पाकिस्तान की केंद्र सरकार देश भर में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था लागू करने की योजना पर काम कर रही है. इस व्यवस्था में शिक्षा को ज्यादा इस्लामिक करने और कुरान पढ़ाने पर जोर है.
तस्वीर: Ishara S. Kodikara/AFP
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इमरान खान सरकार पूरे देश में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था लागू करने जा रही है. पहले दौर में पहली से पांचवीं तक की क्लास वाले प्राइमरी स्कूलों को शामिल किया जाएगा. हर स्कूल और कॉलेज को ये विषय पढ़ाने के लिए एक हाफिज और एक कारी अपने यहां रखना होगा. लेकिन आलोचकों को डर है कि इसका नतीजा स्कूलों और विश्वविद्यालयों के इस्लामीकरण के रूप में सामने आएगा. उनका कहना है कि इससे शिक्षा पर मौलवियों का असर बढ़ेगा, फिरकापरस्ती तेज होगी और सामाजिक ताना-बाना खराब होगा.
इस्लामाबाद में पढ़ाने वाले एक अकादमिक अब्दुल हमीद नायर कहते हैं कि नई योजना में उर्दू, अंग्रेजी और सोशल स्टडीज का भारी इस्लामीकरण किया गया है. वह कहते हैं कि बच्चे कुरान के 30 अध्याय और बाद में किताब का पूरा अनुवाद पढ़ेंगे. साथ ही अन्य इस्लामिक किताबें भी पढ़ाई जाएंगी.
नायर कहते हैं कि आधुनिक ज्ञान का आधार आलोचनात्मक सोच पैदा करना है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार अपने सिलेबस में इसका उलटा ही आगे बढ़ाना चाह रही है.
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इस्लामिक ताकतों के सामने टिकते घुटने
1947 में पाकिस्तान बनने के बाद से सरकार और इस्लामिक कट्टरपंथियों में एक रिश्ता रहा है. वैसे देश का इस्लामीकरण 1950 और 60 के दशक में शुरू हो गया था लेकिन 1970 के दशक में इसने रफ्तार पकड़ी और 1980 में जिया उल हक की तानाशाही में यह अपने चरम पर पहुंच गया. हक ने देश के उदारवादी संविधान की शक्ल ओ सूरत बदलने की मुहिम छेड़ी. उन्होंने इस्लामिक कानून लागू किए, पढ़ाई का इस्लामीकरण किया, देशभर में हजारों मदरसे खोले, न्याय व्यवस्था, प्रशासन और सेना में इस्लामिक सोच के लोगों को भरा और ऐसे संस्थान बनाए जहां से मौलवी सरकार के काम काज पर नजर रख सकते थे. 1988 जिया उल हक की मौत के बाद से लगभग हर सरकार ने इस्लामिक ताकतों को खुश रखने की कोशिश की है.
इमरान खान के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार पर भी इस्लामिक ताकतों के सामने घुटने टेकने के आरोप लगते रहे हैं. 2018 में उनकी पार्टी तहरीक ए इंसाफ ने पूरे देश में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था लागू करने का वादा किया था. तब बहुत से लोगों को उम्मीद थी कि नयी व्यवस्था विज्ञान, कला, साहित्य और अन्य समकालीन विषयों पर जोर देगी. लेकिन 2019 में जब सरकार ने नई योजना जारी की तो पता चला कि इस्लाम पर जोर बाकी सबसे ज्यादा है.
पाकिस्तानी सरकार की योजना कहती है कि बच्चे पूरी कुरान अनुवाद के साथ पढ़ें, इस्लामिक प्रार्थनाएं सीखें और हदीस याद करें. तस्वीर: Muhammad Sajjad/AP Photo/picture alliance
हालांकि इस योजना को कोरोनावायरस महामारी के कारण लागू करने में देर हुई है लेकिन इस साल इसकी शुरुआत की संभावना है. प्राथमिक स्कूलों कि किताबें छप चुकी हैं. इसमें अंग्रेजी, उर्दू और सोशल स्टडीज कि किताबों पर इस्लाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है. लाहौर स्थित शिक्षाविद रूबीना साइगोल बताती हैं कि सरकारी स्कूलों का मदसरीकरण किया जा रहा है जिसके गंभीर नतीजे होंगे. वह कहती हैं, "इस सिलेबस को पढ़कर बच्चे इस्लामिक रूढ़िवादी सोच के बनेंगे. वे महिलाओँ को ऐसे कमतर इंसान मानेंगे जिन्हें आजादी का हक नहीं है.”
