पाकिस्तान गिलगित बल्तिस्तान के इलाके को वे सभी अधिकार देने की तैयारी कर रहा है जो उसके अन्य प्रांतों को प्राप्त हैं. इस पर न सिर्फ भारत ने तीखी आपत्ति दर्ज कराई है बल्कि उस इलाके के बहुत से लोग भी इससे खुश नहीं हैं.
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जम्मू और कश्मीर का जो हिस्सा पाकिस्तान के नियंत्रण में है उसमें से एक हिस्से को वह 'आजाद कश्मीर' कहता है जबकि दूसरा हिस्सा गिलगित बल्तिस्तान है. संयुक्त राष्ट्र के 1947 के प्रस्ताव के मुताबिक 72 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला गिलगित बल्टिस्तान इलाका विवादित कश्मीर का हिस्सा है.
1970 में पाकिस्तान ने इसे 'आजाद कश्मीर' से अलग कर नॉर्दन एरिया के नाम से एक अलग प्रशासनिक इकाई बनाया. दशकों तक इस इलाके के लोगों पर रिमोट कंट्रोल के जरिए इस्लामाबाद से शासन चलता रहा. ना यहां कभी चुनाव हुए और न ही यहां से उठने वाली आवाजों पर कोई ध्यान दिया गया. यहां तक कि इलाके का नाम नॉर्दन एरिया से वापस गिलगित बल्तिस्तान कराने के लिए भी यहां के लोगों को लंबा संघर्ष करना पड़ा.
दुनिया की नाक में दम करने वाला इलाका
फाटा: दुनिया की नाक में दम करने वाला इलाका
पाकिस्तान के कबाइली इलाके लंबे समय तक आतंकवाद का गढ़ रहे हैं. 2018 में इस इलाके को पाकिस्तान के खैबर पख्तून ख्वाह प्रांत में शामिल किया गया. जानिए क्यों खास है फाटा कहा जाने वाला यह इलाका.
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सबसे खतरनाक जगह
पाकिस्तान के कबाइली इलाकों को कभी अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दुनिया का सबसे खतरनाक इलाका बताया था. इस पहाड़ी इलाके को लंबे समय से तालिबान और अल कायदा लड़ाकों की सुरक्षित पनाहगाह माना जाता है.
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केपीके का हिस्सा
अब इस अर्धस्वायत्त इलाके को पाकिस्तान के खैबर पख्तून ख्वाह प्रांत में शामिल किया जा रहा है. यानी अब तक कबाइली नियम कानूनों से चलने वाले इस इलाके पर भी अब पाकिस्तान का प्रशासन और न्याय व्यवस्था के नियम लागू होंगे.
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सात जिले
अफगानिस्तान की सीमा पर मौजूद पाकिस्तान के कबाइली इलाके में सात जिले हैं जिन्हें सात एजेंसियां कहा जाता है. संघीय प्रशासित इस कबाइली इलाके को अंग्रेजी में फेडरली एडमिनिटर्ड ट्राइबल एरिया (FATA) कहा जाता है.
गुलामी मंजूर नहीं
फाटा की आबादी लगभग पचास लाख है जिसमें से सबसे ज्यादा पख्तून लोग शामिल हैं. ब्रिटिश राज में इस इलाके को फाटा नाम दिया गया था. यहां रहने वाले पठान लड़ाकों ने खुद को गुलाम बनाने की कोशिशों का डटकर मुकाबला किया था.
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सस्ती बंदूकें
अभी तक यह इलाका पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच एक बफर जोन की तरह रहा है. यह इलाका सस्ती बंदूकों की मंडी के तौर पर बदनाम रहा है. अफीम के साथ साथ यहां तस्करी का सामान खुले आम बिकता है.
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कबीलों का राज
ब्रिटिश अधिकारियों ने 1901 में इस इलाके के लिए फ्रंटियर क्राइम्स रेग्युलेशन बनाया था, जिसके तहत राजनीति तौर पर नियुक्त होने वाले लोगों को यहां शासन का अधिकार है. इन लोगों के पास एक व्यक्ति के जुर्म की सजा पूरे कबीले को देने तक का अधिकार है.
