उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जबरदस्त विजय के परिणाम दूरगामी होंगे. तीन बातें इन चुनावों से बहुत साफ हो गयी हैं.
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पहली, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब भी लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं. दूसरी, मुसलमानों के बिना भी प्रदेश में सरकार बनायी जा सकती है, और तीसरी जाति और धर्म अभी भी प्रभावी हैं. भाजपा की जीत में हमेशा की तरह मुसलमान वोट का बंटना भी सहायक रहा.
परिणाम अप्रत्याशित नहीं कहे जा सकते बल्कि एसपी और बीएसपी ने दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ी. पिछली बार 2012 में भाजपा 47 सीट जीती थी और उसका 15 प्रतिशत वोट शेयर था. इस बार उसका वोट शेयर 40 प्रतिशत के पार जा रहा है. एसपी ने 2012 में 224 सीट जीती थी और उसका वोट शेयर 29.13 प्रतिशत था जो अब घट कर 22 प्रतिशत रहने की उम्मीद हैं.
बीएसपी ने पिछली बार 80 सीटें जीती थीं और उसका वोट शेयर 25.91 प्रतिशत था जो अब गिर कर 21.90 प्रतिशत हो रहा है. कांग्रेस ने 2012 में 28 सीटें जीती थी और उसे 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार लगभग आधे रहने की उम्मीद है. भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में अपने शानदार प्रदर्शन को लगभग बरकरार रखा जब उसे 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे.
भारत से प्यार हो जाएगा
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में 1 अरब से भी ज्यादा लोग रहते हैं. इस विशाल देश की कुछ खास बातें जानिए. हमारा दावा है कि इन्हें जानने के बाद आपको भारत से एक बार फिर से प्यार हो जाएगा.
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शांतिप्रिय
भारत ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया.
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दिमागी कसरत
शतरंज की खोज भारत में हुई थी.
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अध्ययनशील
अल्जेब्रा, ट्रिग्नोमेट्री और कैलकुलस का अध्ययन भारत में शुरू हुआ.
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देता ना दश्मलव भारत तो
दशमलव की खोज भारत में 100 ईसा पूर्व में हुई.
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निर्माता
ग्रेनाइट से बनी दुनिया की पहली इमारत तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर है.
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खेल खेल में
सांप-सीढ़ी खेल की खोज 13वीं सदी में संत ज्ञानदेव ने की थी.
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ऊंचाइयां
दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट ग्राउंड भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश के चैल में है.
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विशालकाय
दुनिया में सबसे ज्यादा डाकखाने भारत में हैं.
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पहली यूनिवर्सिटी
दुनिया की पहली यूनिवर्सिटी 700 ईसा पूर्व भारत के तक्षशिला में बनी.
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हर धर्म से प्यार
भारत में तीन लाख मस्जिदें हैं, दुनिया के किसी भी मुल्क से ज्यादा.
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विभिन्न दलों के हार जीत के अलग कारण रहे. एक नजर विभिन्न पार्टियों के कारणों पर.
बीजेपी
इस चुनाव में ध्रुवीकरण तीन तरह से दिखा: सांप्रदायिक, जातिगत और आर्थिक. अपने सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी के साथ बीजेपी चुनाव में उतरी. एक बात विपक्षी भी मानते हैं कि मोदी जैसा वक्ता इस समय कोई नहीं है.
कैराना पलायन, बूचड़खाने, रमजान-दिवाली में बिजली का आना, कब्रिस्तान और श्मशान जैसे मुद्दे सामने लाये गये. उसके बाद अमित शाह का कसाब वाला बयान भी आ गया. इस सबसे ज्यादा फर्क इस वजह से नहीं पड़ने वाला था क्योंकि मुसलमान यूं भी बीजेपी को वोट नहीं देता लेकिन इसने ध्रुवीकरण को जिंदा रखा.
सबसे बड़ी बात जो बीजेपी की जीत में सहायक हुई वो है जातिगत गोलबंदी. उत्तर प्रदेश में जाति का हमेशा से बोलबाला रहा है. बीजेपी ने इत्मीनान से गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित को निशाने पर लिया. इसके लिए अगर उसे दल बदलुओं को टिकट देना पड़ा तो भी परहेज नहीं किया.
प्रदेश में पार्टी की कमान केशव मौर्या को दी गयी जो खुद पिछड़े समुदाय से हैं. इसके अलावा 70 से अधिक जातियों वाले एक अलग अति पिछड़े समुदाय को अपने पाले में किया गया. बीजेपी के गठबंधन भी इसी ओर रहे. राजभर समुदाय की पार्टी भारतीय समाज पार्टी और कुर्मियों के समर्थन वाले अपना दल (सोनेलाल) के लिए सीटें छोड़ी गयीं.
