बरसों की ट्रेनिंग और दशकों की प्रैक्टिस, तब जाकर कोई जापानी लड़की एक गाइशा कलाकार बनती है. लेकिन विदेशी लोगों में यह गतलफहमी आम है कि गाइशा परफॉर्मर सेक्स वर्कर हैं. ऐसा क्यों है?
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नोरी ने अभी सुबह की डांस प्रैक्टिस पूरी की है और उसे झटपट दूसरी क्लास के लिए तैयार होना है. राजधानी टोक्यो के असाकुसा गाइशा डिस्ट्रिक्ट में हर कोई इसी तरह की आपाधापी में है. दरअसल यहां सात साल में एक बार होने वाले असाकुसा ओदोरी डांस फेस्टिवल की तैयारियां चल रही हैं जो इस साल अक्टूबर में होगा.
इसमें पांरपरिक गाइशा डांस, म्यूजिक और पार्टियां होती हैं जहां नोरी और उसकी दूसरी साथी अपने कद्रदानों के जाम भरती हैं, उनसे हंसी मजाक करती हैं, जोक मारती हैं और फ्लर्ट भी करती हैं. लेकिन इस सबसे पहले सख्त ट्रेनिंग होती है. नोरी कहती हैं, "अभी हम बहुत ही व्यस्त हैं क्योंकि यह बहुत बड़ा फेस्टिवल होता है और हमें इसके लिए परफेक्ट होना है. हालांकि मैंने अपना गाइशा घराना 20 साल पहले जॉइन किया था, लेकिन गाइशा में सीखने का सिलसिला कभी नहीं थमता."
'गाइशा' का शाब्दिक अर्थ होता है व्यक्ति. क्योटो में पारंपरिक शब्द 'गाइको' इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ है कला की औरत. जापान में महिला गाइशा कलाकारों की परंपरा 600 साल पुरानी है, जब शिक्षित युवा महिलाएं सामाजिक अवसरों पर अपने कद्रदानों का मनोरंजन कर रोजी रोटी कमाती थीं. जो महिलाएं नाचने, गाने और कोई वाद्य यंत्र बजाने में अच्छी थीं, उनकी उस वक्त कुलीन समाज में बड़ी मांग होती थी.
काली अंधेरी रात है और जापान के गिफू में नदी किनारे आग जल रही है. मुट्ठी भर लोग जलकौवे के सहारे मछली का शिकार करने की तैयारी में हैं. मछली पकड़ने की यह खास कला है जो 1300 साल से चली आ रही है.
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1300 साल पुरानी कला
पारंपरिक कपड़ो में जापान के इन लोगों को देख कर लगता है कि किसी और युग से आए हैं. डोरी से बंधे अपने जलकौवों को ये लोग कठपुतली की तरह संभाले हुए हैं. इनके पेशे को स्थानीय भाषा में "उकाई" कहा जाता है. मछली पकड़ने वाले ये लोग "उशो" कहलाते हैं.
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सूरज डूबने के बाद शिकार
उकाई के लिए असाधारण धैर्य की जरूरत होती है. मछली का शिकार सूरज डूबने के बाद शुरू होता है. उशो अपनी नावों पर मशालें जला कर चलते हैं. इनकी रोशनी छोटी ट्राउट मछलियों को पानी की सतह की तरफ आकर्षित करती है. यह कला कभी यूरोप और दूसरी जगहों पर भी थी लेकिन अब केवल चीन और जापान में ही नजर आती है.
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3 साल की ट्रेनिंग
ये जलकौवे जापान के इबाराकी प्रांत से प्रवास पर यहां आते हैं. इसी दौरान इन्हें पकड़ कर रख लिया जाता है और फिर इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है. एक जलकौवे को तैयार करने में तीन साल का वक्त लगता है. इनके सहारे मछली का शिकार मई से लेकर अक्टूबर तक होता है लेकिन पूरे साल इनकी देखभाल एक जैसी करनी पड़ती है.
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पांच पीढ़ियों से एक ही काम
46 साल के शुजी सुगियामा पश्चिमी जर्मनी के गिफु में सबसे युवा "उशो" हैं. वे उन नौ लोगो में शामिल हैं जिनके पास इसका शाही लाइसेंस है. शुजी रात के शिकार की तैयारी में हैं. उन्हें यह कला अपने पिता से विरासत में मिली. पांच पीढ़ियों से उनका परिवार मछली पकड़ने की अनोखी कला के साथ जी रहा है.
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कई देशों में था जलकौवों से शिकार
जापान और दुनिया के कई और देशों के नदी किनारे बसे गांवों और शहरों में यह बहुत आम पेशा हुआ करता था. सदियां गुजरने के साथ धीरे धीरे यह घटता गया. अब तो बस सैलानियों के आकर्षण और देश की विरासत को बचाने के नाम पर इसे बड़ी कोशिशों से जिंदा रखा गया है.
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जलकौवों का कमाल
जलकौवों को आपस में रस्सी से बांध दिया जाता है और साथ ही उनकी गर्दन में भी रस्सी बंधी होती है जो शिकार को उन्हें खाने नहीं देती. जलकौवे शिकार लेकर मालिक के पास पहुंचते हैं वह उन्हें रख कर पक्षियों को वापस शिकार पर भेज देता है. नए जलकौवों को अनुभवी पक्षियों के साथ रख कर शिकार की ट्रेनिंग दी जाती है.
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शाही लाइसेंस
मछली पकड़ने का यह तरीका सदियों पुराना है लेकिन शाही परिवार से उशो के लिए लाइसेंस देने की शुरुआत 1890 में हुई. तब तक यह लोक कला लुप्त होने लगी थी. इनमें से नौ के पास शाही लाइसेंस है. साल में आठ बार ये शाही महल के लिए शिकार करने आते हैं. और इन्हें इस काम के लिए 8,000 येन यानी करीब 71 डॉलर का मासिक वेतन मिलता है.