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स्वायत्तता का लालच
1947 में पाकिस्तान बनने के बाद भी फाटा में वैसे ही शासन चलता रहा जैसे अंग्रेजी दौर में चलता था. पाकिस्तान की सरकार ने इलाके के लोगों को स्वायत्ता लालच दिया ताकि वे पाकिस्तान में शामिल हो जाएं.
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विकास नहीं हुआ
इलाके को स्वायत्ता की भारी कीमत चुकानी पड़ी. विकास के लिए मिलने वाली रकम दशकों तक यहां पहुंची ही नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि कबाइली इलाके और बाकी पाकिस्तान में जमीन आसमान का अंतर नजर आता है.
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उग्रवाद की उपजाऊ जमीन
वंचित लोगों में नाराजगी पैदा होना आम बात है. इसलिए यह इलाका चरमपंथ का गढ़ बन गया है जो न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि पड़ोसी अफगानिस्तान के लिए एक बड़ी सुरक्षा चुनौती बन कर उभरा.
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सोवियत संघ के खिलाफ
फाटा 1979 में अफगानिस्तान में रूसी हमले के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ सीआईए समर्थित मुजाहिदीन के अभियान का अहम ठिकाना रहा है. दुनिया भर के इस्लामी लड़ाके यहां पहुंचे, जिनमें से कुछ ने बाद में अल कायदा खड़ा किया.
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चरमपंथियों की पनाहगाह
11 सितंबर 2001 के हमले के बाद अमेरिका ने जब अफगानिस्तान पर हमला किया तो वहां से भाग कर तालिबान और अल कायदा के चरमपंथियों ने इसी इलाके में शरण ली. तहरीक ए तालिबान का यहीं जन्म हुआ.
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ड्रोन हमले
अमेरिका ने कई बरस तक इस इलाके में ड्रोन हमलों के जरिए चरमपंथियों को निशान बनाया. हालांकि पाकिस्तान हमेशा ऐसे हमलों को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन करार देता रहा.
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पाकिस्तान सरकार के दावे
पाकिस्तान सरकार दावा करती है कि इस इलाके में आतंकवादी ठिकाने खत्म कर दिए गए हैं. हालांकि अमेरिका कहता है कि अफगानिस्तान में नाटो और अफगान बलों पर हमले करने वाले चरमपंथी अब भी फाटा को इस्तेमाल कर रहे हैं.
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2009 में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की सरकार ने ना सिर्फ इस इलाके का नाम बदलकर फिर से गिलगित बल्तिस्तान कर दिया बल्कि उसे कुछ हद तक स्वायत्ता दी गई. उसकी अपनी असेंबली बनी और अपना मुख्यमंत्री भी. हालांकि आलोचक कहते हैं कि स्वायत्ता सिर्फ दिखावे की थी क्योंकि असली सत्ता मुख्यमंत्री के हाथ में नहीं, बल्कि पाकिस्तान की संघीय सरकार की तरफ से नियुक्त सदस्यों की एक काउंसिल और गवर्नर के हाथ में थी.
अब इस इलाके को वे सभी अधिकार देने की बात हो रही है, जो पाकिस्तान के अन्य चारों प्रांतों पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तून ख्वाह के पास हैं. इस बारे में पिछले दिनों गिलगित बल्तिस्तान ऑर्डर 2018 मंजूर किया गया, लेकिन इस पर ना सिर्फ भारत ने सख्त नाराजगी जताई है बल्कि इस इलाके के लोगों को भी यह ऑर्डर गले नहीं उतर रहा है.
भारत ने दिल्ली में पाकिस्तान के डिप्टी हाई कमिश्नर को तबल कर इस बारे में सख्त विरोध दर्ज कराया है. भारत का कहना है कि गिलगित बल्तिस्तान का इलाका भी उस पूरे जम्मू कश्मीर राज्य का हिस्सा है जिसने 1947 में भारत में विलय का फैसला किया था. भारत ने गिलगित बल्टिस्तान के दर्जे में किसी भी तरह के बदलाव को गैर कानूनी करार दिया है. जवाबी कदम उठाते हुए पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने भी इस्लामाबाद में भारत के डिप्टी हाई कमिश्नर को तलब किया और भारत के बयान पर विरोध दर्ज कराया गया.
