इस्लाम से फ्रांस के रिश्ते के अभी कई इम्तिहान हैं
१ जनवरी २०२१फ्रेंच समाज में इस्लाम की क्या भूमिका है? फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने लंबे समय से विवादित रहे इस मुद्दे पर नई बहस छेड़ दी है. अक्टूबर में दो भयानक हमलों के बाद इस्लामी चरमपंथ एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है. हालांकि 2020 में जो मुद्दे उठे हैं, उन पर बहुत पहले से चर्चा होती रही है. ऐसे में पूछा जा रहा है कि इस बार की बहस से क्या कोई समाधान निकलेगा?
माक्रों का बदला रुख
साल 2020 में फ्रांस एक बार फिर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ अपने संबंधों को लेकर विवाद में घिरा. यह लड़ाई कहीं खत्म होगी, क्या इसका किसी तरह से कोई समाधान निकलेगा? फ्रांस के इतिहास से यह मुद्दा बहुत लंबे समय से जुड़ा है. खासतौर से मुस्लिम बहुल उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका में फ्रांस के औपनिवेशिक इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम के जख्मों की इसमें भूमिका है. इन देशों से फ्रांस की फैक्ट्रियों में काम करने आए लोगों को भी यहां कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इन उद्योगों का जब पतन हुआ तो कामगारों का एक बड़ा तबका उपनगरों की खराब सुविधाओं और बदहाल व्यवस्थाओं के बीच फंस गया. श्रम बाजारों में भेदभाव से परेशान युवा कठोर और भेदभाव करने वाली पुलिस व्यवस्था के कारण और अलग थलग पड़ गए.
1990 के दशक में अल्जीरियाई गृह युद्ध से जुड़े आतंकी हमले और पूरे इस्लामिक जगह में पुनर्जीवित हुई फ्रांस की धार्मिकता ने भेदभाव, आप्रवासन, राष्ट्रीय पहचान और धर्मनिरपेक्षता से जुड़ी दलीलों को और ज्यादा संवेदनशील बना दिया. शायद यह थोड़ा हैरान करने वाला है कि इस बार इस मुद्दे को सामने लाने वाले फ्रेंच राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों 2017 के चुनाव से पहले तक बड़ी कठोरता से उन लोगों की आलोचना करते थे जो उनके मुताबिक देश के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का इस्तेमाल "इस्लाम के खिलाफ हमले" के लिए करते हैं.
हालांकि समय बदला. अक्टूबर में पेरिस के उपनगर में एक भाषण के दौरान माक्रों ने एलान किया कि फ्रांस को इस्लामी अलगाववाद से लड़ना होगा और "सारे मुसलमानों को कलंकित करने के जाल" में फंसने से भी बचना होगा. एक नए कानून के मसौदे में उन उपायों का जिक्र है जिनका मकसद बच्चों को भूमिगत धार्मिक स्कूलों में जाने और धार्मिक संस्थाओं को संदिग्ध विदेशी संस्थाओं से मदद लेने और इन्हें चरमपंथियों के हाथ में जाने से रोकना है.
अलगाववादी समानांतर समाज
आधिकारिक मान्यता वाले काउंसिल ऑफ इस्लामिक ऑर्गनाइजेशंस को इस बात के लिए मनाया जा रहा है कि वह इमामों के लिए प्रमाणपत्र देने की योजना शुरू करे. माक्रों को लगता है कि इस्लामी समस्याओं से घिरे शहरी इलाकों में रहने वाले आप्रवासी मूल के लोगों के साथ एक "अलगाववादी" समानांतर समाज बनाना चाहते हैं. माक्रों की योजना में इसी से निपटने पर पूरा ध्यान दिया गया है.
माना जाता है कि माक्रों के कुछ प्रस्तावों की प्रेरणा इंस्टीट्यूट मोंटेग्ने के हाकिम अल कारुई की रिसर्च से मिली है. हाकिम अल कारुई का कहना है कि फ्रेंच मुसलमानों में एक चौथाई लोगों के साथ सचमुच समस्या है. इनमें से बहुत सारे युवा हैं, "जो इस्लाम को बहुत कठोर निरंकुशता के साथ अपनी पहचान बनाना चाहते हैं." समाचार एजेंसी डीपीए से बातचीत में उन्होंने कहा, "आक्रामक अलगाववाद में 50 हजार या एक लाख लोग शामिल हैं, लेकिन 'फ्रांस हमें प्यार नहीं करता और हमें अपने अंतर को मजबूती से रखना है' ऐसी सोच रखने वाले मुसलमान तकरीबन 10 लाख हैं." अल कारुई का कहना है कि इस तरह धार्मिक पहचान को मजबूती से सामने रखने का चलन दूसरे धर्मों में भी उभर रहा है: यही बात यहूदी समुदाय में भी देखी जा सकती है. इवैंजेलिक ईसाई समुदाय भी समस्या वाले शहरी इलाकों में तेजी से फैल रहे हैं.
हालांकि 2015-16 में 230 लोगों की जान लेने वाले इस्लामी आतंकवाद का इतिहास बताता है कि मुसलमानों में इसकी अभिव्यक्ति बहुत ज्यादा संवेदनशील मसला है. फ्रेंच नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च के रिसर्चर मारवान मोहम्मद भी दूसरे धर्मों में "अलगाव के प्रकारों" की ओर इशारा करते हैं. इसके साथ ही एक बड़ा तबका अमीर आबादी का है "जो समाज के बाकी लोगों से ज्यादा मेलजोल नहीं रखना चाहता."