30 फीसदी ज्यादा इस्लामिक सामग्री
इस्लामाबाद स्थित परमाणु विज्ञानी परवेज हूदबोय कहते हैं कि नया सिलेबस पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था को ऐसा नुकसान पहुंचाएगा, जैसा पहले कभी नहीं पहुंचा. वह कहते हैं, "इसके भीतर ऐसे बदलाव छिपे हुए हैं जिनका असर बहुत गहरा होगा. इतना गहरा जितना किसी ने सोचा नहीं होगा और जिनता जिया उल हक की तानाशाही में भी नहीं हुआ होगा. इसमें सरकारी स्कूलों में इस्लाम की पढ़ाई मदरसों से भी ज्यादा हुआ करेगी.”
कुछ लोगों ने इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी है. लाहौर स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता पीटर जैकब कहते हैं कि अनिवार्य विषयों का 30-40 फीसदी हिस्सा धार्मिक है. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "कई लोग अदालत गए हैं क्योंकि यह संविधान के खिलाफ है. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग नहीं मानते कि इस सामग्री को अनिवार्य विषयों में होना चाहिए.”
सरकार का समर्थन कर रही मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पार्टी की सांसद किश्वर जेहरा भी इस्लामीकरण के खिलाफ हैं. वह कहती हैं कि पाकिस्तान को बांग्लादेश से सीखना चाहिए. उन्होंने कहा, "हमें बांग्लादेश से सीखना चाहिए जो अपने यहां धर्म निरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा दे रहा है. मौजूदा नीति बस इस्लामिक ताकतों को खुश करने की कोसिश है. इसके बजाय सरकार को वैश्विक मानवाधिकार मूल्यों को शिक्षा में शामिल करना चाहिए जिनकी पाकिस्तान के स्टूडेंट्स को ज्यादा से ज्यादा सीखने की जरूरत है.”
पाकिस्तान में हिंदुओं का ऐतिहासिक भव्य मंदिर
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के चकवाल जिले में कोहिस्तान नामक पर्वत श्रृंखला में कटासराज नाम का एक गांव है. यह गांव हिंदुओं के लिए बहुत ऐतिहासिक और पवित्र है. इसका जिक्र महाभारत में भी मिलता है. आइए जानें इसकी विशेषता.
तस्वीर: Ismat Jabeen
कई मंदिर
कटासराज मंदिर परिसर में एक नहीं, बल्कि कम से कम सात मंदिर है. इसके अलावा यहां सिख और बौद्ध धर्म के भी पवित्र स्थल हैं. इसकी व्यवस्था अभी एक वक्फ बोर्ड और पंजाब की प्रांतीय सरकार का पुरातत्व विभाग देखता है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
पहाड़ी इलाके में मंदिर
कोहिस्तान नमक का इलाका छोटी-बड़ी पहाड़ियों से घिरा है. ऊंची पहाड़ियों पर बनाए गए इन मंदिरों तक जाने के लिए पहाड़ियों में होकर बल खाते पथरीले रास्ते हैं. इस तस्वीर में कटासराज का मुख्य मंदिर और उसके पास दूसरे भवन दिख रहे हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
सबसे ऊंचे मंदिर से नजारा
कटासराज की ये तस्वीर वहां के सबसे ऊंचे मंदिर से ली गई है जिसमें मुख्य तालाब, उसके आसपास के मंदिर, हवेली, बारादरी और पृष्ठभूमि में मंदिर के गुम्बद भी देखे जा सकते हैं. बाएं कोने में ऊपर की तरफ स्थानीय मुसलमानों की एक मस्जिद भी है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
नहीं रही हिंदू आबादी
कटासराज मंदिर के ये अवशेष चकवाल शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में हैं. बंटवारे से पहले यहां हिंदुओं की अच्छी खासी आबादी रहती थी लेकिन 1947 में बहुत से हिंदू भारत चले गए. इस मंदिर परिसर में राम मंदिर, हनुमान मंदिर और शिव मंदिर खास तौर से देखे जा सकते हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
शिव और सती का निवास
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव ने सती से शादी के बाद कई साल कटासराज में ही गुजारे. मान्यता है कि कटासराज के तालाब में स्नान से सारे पाप दूर हो जाते हैं. 2005 में जब भारत के उप प्रधानमंत्री एलके आडवाणी पाकिस्तान आए तो उन्होंने कटासराज की खास तौर से यात्रा की थी.