पाकिस्तान और इतना सुंदर, देखिए
पाकिस्तान.. और इतना खूबसूरत
दुनिया के खूबसूरत पर्यटन स्थलों की जब बात चलती है तो पाकिस्तान का शायद ही जिक्र हो. बेशक इसकी वजह वहां चरमपंथी खतरा है, लेकिन पाकिस्तान में कई ऐसी जगह हैं जिन्हें देख कर मुंह से यही निकलेगा, वाह.
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जन्नत
कश्मीर को धरती पर जन्नत का नाम दिया जाता है. इसका एक हिस्सा भारत के नियंत्रण में है तो दूसरा पाकिस्तान के. पूरे कश्मीर में ऐसे दिलकश नजारों की कमी नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
सबसे ऊंचा रणक्षेत्र
ये तस्वीर एक सैन्य हेलीकॉप्टर से ली गई है. ये पर्वत सियाचिन के हैं जिसे दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र कहते हैं. ये जगह पाकिस्तान में स्कारदू के करीब है.
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स्वात की सुंदरता
ये है पाकिस्तान की स्वात घाटी, जो तालिबानी चरमपंथियों को लेकर कई साल से सुर्खियों में रही है. लेकिन कुदरत ने यहां खूबसूरती दिल खोल लुटाई है.
तस्वीर: Adnan Bacha
पूर्व का स्विट्जरलैंड
स्वात का इलाका इस कदर खूबसूरत है कि जब ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ ने यूसुफजई स्टेट ऑफ स्वात का दौरा किया तो उन्होंने इसे पूर्व का स्विट्जरलैंड कहा था.
तस्वीर: Adnan Bacha
व्हाइट पैलेस
स्वात जिले में ही मिंगोरा शहर से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है व्हाइट पैलेस. 1940 में इसका निर्माण उस समय हुआ जब स्वात एक रियासत हुआ करती थी. बताया जाता है कि ये उसी पत्थर से बना है जिससे ताजमहल बना.
तस्वीर: DW/A. Bacha
हरियाली और रास्ता
दूर तक फैली हरियाली और बुलंदियों को छूते पर्वत इस इलाके की पहचान हैं, लेकिन हाल के सालों में बार बार चरमपंथ के कारण यहां सैलानियों ने जाना छोड़ दिया है.
तस्वीर: Adnan Bacha
शहद का दलदल
ये स्वात का गबीना जब्बा इलाका है, जिसका पश्तो भाषा में अर्थ होता है शहद का दलदल.
तस्वीर: DW/A.Bache
ये कहां आ गए हम..
यहां मधु मक्खियां बड़ी संख्या में पाई जाती हैं और यहां का शहद पूरे खैबर पख्तूनख्वाह प्रांत में मशहूर है. गबीना जब्बा में यूं ही दूर तक खुला आसमान दिखाई पड़ता है.
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जी नहीं भरेगा
यहां ऐसे नजारे हैं कि देखते रहिए लेकिन जी नहीं भरेगा. ये इलाका बहुत सी उपयोगी जड़ी बूटियों से भी मालामाल है. ऐसे में यहां कई तरह के शोध भी होते रहते हैं.
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चरमपंथ की मार
पाकिस्तान में चरमपंथ के कारण जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं उनमें देश का पर्यटन उद्योग प्रमुख है.
तस्वीर: DW/A.Bache
पानी रे पानी
घनी वादियां और उनसे निकलता निर्मल पानी. हर तरफ बिखरी ऐसी खूबसूरती किसी को भी अपनी तरफ खींच सकती है.
तस्वीर: DW/A.Bache
नंगा पर्वत
ये है उत्तरी पाकिस्तान में नंगा पर्वत जो दुनिया में नौंवा सबसे ऊंचा पर्वत है. इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 8,126 मीटर है. ये गिलगित बल्तिस्तान में है और इस इलाके पर भारत भी अपना दावा जताता है.