भारतीय राजनीति के प्रमुख खिलाड़ी
भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार लोक सभा में बहुमत के बावजूद संसद में अपने कानूनों को पास करवाने में मुश्किल झेल रही है. विपक्ष को राजी करवाने में विफलता ने बीजेपी सरकार की प्रतिष्ठा और प्रधानमंत्री के रुतबे को कम किया है.
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नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की मुख्य चुनौती चुनाव में किए गए अपने वादों को पूरा करना है. वे देश को विकास के रास्ते पर लाने के लिए अपनी नीतियों के लिए संसद की मंजूरी चाहते हैं.
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सोनिया गांधी
संसद में बीजेपी को पर्याप्त बहुमत नहीं है. लोक सभा में उसे बहुमत पाने में कामयाबी मिली लेकिन प्रातों में मजबूत नहीं होने के कारण राज्य सभा में कांग्रेस अभी भी उसे रोक सकने की हालत में है.
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राहुल गांधी
कांग्रेस पार्टी अपनी इसी शक्ति का इस्तेमाल राज्य सभा में विधेयकों को रोकने में कर रही है. लोक सभा में सिर्फ 44 सांसदों वाली कांग्रेस बाधा डालने की रणनीति अपना रही है. बीजेपी भी पहले ऐसा कर चुकी है.
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सुषमा स्वराज
विदेश मंत्री भ्रष्टाचार कांडों में देश से भागे क्रिकेट प्रशासक ललित मोदी के लिए ब्रिटेन की सरकार को पत्र लिखकर फंस गई हैं. कांग्रेस संसद को चलने देने के लिए उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ी है.
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अरुण जेटली
प्रधानमंत्री के विपरीत केंद्रीय वित्त मंत्री दिल्ली के हैं और सत्ता प्रतिष्ठान को जानते हैं. राज्य सभा के नेता होने के नाते वे सरकार और विपक्ष के बीच सुलह में अहम भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन अब तक नाकाम रहे हैं.
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मुलायम सिंह यादव
समाजवादी पार्टी के नेता उत्तर प्रदेश में बीजेपी का विरोध कर सत्ता में आए हैं लेकिन केंद्र की सरकार की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते. उन्होंने सदन में चर्चा का पक्ष लिया है और मोदी की तारीफ पाई है.
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ममता बनर्जी
कम्युनिस्टों को कमजोर करने के बाद बंगाल के मुख्यमंत्री की चुनौती बीजेपी है जो प्रदेश में अपना आधार बढ़ाने में लगी है. केंद्र सरकार ने वित्तीय घोटाले में उसके सांसदों और विधायकों पर नकेल कस रखी है.
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जयललिता
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों में काफी समय जेल में रही हैं. हाईकोर्ट से राहत पाकर वे फिर से सत्ता में अपनी स्थिति मजबूत कर रही हैं. केंद्र सरकार से वे कोई पंगा लेने की हालत में नहीं हैं.
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लालू यादव
मुख्यमंत्री के रूप में आरजेडी नेता ने बीजेपी के धार्मिक अभियान को रोकने की हिम्मत दिखाई थी और अल्पसंख्यकों का भरोसा जीता था. बिहार चुनाव जीतने के लिए वे बीजेपी विरोध की अपनी छवि भुना रहे हैं.
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नीतीश कुमार
बिहार के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मोदी की हरेक बात का विरोध कर रहे हैं. बिहार में इस साल विधान सभा चुनाव होने वाले हैं जिसमें उनकी कुर्सी और राजनीतिक भविष्य, तो प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है.
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वेंकैया नायडू
संसदीय कार्य मंत्री की भूमिका संसद में सभी दलों के बीच सुलह कराने की होती है. लेकिन उन्होंने दबाव की नीति के तहत विपक्ष पर आरोपों की झड़ी लगाकर सुलह की संभावना को कम ही किया है.
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नोटबंदी को विपक्ष चाह कर भी मुद्दा नहीं बना पाया. बल्कि इससे लोग बीजेपी के करीब आ गए क्योंकि ये राष्ट्रहित में उठाया गया कदम माना गया. आम लोगों ने भी अपनी परेशानी को चुनाव में नहीं जाहिर होने दिया.
इस सबके अलावा मोदी का कौशल सब पर भारी रहा. अपने ऊपर हुए हमलों को उन्होंने ढाल बना लिया. लाख आक्रमण के बावजूद वो बनारस में डटे रहे. चुनाव को उन्होंने अपने ऊपर केंद्रित कर लिया और जाहिर हैं उनके सामने टिकने की अभी किसी की हैसियत नहीं थी.
