इस्राएल के साथ अरब देशों की डील, ट्रंप को कितना फायदा?
इनेस पोल
१६ सितम्बर २०२०
विदेश नीति अमेरिकी चुनावों में कभी बड़ा मुद्दा नहीं रही है. लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इस्राएल के साथ संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन की डील कराकर आगामी चुनावों में अपनी नैया पार लगाना चाहते हैं.
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अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में 50 दिन से भी कम समय बचा है. ऐसे में इस्राएल के साथ समझौतों पर संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे अरब देशों के दस्तख्त राष्ट्रपति ट्रंप को फायदा पहुंचाएंगे. सियासत में आने से पहले मीडिया शख्सियत रहे ट्रंप को अच्छी तरह पता है कि किस तरह अपने इर्द गिर्द सत्ता का आभामंडल तैयार करना है. वह जानते हैं कि जब वह खुद को मुश्किल समय में चीजों को संभव बनाने वाले राजनीतिज्ञ के तौर पर अपने समर्थकों और संभावित मतदाताओं के सामने पेश करेंगे तो इसका उन पर क्या असर होगा.
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि बुनियादी दौर पर आर्थिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की गई इस डील में फलीस्तीनियों को पूरी तरह से अनदेखा किया गया है और इससे असल शांति समझौता और ज्यादा लटक गया है. अरब देशों का समूह लंबे समय तक फलस्तीनियों के साथ खड़ा रहा. लेकिन अब ऐसा कोई समर्थन नहीं बचा है.
ज्यादातर अमेरिकी कभी इतने असुरक्षित नहीं रहे, जितना अब महसूस कर रहे हैं. एक तरफ घातक वायरस है तो दूसरी तरफ बड़ी आर्थिक दिक्कतें. इसके अलावा वेस्ट कोस्ट के बड़े हिस्से में जंगलों में बहुत बड़े पैमाने पर आग भड़की है.
डर की वजह से बहुत से अमेरिकियों के पास इतना समय ही नहीं है कि आलोचनात्मक नजरिए से चीजों को देख पाएं. वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि इन सभी संकटों का ट्रंप के पहले कार्यकाल से क्या लेना देना है, बल्कि वे तो उस आदमी को चार साल का एक और कार्यकाल देना चाहते हैं जो अपनी सफलता की प्राथमिकताएं तय करता है. वे ट्रंप को ऐसा आदमी समझ रहे हैं जिसने दुनिया को दिखा दिया है कि सब कुछ उनके नियंत्रण में है और जो अमेरिका को फिर से उसकी मुनासिब जगह दिला रहा है.
इसलिए मंगलवार को इस्राएल के साथ यूएई और बहरीन की डील का समारोह बिल्कुल सही समय पर हुआ है. ऐसे ही दिनों पर 74 साल के ट्रंप अपने सबसे ज्यादा आलोचक मतदाताओं को भी दिखा देना चाहते हैं कि उनके पास ताकत है. हो सकता है कि यह ट्रंप के डेमोक्रेट प्रतिद्वंद्वी 77 साल के जो बाइडेन को कमजोर दिखाने लगे.
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]