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आठ हजारी
नंगा पर्वत दुनिया के उन 14 पर्वतों में से एक है जिनकी ऊंचाई आठ हजार मीटर से ज्यादा है. कम ही लोग हैं जो इन पर्वतों पर चढ़ पाए हैं.
तस्वीर: dpa
सिंधु घाटी
ये नजारा है सिंधु घाटी का, जो पाकिस्तान के नॉर्दन एरियाज में है. पानी के बंटवारे को लेकर भारत और पाकिस्तान में सिंधु जल संधि है, लेकिन अब इस पर भी सवाल उठने लगे हैं.
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हवा में नफरत
अफगानिस्तान से लगने वाले पाकिस्तान के कबायली इलाके बहुत खूबसूरत हैं. लेकिन इस स्वच्छ आबोहवा में कई सालों से हिंसा और नफरत घुली है.
तस्वीर: DW/A. Bacha
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गिलगित बल्तिस्तान ऑर्डर 18 को लेकर विरोध पाकिस्तान के भीतर भी हो रहा है. गिलगित बाल्तिस्तान में विपक्षी पार्टियों का कहना है कि उनके इलाके को अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं बल्कि उन्हें सिर्फ छला जा रहा है. पाकिस्तानी पत्रकार सबूख सैयद कहते हैं, "नए ऑर्डर के तहत गिलगित बल्तिस्तान को संवैधानिक रूप से एक प्रांत का दर्जा नहीं दिया जा रहा है, बल्कि संविधान के 18वें संशोधन के तहत वे अधिकार दिए जा रहे हैं जो बाकी प्रांतों को मिले हुए हैं. लेकिन यहां के लोग चाहते हैं कि कानूनी और संवैधानिक तौर पर उन्हें देश के बाकी लोगों के बराबर माना जाए."
भले ही गिलगित बल्तिस्तान पर 70 साल से पाकिस्तान का नियंत्रण है लेकिन यहां रहने वाले लोगों को पूरी तरह पाकिस्तान का नागरिक नहीं माना जाता. पाकिस्तानी संविधान के आर्टिकल 1 में गिलगित बल्तिस्तान को पाकिस्तानी क्षेत्र का हिस्सा भी नहीं माना गया है, बल्कि उसे एक अलग दर्जा दिया गया है. पाकिस्तानी पत्रकार आतिफ तौकीर कहते हैं, "कानूनी रूप से गिलगित बल्तिस्तान कश्मीर के विवादित इलाके का हिस्सा है. इसलिए जब तक कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक पाकिस्तान के लिए गिलगित बल्तिस्तान को संवैधानिक रूप से अपना हिस्सा बनाना संभव नहीं होगा."
पाकिस्तानी सेना को ललकारता युवा पश्तून
02:17
कई विश्लेषक मानते हैं कि पाकिस्तान सरकार गिलगित बल्तिस्तान को अलग प्रांत बनाने की मांग को इसलिए भी खारिज करती रही है कि इससे कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के मुताबिक हल कराने की उसकी मांग कमजोर पड़ेगी. मौजूदा हालात में इस बात की संभावना नहीं दिखती कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक जनमत संग्रह के जरिए कश्मीर मुद्दा हल होगा. पाकिस्तानी नीति निर्माता समझते रहे हैं कि अगर कभी ऐसा हुआ तो गिलगित बल्तिस्तान के लोग उसके हक में मत देकर कश्मीर पर उसके दावे को मजबूत करेंगे. लेकिन अगर गिलगित बल्टिस्तान को अलग प्रांत बना दिया गया तो फिर वह कश्मीर विवाद से अलग हो जाएगा.