समाजवादी पार्टी
भले सब कहें कि समाजवादी पार्टी में हुई उठापटक ने अखिलेश यादव को कमजोर कर दिया लेकिन हुआ है इसका ठीक उल्टा. एसपी की लड़ाई में अखिलेश मजबूत और दमदार हो गए, पार्टी उनके हाथ में आ गयी. वह साढ़े चार साल कमजोर मुख्यमंत्री की छवि से बाहर निकल आये. न ही उनका यादव वोट बैंक फिसला. बल्कि मुलायम को अब उनका वोटर सुनने को तैयार नहीं रहा, शायद इसी कारण किसी उम्मीदवार ने उनकी एक भी मीटिंग नहीं मांगी. लेकिन अखिलेश चुनाव में सफल नहीं हुए जिसके अलग कारण रहे.
अखिलेश ने लाख कोशिश की कि चुनाव में ध्रुवीकरण न हो और चुनाव घसीट कर विकास के मुद्दे पर ले जाये, लेकिन इसमें सफल नहीं हुए. अब भी उत्तर प्रदेश के लोगों के डीएनए में जाति और धर्म हावी हैं. अपनी चुनावी रणनीति में अखिलेश ने अपने कोर वोटर मुस्लिम से दूरी रखी, कहीं पर मुसलमान शब्द का नाम नहीं लिया, इससे मुसलमान भी बहुत उत्सुक नहीं हुआ. मुज़फ्फरनगर दंगे का असर रहा और एक बड़ी तादाद में मुसलमान इस वजह से उनसे हटा.
अखिलेश यादव: एक विनम्र बागी
उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में महीनों से जारी खींचतान का अंजाम आखिरकार पार्टी में फूट के रूप में सामने आया. इस संकट ने अखिलेश यादव को नई राजनीतिक पहचान और ताकत दी है.
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पिता से बगावत
स्वभाव से विनम्र अखिलेश यादव के लिए अपने पिता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ बगावत करना एक बड़ा फैसला है. अखिलेश ने अपने ट्वीट में इसे एक मुश्किल फैसला बताया.
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युवा नेतृत्व
अखिलेश यादव ने जब 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभाला, तो उनकी उम्र 38 साल थी. वह इस पद तक पहुंचने वाले सबसे युवा नेताओं में शामिल हैं.
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पढ़ाई लिखाई
अखिलेश यादव ने मैसूर यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. बाद में, वह पढ़ने के लिए ऑस्ट्रेलिया भी गए और यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी ने उन्होंने मरीन इंजीनियरिंग में मास्टर्स डिग्री की.
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सियासत में कदम
अखिलेश ने पहली बार सन 2000 में सियासत में कदम रखा, जब वह कन्नौज से उपचुनाव जीतकर 13वीं लोकसभा के सदस्य बने.
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सूबे की कमान
2012 में अखिलेश को उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया. उसी साल हुए चुनावों में पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और युवा अखिलेश ने बतौर मुख्यमंत्री राज्य की कमान संभाली.
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खींचतान
अखिलेश के मुख्यमंत्री बनते ही पार्टी में खींचतान की खबरें आने लगीं. इस खींचतान में एक छोर पर अखिलेश थे और दूसरी तरफ उनके चाचा शिवपाल यादव. अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने बेटे की बजाय अपने भाई का साथ दिया.
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रास्ते हुए जुदा
2017 के पहले दिन लखनऊ में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष चुना गया. लेकिन उनके पिता ने इसे गैर कानूनी बताया. अखिलेश पर पिता का तख्तापलट करने के आरोप लगे और पार्टी दो फाड़ हो गई.
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अपने दम पर
युवा अखिलेश साफ छवि के नेता माने जाते हैं. बतौर मुख्यमंत्री उनके कामों की सराहना भी होती है. लेकिन आने वाले चुनाव उनकी पहली बड़ी परीक्षा है. सबकी नजरें इस बात पर टिकी होंगी कि पिता के बिना उनका राजनीति करियर क्या करवट लेगा.
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युवाओं का साथ
माना जाता है कि पार्टी के बहुत से युवा कार्यकर्ताओं का समर्थन अखिलेश यादव को है. लेकिन चुनावों में जीत के लिए पार्टी में अंदरुनी संकट झेल चुके अखिलेश को भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की चुनौतियों का भी सामना करना है.
