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इस बजट में इतना सस्ता खाना

१६ मार्च २०१२

दूधः 10 रुपये लीटर, चीनीः 20 रुपये किलो, चावल प्रति प्लेटः 1.55 रुपये, दालः 60 पैसे प्लेट, सब्जीः प्रति प्लेट 1.35 रुपये और मछली या चिकेनः 5.50 रुपये प्लेट. ये रेट सुन कर जज भी चकरा गए.

तस्वीर: DW

महंगाई के इस दौर में खाने पीने की चीजों के इतने कम रेट सुनकर झटका लगना स्वाभाविक है. पश्चिम बंगाल के सरकारी अस्पतालों में खाने पीने की चीजें रेट पर सप्लाई होती हैं. यह खाना अस्पताल के मरीजों को दिया जाता है. फल, अंडा और मांस वाले इस पौष्टिक आहार के लिए रोजाना एक मरीज के लिए सरकार 27 रुपये खर्च करती है. इसमें दो वक्त के भोजन के अलावा सुबह का भारी भरकम नाश्ता और शाम की चाय बिस्कुट भी शमिल है.

कलकत्ता हाई कोर्ट के जज ने यह रेट सुना, तो कुछ देर खामोश हो गए. उन्होंने सरकारी वकील से जानना चाहा कि देश में इस रेट पर कहां खाने पीने की चीजें मिलती हैं. और सप्लायर कैसे इतने कम पैसे में सप्लाई करते हैं. सरकारी वकील के पास कोई जवाब नहीं था. अदालत ने स्वास्थ सचिव से 16 मार्च तक इस मामले की रिपोर्ट मांगी है.

यह मामला तब सामने आया, जब अब्दुर रज्जाक नाम के सप्लायर ने शिकायत कर दी. रज्जाक लुंबिनी पार्क मानसिक अस्पताल समेत राज्य के कई अस्पतालों में भोजन सप्लाई करते हैं. वह बीते 10 साल से यह काम कर रहे हैं. उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि राज्य सरकार ने 2009 में अस्पताल के मरीजों के रोज के भोजन का खर्च बढ़ा कर 43 रुपये करने का फैसला किया था. लेकिन अब तक उस पर अमल नहीं हो सका है. रज्जाक कहते हैं, “मौजूदा परिस्थितियों में उसके लिए तो क्या किसी के लिए भी इतने कम रेट पर क्वालिटी बरकरार रखते हुए इतनी मात्रा में भोजन की सप्लाई संभव नहीं है. लेकिन कोई इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है. इस उदासीनता का खमियाजा मरीजों को भुगतना पड़ता है.”

तस्वीर: DW

याचिका पर सुनवाई के दौरान जज ने रज्जाक के वकील से अस्पताल के भोजन का मेन्यू मांगा. उसमें सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक का जिक्र था. लेकिन इतनी कम कीमत पर सुबह के नाश्ते और दोपहर के भोजन की लंबी सूची देख कर वह इतने नाराज हुए कि उन्होंने शाम के नाश्ते और रात के खाने के खाने का मेन्यू सुना ही नहीं. जज ने सवाल किया कि इस मद में राज्य का बजट कितना है?

पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा चुकी हैं. इसके ढांचे को मजबूत करने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मंत्रालय को भी अपने ही पास रखा है. लेकिन सरकारी अस्पतालों में लापरवाही के आरोप सामने आते रहते हैं. बीते आठ नौ महीनों में ही सरकारी अस्पतालों में 100 से ज्यादा नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है. इसके अलावा इलाज में लापरवाही और गलत इलाज की वजह से मरीजों की जान जाने के भी मामले सामने आए हैं. ऐसे में कोई यह मानने को तैयार नहीं कि इन अस्पतालों में मरीजों को इतना बढ़िया खाना मिलता होगा. बीते दिनों एक सरकारी अस्पताल में इलाज कराने वाले मोहित मंडल कहते हैं, “हम गरीब हैं. लेकिन घर में इससे बेहतर खाना खाते हैं. चावल गले से नीचे नहीं उतरता और दाल में दाल ही गायब रहती है.” मोहित का सवाल है कि आखिर कोई एक चौथाई से भी कम रेट पर ऐसे खाने की सप्लाई कैसे कर सकता है? इसके अलावा इसमें उस सप्लायर का मुनाफा और स्वास्थ्य विभाग अधिकारियों को मिलने वाला कमीशन भी शामिल है. इससे उस खाने की क्वालिटी सहज ही समझी जा सकती है.

अब सबमें इस बात को लेकर दिलचस्पी है कि सरकार हाई कोर्ट में अपनी रिपोर्ट में क्या लिखेगी.

रिपोर्टः प्रभाकर,कोलकाता

संपादनः ए जमाल

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