सबूख सैयद कहते हैं "गिलगित बल्तिस्तान के लोग अपने आपको कश्मीर का हिस्सा नहीं मानते और अपने आपको उससे अलग करके देखते हैं. वे कश्मीर से अलग अपनी एक पहचान चाहते हैं और गिलगित बल्तिस्तान को संवैधानिक रूप से पाकिस्तान का पांचवां प्रांत बनाने की मांग कर रहे हैं. वे पाकिस्तानी संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधित्व चाहते हैं. साथ ही उन्हें सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच और संघीय सरकार की तरफ से मिलने वाले आर्थिक फंड में हिस्सा चाहिए."
जानिए, क्यों दुर्दांत माना जाता है हक्कानी नेटवर्क
क्यों दुर्दांत माना जाता है हक्कानी नेटवर्क
अफगानिस्तान में तैनात विदेशी सेनाओं के लिए हक्कानी नेटवर्क सबसे बड़ा खतरा रहा है. आखिर हक्कानी नेटवर्क को इस इलाके में सबसे दुर्दांत आतंकवादी संगठन क्यों माना जाता है?
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सोवियत अफगान युद्ध का अवशेष
हक्कानी नेटवर्क का गठन जलालुद्दीन हक्कानी ने किया था जिसने अफगानिस्तान में 1980 के दशक में सोवियत फौजों से जंग लड़ी थी. उस समय मुजाहिदीन को अमेरिका का समर्थन हासिल था. 1995 में हक्कानी नेटवर्क तालिबान के साथ मिल गया और दोनों गुटों ने अफगान राजधानी काबुल पर 1996 में कब्जा कर लिया. 2012 में अमेरिका ने इस गुट को आतंकवादी संगठन घोषित किया.
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इस्लामी विचारक
1939 में अफगान प्रांत पकतिया में जलालुद्दीन हक्कानी का जन्म हुआ. उसने दारुल उलूम हक्कानिया से पढ़ाई की. इसे पाकिस्तान के बड़े धार्मिक नेता मौलाना समी उल हक के पिता ने 1947 में शुरू किया था. दारुल उलूम हक्कानिया तालिबान और दूसरे चरमपंथी गुटों के साथ अपने संबंधों के लिए जाना जाता है.
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तालिबान मंत्री बने जलालुद्दीन हक्कानी
तालिबान के शासन में जलालुद्दीन हक्कानी को अफगान कबायली मामलों का मंत्री बनाया गया. 2001 में अमेरिका के हमलों के बाद तालिबान का शासन खत्म होने तक वह इस पद पर था. तालिबान नेता मुल्ला उमर के बाद जलालुद्दीन को अफगानिस्तान में सबसे प्रभावशाली चरमपंथी माना जाता था. जलालुद्दीन के अल कायदा के नेता ओसामा बिन लादेन से भी गहरे संबंध थे.
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हक्कानी नेटवर्क कहां है
रक्षा मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि इस गुट का कमांड सेंटर अफगान सीमा से लगते पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान के मीरनशाह शहर में है. अमेरिकी और अफगान अधिकारियों का दावा है कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की सेना का समर्थन है हालांकि पाकिस्तानी अधिकारी इससे इनकार करते हैं. अमेरिका का कहना है कि इस गुट के लड़ाकों ने अफगानिस्तान में विदेशी सेना, स्थानीय फौज और नागरिकों पर हमले किये हैं.
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हक्कानी विरासत
माना जाता है कि 2015 में जलालुद्दीन हक्कानी की मौत हो गयी लेकिन इस गुट ने पहले इस तरह की खबरों को खारिज किया. नेटवर्क का नेतृत्व अब जलालुद्दीन के बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथ में है. सिराजुद्दीन तालिबान का भी उप प्रमुख है.
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सिराजुद्दीन हक्कानी कौन है?
इस बारे में बहुत पुख्ता जानकारी तो नहीं लेकिन जानकारों का कहना है कि उसने अपना बचपन पाकिस्तान के मीरनशाह में बिताया है. पेशावर के उपनगर में मौजूद दारुल उलूम हक्कानिया में पढ़ाई की है. सिराजुद्दीन को सैन्य मामलों का जानकार माना जाता है. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि सिराजुद्दीन वैचारिक रूप से अपने पिता की तुलना में ज्यादा कट्टर हैं.