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परिवार
24 नवंबर 1999 को अखिलेश यादव ने डिंपल (तस्वीर में बायें से तीसरी) से शादी की, जो साल 2012 से कन्नौज लोकसभा सीट से सांसद भी हैं. अखिलेश और डिंपल यादव के दो बेटियां और एक बेटा है.
तस्वीर: DW/S. Waheed
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अखिलेश के लिए सबसे कमजोर कड़ी खराब कानून व्यवस्था साबित हुई. डायल 100 तब शुरू हुई जब चुनाव चरम पर था. इससे ज्यादा कवरेज तो गायत्री प्रजापति को मिली कि वह पकड़े नहीं गए. मोदी के हमलों का उनके पास कोई जवाब नहीं रहा. कई बार प्रेस कांफ्रेंस की लेकिन हालात संभल नहीं पाए. अखिलेश के कांग्रेस से गठबंधन पर सवाल उठेंगे लेकिन उससे कोई खास नुकसान नहीं हुआ. ये बात पहले ही तय थी कि वह अपना कोर वोट यादव और मुसलमान कांग्रेस को नहीं ट्रांसफर करवा पाएंगे और वही हुआ.
गठबंधन करके उन्होंने मुसलमानों के बिखराव को रोकने की कोशिश की. इसके अलावा अखिलेश ने चुनाव मैनेजर प्रशांत किशोर पर हद से ज्यादा भरोसा कर लिया. प्रशांत किशोर कोई करिश्मा नहीं कर पाए. एक बात छोटी सी, लेकिन घाव गहरा कर गयी. अखिलेश और उनके परिवार की छवि ऐसी बन गयी कि वो नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति नरमी रखते हैं. मोदी का सैफई में शादी में आना और रामगोपाल का भाजपा के नेताओं से मिलना, इन बातों ने गैर भाजपाई वोटर खासकर मुसलमानों में उनके भ्रम को तोड़ दिया.
अखिलेश ने अपने लगभग 175 पुराने विधायक और मंत्रियों को टिकट दे दिया और ज्यादातर हार गए, कोई बदलाव शायद पक्ष में जाता. अब आगे अखिलेश को पार्टी नहीं बल्कि अपनी कुर्सी बचानी होगी, सपा के परिवार कर झगड़ा फिर शुरू होने जा रहा है और अखिलेश को फिर एक बार सबसे निपटना होगा. ध्यान रहे इस बार वो सत्ता से बाहर हो कर सबसे लड़ेंगे.
बहुजन समाज पार्टी
एकला चलो की रणनीति पर काम करते हुए बीएसपी ने सभी 403 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा. मायावती बदली नहीं, बल्कि बहुत बदलीं. पार्टी में सौम्य हो गयीं और खुल कर मुस्लिम कार्ड खेला. सबसे ज्यादा टिकट मुस्लिम को दिए, जातिगत समीकरण साधने की कोशिश की. सोशल मीडिया, इलेक्शन सांग, विजुअल्स, प्रोमो भी खूब चलाये. बहुत ज्यादा प्रेस कांफ्रेंस की, नरेंद्र मोदी पर सीधे सबसे अधिक हमलावर रहीं. लेकिन वो कई जगह फेल हो गयी.
दलितों में गैर जाटव विमुख रहा, ओबीसी उनकी तरफ आया नहीं. मौर्या, शाक्य और सैनी जैसी कई जातियां स्वामी प्रसाद मौर्या सरीखे नेताओं को पार्टी से बाहर करने से हट गयीं. सवर्ण खासकर ब्राह्मण इस बार करीब नहीं फटके. इसके अलावा मायावती के सबसे मजबूत पक्ष बेहतर कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग गया, जब मुख्तार अंसारी को शामिल कर किया.
अब मायावती के आगे बहुत बड़ी चुनौती है कि अपनी पार्टी की कम होती साख और लोकप्रियता को दोबारा वापस पायें. दलितों का भी रुझान अब उनसे विमुख हो रहा है ऐसे में अब नए सिरे से उन्हें कवायद करनी होगी.
कांग्रेस
इनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था, न ही जमीन और न ही वोट. सीटें भले कम हो गयी लेकिन कांग्रेस दशकों बाद इस चुनाव में छाई रही. कारण रहा सपा से गठबंधन. लखनऊ में कहावत हैं कांग्रेस के पास प्रदेश में नेता ज्यादा और कार्यकर्ता कम हैं. गठबंधन भी इसी कारण रहा. हालत ये रही की 105 सीटों पर लड़ने लायक उम्मीदवार नहीं मिले और सपा से उधार लेने पड़े. जब कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था तो हार का गम भी नहीं है.