इराकी शहरों में किसानों के आने से झगड़े क्यों हो रहे हैं
२८ जुलाई २०२३इराक की राजधानी बगदाद में लंबे समय से रहने वाली माराबा हबीब (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि आम तौर पर बहस की शुरुआत किसी छोटी बात को लेकर होती है और बाद में झगड़ों में बदल जाती है. हबीब मूल रूप से करबला के समीप एक छोटे शहर की रहने वाली पत्रकार हैं. फिलहाल, वह बगदाद से सटे इलाके कराड़ा में रहती हैं.
हबीब कहती हैं, "मैं जिस गांव से आती हूं वहां रहने वाले लोग यह नहीं चाहते कि कोई बाहरी व्यक्ति उनके घर के बाहर या उनकी दीवारों पर बैठे. जबकि, शहर में किसी के घर के बाहर बैठना सामान्य बात है. देश के किसान इस बात को नहीं समझते हैं और वे बाहर आकर बहस करने लगते हैं. मैंने लोगों को इस बात पर झगड़ते हुए देखा है.”
20 साल पहले शुरू हुई जंग में अब भी जल रहा है इराक
हबीब इराक में ग्रामीण और शहरी संस्कृति के बीच बढ़ते टकराव का एक और उदाहरण देती हैं. वह कहती हैं, "ग्रामीण संस्कृति के लोग महिलाओं को पश्चिमी शैली के कपड़े पहने हुए देखने के आदी नहीं हैं.” हबीब खुद धार्मिक हैं और सिर पर स्कार्फ पहनती हैं, लेकिन उनकी अलमारी में लंबी बाजू वाली शर्ट और जींस जैसे कपड़े भी हैं, जिन्हें बगदाद में पहनना सामान्य बात है.
हबीब कहती हैं, "जब किसान बगदाद आते हैं, तो उन्हें लगता है कि पश्चिमी कपड़े पहनने वाली महिलाएं सेक्सवर्कर हैं. इससे समस्याएं पैदा हो सकती हैं. मैं मूल रूप से गांव की हूं, इसलिए समझती हूं कि वे कहां से आ रहे हैं और मैं उन्हें समझाने की कोशिश करती हूं.”
बढ़ती हुई समस्या
इस प्रकार की सामाजिक समस्याएं इराक में और अधिक देखने को मिल सकती हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इराक जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित दुनिया के पांच देशों में से एक है. यहां की करीब 92 फीसदी जमीन के बियाबान में बदलने का खतरा है. दूसरी तरफ यहां तापमान वैश्विक औसत से सात गुना तेजी से बढ़ रहा है. इससे खेती करना मुश्किल होता जा रहा है. खेतिहर परिवार के लोग आखिरकार रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं.
नॉर्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल (एनआरसी) के इराक कार्यालय के निदेशक जेम्स मुन्न ने डीडब्ल्यू को बताया, "लंबे समय से चल रहे संघर्ष के कारण इराक के ग्रामीण इलाकों में पहले से ही संसाधनों का अभाव है. नौकरियां कम हैं, जरूरत के मुताबिक कामकाजी बुनियादी ढांचा नहीं है, पानी की कमी है, स्कूलों और अस्पताल की संख्या भी काफी कम है.
आज जो संघर्ष और टकराव की स्थिति बढ़ी है उसकी मूल वजह यही है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन उन सभी समस्याओं को और बढ़ा रहा है, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग गांव से पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं.” इराक में संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन (आईओएम) के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू को बताया कि जून 2018 से लेकर जून 2023 के बीच संगठन ने करीब 83,000 ऐसे लोगों की पहचान की जो मध्य और दक्षिणी इराक में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षति की वजह से विस्थापित हुए हैं.
आईओएम ने कहा, "ऐसे लोग अक्सर नजदीकी शहरों की ओर पलायन करते हैं.” प्रवक्ता ने पुष्टि की है कि शहरी क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने कहा कि इससे वहां तनाव बढ़ा है. जलवायु परिवर्तन की वजह से विस्थापित बहुत से लोग बड़े शहरों में और उसके आसपास झोपड़ीनुमा कस्बों या अनौपचारिक बस्तियों में रहने लगते हैं. आईओएम के प्रवक्ता ने कहा, "नए लोगों के आने से उन प्रणालियों पर बोझ बढ़ता है जिनका इस्तेमाल पहले से ही वहां के स्थानीय लोग कर रहे होते हैं.”
उन्होंने आगे कहा, "विस्थापित आबादी का अधिकांश हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कम वेतन वाली नौकरियों में भी कार्यरत है, जैसे कि दैनिक मजदूरी, छोटे व्यवसाय या कारखानों में. जबकि स्थानीय निवासियों में से ज्यादातर के पास सरकारी नौकरियां हैं.”
नए लोग पहले से ही विस्तारित बुनियादी ढांचे के लिए वहां लंबे समय से रह रहे निवासियों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं और उन्हें परिवहन, स्वास्थ्य देखभाल या शिक्षा जैसी सुविधाओं को हासिल करने में कठिनाई हो सकती है. यहां तक कि सीवेज सिस्टम, स्वच्छ पेयजल, और सामाजिक सहायता भी मिलना मुश्किल हो सकता है. ऐसे में मानसिक बीमारी और मादक द्रव्यों के सेवन की संभावना बढ़ जाती है.