तस्वीर: Ismat Jabeen
शिव के आंसू
हिंदू मान्यताओं के अनुसार जब शिव की पत्नी सती का निधन हुआ तो शिव इतना रोए कि उनके आंसू रुके ही नहीं और उन्हीं आंसुओं के कारण दो तालाब बन गए. इनमें से एक पुष्कर (राजस्थान) में है और दूसरा यहां कटाशा है. संस्कृत में कटाशा का मतलब आंसू की लड़ी है जो बाद में कटास हो गया.
तस्वीर: Ismat Jabeen
गणेश
हरी सिंह नलवे की हवेली की एक दीवार पर गणेश की तस्वीर, जिसमें वो अन्य जानवरों को खाने के लिए चीजें दे रहे हैं. ऐसे चित्रों में कोई न कोई हिंदू पौराणिक कहानी है. कटासराज के निर्माण में ज्यादातर चूना इस्तेमाल किया गया है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
धार्मिक महत्व
पुरातत्वविद् कहते हैं कि इस तस्वीर में नजर आने वाले मंदिर भी नौ सौ साल पुराने हैं. लेकिन पहाड़ी पर बनी किलेनुमा इमारत इससे काफी पहले ही बनाई गई थी. तस्वीर में दाईं तरफ एक बौद्ध स्तूप भी है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
प्राकृतिक चश्मे
कटासराज की शोहरत की एक वजह वो प्राकृतिक चश्मे हैं जिनके पानी से गुनियानाला वजूद में आया. कटासराज के तालाब की गहराई तीस फुट है और ये तालाब धीरे धीरे सूख रहा है. इसी तालाब के आसपास मंदिर बनाए गए हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
खास निर्माण शैली
कटासराज की विशिष्ट निर्माण शैली और गुंबद वाली ये बारादरी अन्य मंदिरों के मुकाबले कई सदियों बाद बनाई गई थी. इसलिए इसकी हालत अन्य मंदिरों के मुकाबले में अच्छी है. पुरातत्वविदों के अनुसार कटासराज का सबसे पुराना मंदिर छठी सदी का है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
दीवारों पर सदियों पुराने निशान
ये खूबसूरत कलाकारी एक हवेली की दीवारों पर की गई है जो यहां सदियों पहले सिख जनरल हरी सिंह नलवे ने बनवाई थी. इस हवेली के अवशेष आज भी इस हालत में मौजूद हैं कि उस जमाने की एक झलक बखूबी मिलती है.
तस्वीर: Ismat Jabeen
नलवे की हवेली के झरोखे
सिख जनरल नलवे ने कटासराज में जो हवेली बनवाई, उसके चंद झरोखे आज भी असली हालत में मौजूद हैं. इस तस्वीर में एक अंदरूनी दीवार पर झरोखे के पास खूबसूरत चित्रकारी नजर आ रही है. कहा जाता है कि कटासराज का सबसे प्राचीन स्तूप सम्राट अशोक ने बनवाया था.
तस्वीर: Ismat Jabeen
बीती सदियों के प्रभाव
इस तस्वीर में कटासराज की कई इमारतें देखी जा सकती हैं, जिनमें मंदिर भी हैं, हवेलियां भी हैं और कई दरवाजों वाले आश्रम भी हैं. इस तस्वीर में दिख रही इमारतों पर बीती सदियों के असर साफ दिखते हैं.
तस्वीर: Ismat Jabeen
सदियों का सफर
इस स्तूपनुमा मंदिर में शिवलिंग है. भारतीय पुरातत्व सर्वे की 19वीं सदी के आखिर में तैयार दस्तावेज बताते हैं कि कटासराज छठी सदी से लेकर बाद में कई दसियों तक हिंदुओं का बेहद पवित्र स्थल रहा है.
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मूंगे की चट्टानें
कटासराज के मंदिरों और कई अन्य इमारतों में हिस्सों में मूंगे की चट्टानों, जानवरों की हड्डियों और कई पुरानी चीजों के अवशेष भी देखे जा सकते हैं.