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इन व्हेलों का शिकार से पीछा छूटा लेकिन मुसीबतों से नहीं

१९ अप्रैल २०२२

कभी शिकारियों की पसंदीदा रही राइट व्हेल अब अस्तित्व के संकट से जूझ रही है. खूब सारी चर्बी और जबड़े के बालों के लिए मशहूर रही इस व्हेल प्रजाति को बचाने की कोशिशों का भी बहुत असर नहीं हो रहा. आखिर कौन है इनका दुश्मन.

लुप्त हो रही है नॉर्थ अटलांटिक राइट व्हेल
लुप्त हो रही है नॉर्थ अटलांटिक राइट व्हेलतस्वीर: JOSEPH PREZIOSO/AFP/Getty Images

कई घंटों तक केप कॉड बे में भटकने और कई गलत चेतावनियों के बाद रिसर्च पर निकले शीयरवाटर जहाज के सवारों को आखिरकार नॉर्थ अटलांटिक राइट व्हेल के दर्शन हो ही गए. अप्रैल की चमचमाती रोशनी में तीन व्हेलें नजर आईं और उनमें से एक तो अपने बच्चे के साथ थी.

जहाज के कप्तान ने इंजन बंद किया और समुद्री जीवविज्ञानियों का दल तेजी से अपने काम में जुट गया. वैज्ञानिकों की कोशिश रहती है कि उनकी तस्वीरें और अहम जानकारियों को नोटबुक में दर्ज किया जाए, ताकि इस लुप्त हो रही प्रजाति के संरक्षण में मदद मिल सके. माना जाता है कि व्हेल की इस प्रजाति के दुनिया भर में महज 336 जीव ही अब बचे हैं. 

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इन व्हेलों के शिकार ने इन्हें इस हाल में पहुंचा दिया है, अब उस पर रोक तो लग गई है लेकिन जहाजों से गैर-इरादतन टक्कर या फिर मछली पकड़ने के जाल में दुर्घटनावश फंसने के कारण इनकी जान पर अकसर आफत बन आती है. यूबालेना ग्लासियालिस यानि अटलांटिक राइट व्हेल का नामोनिशान दुनिया में तेजी से मिट रहा है.

तीसरी सबसे बड़ी व्हेल

60 फीट लंबी और 70 टन से ज्यादा वजनी नॉर्थ अटलांटिक राइट व्हेल दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी व्हेल है जिनका अस्तित्व पृथ्वी पर अब भी बचा हुआ है. इनकी जिंदगी इंसानों जैसी ही है, यानी आमतौर पर ये 100 साल तक जिंदा रहती हैं.

न्यू इंग्लैंड का प्रोविंसटाउन मछुआरों का गांव है और व्हेल पकड़ने के साथ ही गे टूरिज्म के लिए विख्यात है. इसी गांव से सेंटर फॉर कोस्टल स्टडीज यानी सीसीएस की टीम रिसर्च के लिए समंदर में उतरी. टीम की प्रमुख क्रिस्टी हुडाक बताती हैं,"दुर्भाग्य से 2010 के बाद से ही उनकी आबादी लगातार घट रही है. हम इस शानदार जीव के बारे में बताने की कोशिश कर रहे हैं और यह भी कि वह जीवन चक्र में कितनी अहम है."

60 फीट तक लंबी व्हेल का वजन 70 टन तक होता हैतस्वीर: JOSEPH PREZIOSO/AFP/Getty Images

सीसीएस अब का दल एक हवाई सर्वे करने वाले विमान के साथ काम करता है. जबकि एक और जहाज में दूसरी रिसर्च टीम कैमरा लगे मिनी ड्रोन के सहारे व्हेल के बारे में जानकारी जुटा रही है. इन सब का मकसद यही जानना है कि मछली पकड़ने वाले जाल की रस्सी में फंसना इन व्हेलों के विकास दर पर कितना असर डाल रहा है.

शिकार पर रोक से भी नहीं बनी बात

संरक्षित इलाके में 10 नॉट्स प्रति घंटे की गतिसीमा के सख्त नियम और केकड़े या लॉबस्टर पकड़ने के लिए रस्सियों की संख्या सीमित करने के बावजूद संरक्षकों को चिंता है कि इतन सब कुछ पर्याप्त नहीं है. जलवायु परिवर्तन के कारण समस्या और ज्यादा बड़ी हो गई है. उत्तरी अटलांटिक के गर्म पानी में मिलने वाला वसा से भरपूर जलीय जीव कालानस फिनमारचिकस इन व्हेलों का मुख्य भोजन है. हालांकि फ्लोरिडा से कनाडा तक फैले इनके आवासीय क्षेत्र में ये जलीय जीव घटते जा रहे हैं.