ग्रामीण-शहरी राजनीतिक विभाजन
निगरानी संगठनों और मीडिया, दोनों की हालिया रिपोर्टें बताती हैं कि ग्रामीण-शहरी विरोध बढ़ रहा है. किसी भी तरह की हिंसा या अपराध होने पर शहरी निवासी नए लोगों पर संदेह जताते हैं. स्थानीय राजनेता भी ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को बलि का बकरा बनाने में लगे हैं.
ऐसा सिर्फ इराक में ही नहीं होता है. समाजशास्त्री लंबे समय से शहरी लोगों और ग्रामीणों के बीच राजनीतिक मतभेदों पर टिप्पणी करते रहे हैं. माना जाता है कि शहर के लोग अलग-अलग संस्कृतियों के प्रति ज्यादा उदार और सहिष्णु हो सकते हैं. वहीं, ग्रामीण आबादी को ‘गंवार' और ज्यादा रूढ़िवादी या धार्मिक माना जाता है.
बगदाद का विशाल उपनगर सदर शहर इसका अच्छा उदाहरण है. इसे 1950 के दशक में सूखे, गरीबी और बेदखली से भागकर आए ग्रामीण इराकियों को रहने के लिए बसाया गया था. वास्तुकला की प्रोफेसर हुमा गुप्ता ने अमेरिका स्थित क्राउन सेंटर फॉर मिडिल ईस्ट स्टडीज के लिए 2021 की ब्रीफिंग में लिखा, "समय के साथ ग्रामीण प्रवासियों और उनकी अगली पीढ़ियों ने इन बस्तियों को प्रदर्शन और विरोध वाली मुख्य जगहों में बदल दिया. इससे कम्युनिस्टों, राष्ट्रवादियों और बाद में शिया इस्लामवादियों को काफी समर्थन मिला.
गुप्ता ने तर्क दिया कि बगदाद में ग्रामीण प्रवासन ने मूल रूप से इराक की राजनीति की दिशा को बदल दिया.
मुख्य समस्या पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता
अब बड़ा सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले विस्थापन से जुड़ी चुनौती को ध्यान में रखते हुए इराकी सामाजिक एकजुटता बनाए रखने के लिए क्या किया जा सकता है? विशेषज्ञों ने संभावित समाधान पेश किए हैं.
इराक में आईओएम का सुझाव है, "देश की अखंडता से जुड़ी चिंताओं को देखते हुए भविष्य की योजनाओं में उन क्षेत्रों में सामाजिक एकजुटता बनाए रखने पर ध्यान देना चाहिए जहां बड़ी संख्या में ऐसे प्रवासी रह रहे हैं. साथ ही, प्रवासियों और विस्थापित व्यक्तियों के अधिकारों का हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए.”
वहीं, अन्य विशेषज्ञों ने सलाह दी है कि स्थानीय अधिकारी जागरूकता अभियान चला सकते हैं, नए लोगों के लिए बेहतर आवास का निर्माण किया जा सकता है या उन्हें रोजगार और अन्य सरकारी सेवाएं दिलाने में मदद की जा सकती है.
हालांकि, राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के कारण इराकी सरकार सामान्य रूप से जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं को हल करने में नाकाम रही है. दक्षिणी इराक में रहने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता अहमद सालेह नीमा ने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ एजेंसियां इस बारे में बात करती हैं, लेकिन सरकार के पास इन लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. सरकार विस्थापन से जुड़े आंकड़ों को मानने से भी इनकार कर रही है. जहां तक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का सवाल है, संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन अभी शोध ही कर रहे हैं और सहायता उपलब्ध कराने के तरीके पर काम कर रहे हैं.”
वहीं, आईओएम इस समस्या से पूरी तरह अवगत है. उसकी गतिविधियों से पता चलता है कि वर्तमान में उसके अधिकांश प्रयास जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे ग्रामीण समुदायों का समर्थन करने पर केंद्रित हैं. विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस विषय पर अभी और अध्ययन की जरूरत है. शोधकर्ताओं ने या तो इराक जैसे देशों में ग्रामीण इलाकों पर ध्यान केंद्रित किया है या जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली हिंसा पर. जबकि ‘पर्यावरण शरणार्थी' की अंतरराष्ट्रीय परिभाषा की अभी भी स्पष्ट तौर पर व्याख्या नहीं की गई है.
एनआरसी के मुन्न कहते हैं, "सरकार की मौजूदा स्थिति से ऐसा लगता है कि जलवायु संबंधी विस्थापन को स्वीकार करने के बजाय यह दावा करना आसान है कि यह पलायन आर्थिक वजहों से हो रहा है. जबकि हकीकत यह है कि गर्मी के मौसम में देश का बड़ा हिस्सा रहने लायक नहीं रहता, लेकिन जो लोग विस्थापित हो गए हैं उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है.”
उन्होंने निष्कर्ष निकाला, "हमने एक समस्या के तौर पर इसकी पहचान की है और बारीकी से नजर बनाए हुए हैं. हालांकि, सामान्य तौर पर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे लंबे समय तक उनकी मदद की जा सके. इसके अलावा, अभी तक इसे एक समस्या के तौर पर भी नहीं माना गया है.”