ज्यादा खुलापन
हालांकि संख्या को लेकर वो कुछ संदेह जताते हैं. फ्रेंच मुसलमानों में "समाज के बाकी लोगों के प्रति किसी तरह की दुर्भावना" या फिर कहें कि "जिहादियों से सहानुभूति" रखने वालों की "असाधारण रूप से एक बहुत छोटी संख्या" है जो आमतौर पर बाकी मुस्लिम समुदाय से अलग थलग रहते हैं. उनका यह भी कहना है कि लोगों से धार्मिक कानूनों को देश के कानून से ऊपर रखने के बारे में किए सर्वे से भी बहुत अनुमान लगाना सही नहीं है. उनके मुताबिक हम जानते हैं कि किसी भी पक्के समर्थक के लिए निश्चित रूप से जो पवित्र है वह बेहद जरूरी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि... आप देश के कानून या समाज के दूसरे घटकों को खारिज कर देंगे.
अमेरिका मीडिया की इस दलील को फ्रांस बड़े गुस्से से खारिज कर देता है कि वह धर्म के रूप में इस्लाम के प्रति दमनकारी रुख अपना रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि दूसरे यूरोपीय देशों की तुलना में फ्रांस में यह मुद्दा क्यों इतना विवादित है. फ्रांस में बहुत लोग दलील देते हैं कि देश का धर्मनिरपेक्षता के प्रति जो रुख है उसे देश के बाहर ठीक से समझा नहीं गया है. हालांकि अल कारुई और मोहम्मद दोनों फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता के बजाय इसके एकीकरण के मॉडल की ओर ऊंगली उठाते हैं. कारुई की दलील है यह मॉडल एक बेहद खुलेपन का मॉडल है जिसमें भारी संख्या मिलीजुली शादियों की है. उन्होंने कहा कि यह बहुत ज्यादा मांग करने वाला मॉडल भी है. खासतौर से अंग्रेजी बोलने वाले देशों या फिर जर्मनी की तुलना में. कारुई बताते हैं: फ्रेंच समाज आप्रवासियों से कहता है,"अगर तुम औरों की तरह फ्रेंच बनना चाहते हो तो ... तुम्हें फ्रेंच जैसा बनना होगा."
अल कारुई का कहना है कि इस्लामवाद के बारे में माक्रों के सुझाए उपाय नपे तुले हैं और उनसे नाराजगी पैदा नहीं होनी चाहिए. हालांकि उन्होंने कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोगों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा, "ज्यादा जोखिम तो उसके साथ दिए जाने वाले उपदेशों से है." उनका कहना है, "जब भी किसी आस्थावान मुस्लिम महिला के हिजाब पहनने पर बवाल होता है तो मुसलमानों को यही लगता है कि हमारे साथ हमेशा यही होगा."
संस्कृति के चंगुल में मुसलमान
इसी बारे में मोहम्मद थोड़ा और आगे जा कर कहते हैं, असल भेदभाव के साथ ही व्यापक रूप से खारिज करने के उपदेश देने वालों के कारण फ्रेंच मुसलमान आसानी से चंगुल में फंस जाते हैं, यह इतना ज्यादा है कि उन्हें लगता है कि वो कहीं और इससे तो बेहतर ही रहेंगे वो चाहे ब्रिटेन हो, उत्तरी अमेरिका या फिर अरब देश.
उनका कहना है कि फ्रेंच समाज की इस्लाम के साथ एक "ऐतिहासिक समस्या" है. इसके बाद देश में "समावेशीवाद" की संस्कृति है जो पूरी तरह नागरिक बनने के लिए यह जरूरी बनाता है कि, "आप अपनी धार्मिक पहचान और रिवाजों को छोड़ें या फिर स्वाभाविक रूप से संबद्ध चीजों या धार्मिक या सांस्कृतिक जुड़ाव को छोड़ें."
अल कारुई का कहना है कि फ्रेंच इस्लाम के लिए एक बेहतर ढंग से काम करने वाला और ज्यादा पारदर्शी संगठन का होना जरूरी है, जो एकीकरण में मदद करेगा. धार्मिक संस्थाओं के नवीनीकरण से जिहादियों का अंत नहीं होगा. उनकी दलील है कि बहुत नीचे के स्तर से धर्मिक और वैचारिक प्रभावों पर काम करके उनसे निपटना होगा.
हालांकि यह काम कितना जटिल है इसका एक उदाहरण देखिए. सामाजिक कार्यकर्ताओं के गुट कलेक्टिव अगेंस्ट इस्लामोफोबिया इन फ्रांस यानी सीसीआईएफ ने आरोप लगाया कि राष्ट्रपति का भाषण, "स्पष्ट रूप से चरमपंथ से प्रेरित था और उसने फ्रांस के लोकतांत्रिक सिद्धांतों और बुनियादी आजादी पर सवाल उठाया है." इसके कुछ ही हफ्तों बाद स्कूल टीजर की हत्या के बाद जब सरकार ने कई संगठनों को बंद कर दिया तो उसमें सीसीआईएफ भी शामिल था.
संगठन पर गई गलत कामों के आरोप लगे. इनमें कट्टरपंथी इस्लामी लोगों से संपर्क रखने और पहले के आतंकवाद रोधी उपायों को इस्लामोफोबिक दिखा कर नफरत फैलाने के आरोप भी शामिल हैं. ये सारे आरोप विवादित हैं. कट्टरपंथी धर्मनिरपेक्ष लोगों ने इस कदम का स्वागत किया लेकिन कुछ घरेलू और देश के बाहर सक्रिय कुछ सामाजिक संगठनों ने इसकी आलोचना की. मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने तो इसे टीचर की हत्या की प्रतिक्रिया में "आजादी पर व्यापक हमले का हिस्सा" कहा.
एनआर/एके (डीपीए)
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