकारती.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Rahi
कुल कितने वोट?
एक ईवीएम में अधिकतम 3,840 वोट जमा किए जा सकते हैं. मतदान केंद्रों की योजना इस तरह से बनाई जाती है कि एक केंद्र में 1400 से ज्यादा मतदाताओं को आने की जरूरत ना पड़े. इस तरह से लोगों को घंटों लंबी लाइनों में नहीं लगना पड़ता है. और इसका मतलब यह भी है कि हर मशीन बूथ की क्षमता से दोगुना से भी ज्यादा लोगों के वोट जमा कर सकती है.
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कितनी लंबी सूची?
एक मशीन में 16 उम्मीदवार दर्ज किए जा सकते हैं. लेकिन अगर उम्मीदवारों की सूची इससे लंबी हो तो एक और मशीन को साथ में जोड़ा जा सकता है. इसी तरह अगर 32 में भी सूची पूरी ना हो रही हो तो एक तीसरी और चौथी मशीन को भी कनेक्ट किया जा सकता है. लेकिन ईवीएम की सीमा 64 है यानी पांचवीं मशीन को नहीं जोड़ा जा सकता. वैसे, अब तक इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी है.
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क्या वोट हो जाते हैं ट्रांसफर?
वोटिंग मशीन हो या फिर बैलेट पेपर, पार्टी के निशान किस क्रम में लगाए जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि नामांकन कब दाखिल किया गया था और कब उसकी जांच पूरी हुई. इस प्रक्रिया को पहले से निर्धारित नहीं किया जा सकता. इसलिए पहले से किसी के लिए भी पार्टी के क्रम को जानना और मशीन को उस हिसाब से सेट करना संभव नहीं होता.
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कहां कौन सी मशीन?
कौन सी मशीनें किस मतदान केंद्र में पहुंचेंगी इसकी जानकारी भी गुप्त रखी जाती है. मशीनें दो चरणों में चुनी जाती हैं और वो भी बेतरतीब ढंग से ताकि योजनाबद्ध उन्हें किसी एक केंद्र में ना भेजा जा सके. पहला चरण कंप्यूटर के हाथ में होता है और दूसरा पोलिंग अधिकारी के हाथ में.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/V. Bhatnagar
कैसे चुनते हैं मशीन को?
हर मशीन का एक क्रमांक होता है. इनके आधार पर एक सूची बनाई जाती है. फिर पहले चरण में कंप्यूटर इस सूची में से अनियमित रूप से कुछ मशीनों को चुनता है. इसे फर्स्ट लेवेल रैंडमाइजेशन कहा जाता है. दूसरे चरण में अधिकारी अपने पोलिंग बूथ के लिए कुछ मशीनों को साथ ले कर जाता है. ये सेकंड लेवेल रैंडमाइजेशन कहलाता है.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/V. Bhatnagar
वीवीपैट क्या होता है?
2010 में चुनाव आयोग ने वीवीपैट यानी वोटर वेरिफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल की शुरुआत की. इसके तहत वोट डालने के बाद हर मतदाता को उम्मीदवार के नाम और चुनाव चिह्न वाली एक पर्ची मिलती है ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि वोट सही डला है. वीवीपैट का इस्तेमाल पहली बार 2013 में नागालैंड के उपचुनाव में हुआ. जून 2014 में चुनाव आयोग ने इसे 2019 लोकसभा चुनावों में हर पोलिंग बूथ पर लागू करने का आदेश दिया.
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कितने देश करते हैं इस्तेमाल?
दुनिया भर के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हो चुका है. लेकिन भारत के अलावा केवल ब्राजील, भूटान और वेनेजुएला ही देश भर में इनका इस्तेमाल कर रहे हैं. जर्मनी, नीदरलैंड्स और पराग्वे में इनका इस्तेमाल शुरू किया गया और फिर रोक लगा दी गई. जर्मनी और नीदरलैंड्स के अलावा इंग्लैंड और फ्रांस में भी ईवीएम का इस्तेमाल नहीं होता है. हालांकि वहां इस पर रोक नहीं लगाई गई है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
ईवीएम से दूरी
2009 में जर्मनी की एक अदालत ने कहा कि कंप्यूटर आधारित इस सिस्टम को समझने के लिए प्रोग्रामिंग की जानकारी होना जरूरी है, जो आम नागरिकों के पास नहीं हो सकती, इसलिए मतदान का यह तरीका पारदर्शी नहीं है. अमेरिका में फैक्स या ईमेल के जरिए ई-वोटिंग की जा सकती है लेकिन मशीनों का इस्तेमाल वहां भी नहीं होता.
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/D. Chakraborty
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यही कारण है की ईवीएम का विषय आते ही वह अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर बैलेट पेपरों पर बात करने से नहीं कतराते. दोनों मानते है की समय के अनुसार ईवीएम और बैलेट पेपर का अपना स्थान रहा है.
निर्वाचन आयोग द्वारा जारी डाटा के मुताबिक कर्नाटक के 5.11 करोड़ मतदाताओं में से 1.90 लाख की उम्र 90 और 100 वर्ष से ऊपर है और इनमें प्रोफेसर वेंकटसुब्बाया और थिमक्का का नाम सब से ऊपर आता है.
यही नहीं, कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में अकेले उत्तर बेंगलुरू में राज्य के सर्वाधिक मतदाता हैं जिनकी संख्या 28.48 लाख है इसके विपरीत चिकमगलूर चुनावी क्षेत्र में वोटरों की संख्या राज्य में सबसे कम, 15 लाख बताई जा रही है. निर्वाचन आयोग की मानें तो आम तौर पर देश की हर लोकसभा सीट पर मतदाताओं की औसत संख्या करीब 16 लाख है.
गौर करने योग्य है कि सूचना तकनीक की राजधानी अकेले बेंगलुरू के चार चुनाव क्षेत्र दक्षिण बेंगलुरू, उत्तर बेंगलुरू, बेंगलुरू ग्रामीण और बेंगलुरू मध्य में 95 लाख मतदाता हैं, यानी कर्नाटक के लगभग 19 फीसदी मतदाता राजधानी में ही बसते हैं.