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यूनेस्को विरासत की उम्मीद
मछली पकड़ने का यह तरीका कारोबारी रूप से फायदेमंद नहीं है और उशो को स्थानीय प्रशासन की सब्सिडी पर निर्भर रहना पड़ता है. हर साल एक लाख से ज्यादा लोग इसे देखने आते हैं और यह संख्या बढ़ रही है. स्थानीय प्रशासन को उम्मीद है कि एक दिन इसे यूनेस्को की विश्व विरासतों में शामिल किया जाएगा.
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गाइशा संस्कृति पर रिसर्च करने वाले और 1993 से क्योटो में रहे कनाडाई लेखक पीटर मेसिंतोश कहते हैं, "1920 और 1930 के दशकों में जापान के शहरों और कस्बों में 80 हजार गाइशा कलाकार हुआ करती थीं, लेकिन अब मान्यता प्राप्त सिर्फ 47 डिस्ट्रिक्ट में 800 ऐसी कलाकार हैं."
वह कहते हैं कि दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने तक भी जापान में महिलाओं के लिए करियर के विकल्प बहुत सीमित थे. वे या तो नौकर, सेक्स वर्कर या गाइशा डांसर बन सकती थीं या फिर शादी कर लेती थीं. लेकिन वह कहते हैं कि युद्ध ने महिलाओं के लिए बहुत सारे अवसर खोल दिए और वे ज्यादा स्वतंत्र हो सकीं.
मेसिंतोश कहते है कि जापान के आर्थिक बुलबुले के चरम के वक्त 1980 में गाइशा डिस्ट्रिक्ट को बड़ी मार झेलनी पड़ी. इसकी वजह थी बड़ी संख्या में खुलने वाले काराओके बार और होस्टेस क्लब, जहां मनोरंजन के कई साधन मौजूद थे. लेकिन हाल के सालों में गाइशा की दुनिया में फिर से बहार आने लगी है. मेसिंतोश कहते हैं, "पिछले 10 साल में एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि महिलाएं भी गाइशा परफॉर्मेंस देखने जाने लगी हैं क्योंकि वे पारंपरिक अंदाज में अपना मनोरंजन करना चाहती हैं. पहले सिर्फ वहां पुरुष जाते थे. लेकिन अब जापानी युवतियों के पास दूसरी अच्छी नौकरियां हैं जिनमें बढ़िया सैलरी मिलती है और वे जिस पर चाहें, अपना पैसा खर्च करती हैं."
गाइशा कलाकार बड़े विग पहनती हैं, जिनमें चमकती चीजें जड़ी होती हैं. इनके जरिए वे देखने वालों की नजर अपनी तरफ खींचती हैं. उनके चेहरे पर पारंपरिक सफेद मेकअप होता है. आंखों और होठों को उभारने के लिए पिंक या लाल मेकअप के शेड का इस्तेमाल किया जाता है.
क्योटो में गाइको इवेंट कराने वाली एक कंपनी से जुड़ीं नाओमी मानो कहती हैं कि जो महिलाएं इस करियर को चुनती हैं, उनका जापानी समाज में बहुत सम्मान है. वह कहती हैं, "ये महिलाएं बहुत ही प्रोफेशनल और अपनी कला में माहिर होती हैं. यह समझना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि ये किसी भी तरह से देह व्यापार से जुड़ी हैं. युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह गलतफहमी फैलाई गई थी." वह बताती हैं कि युद्ध के समय "गाइशा लड़कियों" का इस्तेमाल वेश्याओं के लिए किया जाता है, लेकिन एक असली गाइशा कलाकार को यह जानकर बहुत धक्का लगेगा कि कोई पुरुष उसे पैसों के बदले अपने साथ रात गुजराने की पेशकश करे.
फिर भी नोरी कहती हैं कि गाइशा की दुनिया आधुनिक जापान में बड़े दबाव से गुजर रही है. उनके मुताबिक, "जब मैंने शुरुआत की थी, तो असाकुसा में 60 गाइशा कलाकार थीं, लेकिन अब उनकी संख्या घट कर 20 रह गई है और उस इलाके में सिर्फ चार ही रेस्तरां हैं जहां पर हम परफॉर्म कर सकते हैं." वह कहती हैं, "चीजें बदल रही हैं, लेकिन मुझे विश्वास है कि हम अपनी इस संस्कृति को जीवित रख पाएंगे."
ब्रिटिश पत्रिका मोनॉकल ने लगातार दसवें साल दुनिया के 25 जीवंत शहरों की सूची जारी की है. पत्रिका ने शहरों के जीवन स्तर से लेकर उनकी ट्रांसपोर्ट व्यवस्था और देर रात खाने की जगहों का मुआयना करने के बाद ये सूची तैयार की है.
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ओस्लो (नॉर्वे)
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ब्रिस्बेन (ऑस्ट्रेलिया)
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ऑकलैंड (न्यूजीलैंड)
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फुकोका (जापान)
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सिंगापुर (सिंगापुर)
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पेरिस (फ्रांस)
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बार्सिलोना (स्पेन)
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ड्यूसलडॉर्फ (जर्मनी)
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क्योटो (जापान)
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एम्सटरडम (नीदरलैंड्स)
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वैनकूवर (कनाडा)
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हांगकांग (हांगकांग)
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सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)
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लिस्बन (पुर्तगाल)
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स्टॉकहोम (स्वीडन)
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हेलिंस्की (फिनलैंड)
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मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया)
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हैम्बर्ग (जर्मनी)
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मैड्रिड (स्पेन)
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बर्लिन (जर्मनी)
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