केप कॉड बे का पानी उतनी तेजी से गर्म नहीं हो रहा है जितना कि माइने की खाड़ी में. यही वजह है कि ये व्हेलें यहां दिखाई दे रही हैं जो पारंपरिक रूप से उनके भोजन और बच्चों को पालने का इलाका है. अब वो यहां पहले से ज्यादा दिख रही हैं.

तस्वीरें लेने और विस्तृत जानकारी जुटाने के अलावा टीम सूक्ष्म जलीय जीवों (जूप्लैंकटन) का भी अध्ययन करते हैं. जाल और पानी के पंपों का इस्तेमाल कर वे अलग-अलग गहराई से नमूने जमा करते हैं, जिनका बाद में लैब में विश्लेषण किया जाता है. सूक्ष्म जलीय जीवों का घनत्व और उनकी संरचना की मदद से वैज्ञानिक यह पता लगाने में सफल होते हैं कि व्हेलों की संख्या इस इलाके में कब ज्यादा होगी और कब वे यहां से निकल जाएंगी.

समुद्री जीवविज्ञानी क्रिस्टी हुडाकतस्वीर: JOSEPH PREZIOSO/AFP/Getty Images

कैसे पड़ा राइट नाम

करीब एक हजार सालों तक कारोबारी शिकारियों के लिए राइट व्हेल पसंदीदा रही हैं. वाइकिंग से लेकर बास्क, अंग्रेज, डच और फिर अमेरिकियों तक तेल के लिए उसकी चर्बी और जबड़े में मौजूद बालों के लिए उसकी खोज में रहते आए हैं. व्हेल के लिए उसके जबड़े के बाल शिकार को छानने के काम आते हैं और प्लास्टिक के आने से पहले इस लचीले, मजबूत मटीरियल का इस्तेमाल इंसान अलग अलग कामों में करता था.

राइट व्हेल पर किताब लिखने वाले डेविड लाएस्ट बताते हैं कि कारोबारी तौर पर व्हेलों का शिकार होने से पहले इनकी संख्या 20,000 से ज्यादा थी लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत में ही इनकी संख्या तेजी से घट गई.

लाएस्ट ने लिखा है कि 1920 के दशक के मध्य से लेकर 1950 के बीच पूरे उत्तरी अटलांटिक में इन्हें सिर्फ एक बार देखा गया.

सीसीएस के संस्थापक चार्ल्स मेयो का कहना है, "व्हेल के शुरुआती शिकारियों ने उन्हें पकड़ने के लिए उचित माना क्योंकि उनके भीतर चर्बी की मोटी परत होती थी जिससे निकला तेल लैंप जलाने के लिए इस्तेमाल होता था." इसी वजह से इनका नाम भी राइट व्हेल पड़ा.

पायलट व्हेल का शिकारतस्वीर: ANDRIJA ILIC/AFP

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घटती बढ़ती आबादी

हाल के वर्षों में देखें तो 2000 के दशक में उन्होंने खूब बच्चे पैदा किए और 2010 में उनकी संख्या 483 तक पहुंच गई. हालांकि फिर एक बार उनकी संख्या घटने लगी और 2017 में तो बड़ी संख्या में उनकी मौत हुई. कारण था नए इलाकों की खोज में उनका इधर-उधर भटकना. मेयो बताते हैं, "बहुत कम समय के दौरान ही 14 व्हेलों की मौत हो गई क्योंकि वे सेंट लॉरेंस खाड़ी में चली गई थीं जिसे वो पहले से जानती नहीं थीं और वहां व्यवस्था नहीं बनाई गई थी."

व्हेलों के इस कदम के पीछे कारण था जलवायु परिवर्तन के कारण भोजन में कमी. इसका नतीजा हुआ कि नए इलाके में जहाजों से टकराने और जाल की रस्सियों में फंसने के कारण बड़ी संख्या में व्हेलों को अपनी जान गंवानी पड़ी. 

अब उनकी आबादी पहले से ही कम है तो कुछ व्हेलों की मौत का भी इस पर बड़ा असर होता है. पहली बार 1984 में जब एक व्हेल को मछली पकड़ने के जाल के चंगुल से छुड़ाया गया था तो उस टीम में मेयो भी शामिल थे. उनके पिता ने पायलट व्हेलों का शिकार किया है और उनका परिवार इस इलाके में 1600 से ही रह रहा है.

दक्षिणी इलाके के पानी में व्हेलों के बच्चे पैदा करने की दर भी कम है. आमतौर पर दो बच्चों के बीच 3 साल का फर्क होता है, लेकिन फिलहाल यह समय बढ़ कर 3 से 6 साल तक हो गया है. अनजाने में रस्सियों में फंसने और इंसानी गतिविधियों के कारण मादा व्हेलों का तनाव बढ़ता जा रहा है और इसी को बच्चों में देरी होने की वजह माना जाता है.

एनआर/आरएस (एएफपी)

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