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अनास हक्कानी को मौत की सजा
अनास हक्कानी जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा है. उसकी मां संयुक्त अरब अमीरात से है. अनास फिलहाल अफगान सरकार की गिरफ्त में है और उसे मौत की सजा सुनायी गयी है. हक्कानी नेटवर्क ने अनास को फांसी की सजा होने पर अफगानिस्तान को कड़े नतीजे भुगतने की चेतावनी दी है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/National Directorate of Security
कितना बड़ा है हक्कानी नेटवर्क
अफगान मामलों के जानकार और रिसर्च संस्थानों का कहना है कि इस गुट के साथ तीन से पांच हजार लड़ाके हैं. नेटवर्क को मुख्य रूप से खाड़ी के देशों से धन मिलता है. हक्कानी नेटवर्क अपहरण और जबरन वसूली के जरिये भी अपने अभियानों के लिए धन जुटाता है.
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आतंकवादी गुटों से संबंध
हक्कानियों का क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी संगठनों जैसे कि अल कायदा, तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान, लश्कर ए तैयबा और मध्य एशियाई इस्लामी गुटों से अच्छा संबंध है. जलालुद्दीन हक्कानी ना सिर्फ बिन लादेन बल्कि अल कायदा के वर्तमान प्रमुख अयमान अल जवाहिरी के भी काफी करीब थे.
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नए ऑर्डर के अनुसार जो शक्तियां अब तक गिलगित बल्टिस्तान काउंसिल के पास थीं, उन्हें एक चुनी हुई असेंबली को सौंपा जाएगा. इस असेंबली को कानून बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार दिया जाएगा. साथ ही वहां पर सिविल सर्विस और अदालती ढांचा तैयार करने का वादा भी किया गया है. लेकिन ऑर्डर का विरोध करने वाले इन सब अधिकारों को नाकाफी मानते हैं. सबूख सैयद के मुताबिक, "इलाके के लोग कहते हैं कि यह जो हमें चीजें दी जा रही हैं वे पीनट्स हैं क्योंकि हमें अधिकार तो दिए जा रहे हैं, लेकिन संवैधानिक तौर पर स्वीकार नहीं किया जा रहा है."
पत्रकार आतिफ तौकीर कहते हैं कि नए ऑर्डर में गिलगित बल्तिस्तान को अधिकार देने की बात बड़े जोर शोर से की गई है, लेकिन इसके बावजूद वहां पाकिस्तान की सरकार का दखल बना रहेगा. वह बताते हैं, "गिलगित बल्तिस्तान में बनने वाले किसी भी कानून या नियम को पाकिस्तान का प्रधानमंत्री खारिज कर सकता है जबकि प्रधानमंत्री की तरफ से जाने वाले निर्देशों को गिलगित बल्तिस्तान की सरकार और असेंबली को मानना ही होगा." यही नहीं, गिलगित बल्तिस्तान में नौकरियों के लिए पाकिस्तान का कोई भी नागरिक आवेदन कर सकता है जबकि इस इलाके के लोगों को बाकी जगहों पर इस तरह आवेदन करने की अनुमति नहीं होगी क्योंकि वे संवैधानिक रूप से पाकिस्तान के नागरिक ही नहीं हैं.
गिलगित बल्तिस्तान की मौजूदा असेंबली में पाकिस्तानी पीपल्स पार्टी, तहरीक ए इंसाफ और आवामी एक्शन कमेटी जैसी पार्टियों के सदस्य इस ऑर्डर को मौजूदा स्वरूप में कबूल करने को तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि यह ऑर्डर गिलगित बल्तिस्तान लोगों को अधिकार दे नहीं रहा है बल्कि अधिकार छीन रहा है. उनके मुताबिक इससे इलाके के लोग पाकिस्तान की सरकार से और दूर होंगे.
पाकिस्तान में इस हाल में रहते हैं अफगान
पाकिस्तान में इस हाल में रहते हैं अफगान
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पास आई-12 नाम की जगह पर अफगान शरणार्थियों की बस्ती है. वहां रहने वाले कुछ लोगों से डीडब्ल्यू ने पूछा कि क्या वे पाकिस्तान में खुश हैं?
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रहना मुश्किल है
इस बस्ती में लगभग 700 अफगान परिवार रहते हैं. ये हैं समी गुल, जो पिछले 37 साल से पाकिस्तान में रह रहे हैं. पिछले छह साल उनके इसी बस्ती में गुजरे हैं. वह कहते हैं कि यह बस्ती बहुत बुरे हाल में है और बारिश के मौसम में यहां पानी भर जाता है. इस बस्ती से पक्की सड़क भी बहुत दूर है.
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बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं
गुला गाई बस्ती में रहने वाले लोग पीने के पानी की समस्या से दोचार हैं. इसके अलावा अगर कोई गंभीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे अस्पताल ले जाने पर ही 1000-1200 खर्च हो जाते हैं, जो कई लोगों के बस में नहीं होता. ऐसे में, कई लोग बीमार होने पर घरों में ही पड़े रहते हैं.
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अफगानिस्तान वापसी मुश्किल
अब्दुल जब्बार पाकिस्तान में 35 साल से रह रहे हैं. वह कहते हैं कि अफगानिस्तान में हालात अच्छे नहीं हैं इसीलिए वह चाहते हैं कि 12 सदस्यों वाले उनके परिवार का पाकिस्तान में ही कोई स्थायी बंदोबस्त हो जाए. आज भी वह अपनी पहचान एक अफगान नागरिक के तौर पर ही मानते हैं.
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बहुत मुहब्ब्त मिली
शेर खान सात बरस की उम्र में अफगानिस्तान से पाकिस्तान आ गए थे. अब उनकी उम्र 47 बरस है. खान कहते हैं कि पाकिस्तान ने उनको बहुत मुहब्बत दी है. यहीं उनके माता पिता ने आखिरी सांस ली. खान का कहना है कि वह पाकिस्तान में ही पले बढ़े हैं इसीलिए वह खुद को अफगान नहीं, बल्कि पाकिस्तानी महसूस करते हैं.
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मेरी पहचान पाकिस्तानी है
हमीद खान 34 साल से पाकिस्तान में रह रहे हैं. वह कहते हैं कि हालांकि उनकी पैदाइश अफगानिस्तान में हुई, लेकिन उन्होंने अपनी लगभग पूरी उम्र पाकिस्तान में ही गुजारी है और इसीलिए एक पाकिस्तानी के तौर पर उन्हें अपनी पहचान से कोई दिक्कत नहीं है. वह कहते हैं कि पाकिस्तान ने शरण दी, अच्छा सुलूक किया और बहुत कुछ दिया.
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युवाओं के लिए मौके नहीं
युवा नासिर खान इस बस्ती में बुनियादी सुविधाओं की कमी से खफा हैं. वह पाकिस्तान में ही रहना चाहते हैं लेकिन कहते हैं कि युवाओं के लिए यहां मौकों की कमी है. वह चाहते हैं कि बस्ती में कम से कम कुछ निर्माण कार्य हो, सड़कें बनाई जाएं ताकि रहन सहन में आसानी हो.
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बच्चे क्या करें
पाकिस्तान में रहने वाले अफगान शरणार्थियों की संख्या इस समय 14 लाख के आसपास है. इस बस्ती में 700 परिवारों के बच्चों के लिए सिर्फ एक स्कूल है. बच्चों के लिए खेलने के लिए न तो कोई मैदान है और न ही कोई और सुविधा. ऐसे में, ये बच्चे कीचड़ में खेलकर दिल बहला लेते हैं.
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स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
इस बस्ती में वैसे तो तीन क्लीनिक हैं, जिनमें से एक जर्मन संस्थाओं की मदद से चलता है. लेकिन इन क्लीनिकों में डॉक्टर हमेशा मौजूद नहीं रहते. खास कर बरसात और सर्दी के मौसम में इस बस्ती में रहने वाले लोगों को बहुत परेशियानियां होती हैं.