सालों से सूखा झेल रहे बुंदेलखंड में बाबा कृष्णानंद जैसे जीवट लोगों की भी कमी नहीं जो अकेले प्रकृति की विभीषिका से लड़ने का साहस रखते हैं. उन्होंने आठ बीघे खेत में 18 फुट गहराई तक खोदकर उसे विशाल तालाब का आकार दे दिया.
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बुंदेलखंड इलाके में सूखे के चलते खासतौर पर गर्मी के मौसम पानी को लेकर त्राहि-त्राहि मची रहती है. बुंदेलखंड के बाबा कृष्णानंद ने करीब आठ बीघे खेत में 18 फुट गहराई तक खोदकर उसे विशाल तालाब का आकार दे दिया और आज यही तालाब आस-पास के लोगों की और तमाम पशुओं की भी प्यास बुझा रहा है.
हमीरपुर जिले के पचखुरा गांव में संत बाबा कृष्णानंद ने दो साल की कड़ी मेहनत से इस असंभव से काम को कर दिखाया. साठ साल के कृष्णानंद ने 12 वीं कक्षा तक पढ़ाई की है और 18 साल की उम्र में ही वे संन्यासी बन गए थे.
बाबा कृष्णानंद कहते हैं कि पहले उन्हें लगा कि गांव के लोग खुद तालाब बना लेंगे या फिर सूखे पड़े तालाबों की मरम्मत करा लेंगे लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने अकेले ही ये काम करने का बीड़ा उठाया. वो बताते हैं, ''गांव वाले पानी की समस्या से लगातार जूझ रहे थे लेकिन खुद कुछ करना नहीं चाह रहे थे. मुझे लगा कि ये लोग कुछ नहीं करेंगे और इसके लिए मुझे ही आगे आना पड़ेगा तो मैंने अकेले ही तालाब की खुदाई शुरू कर दी.''
ऐसा ही चला तो पड़ जाएंगे पीने के पानी के लाले
भले ही अभी आपके घर के नल में पानी आता हो लेकिन हमेशा ऐसे ही चलेगा, यह सोचना गलतफहमी होगी. जनसंख्या के साथ बढ़ती जा रही मांग, खेती और जलवायु परिवर्तन के कारण कई इलाकों में अभी ही पानी की बेहद कमी हो चुकी है.
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पानी बिच मीन पियासी
हमारी धरती के दो-तिहाई हिस्से के पानी से ढके होने के बावजूद पानी की कमी की बात अविश्वसनीय लगती है. कुल मिलाकर धरती पर एक अरब खरब लीटर पानी से भी अधिक है. लेकिन समस्या यह है कि इसका ज्यादातर हिस्सा नमकीन पानी का है और इंसान की प्यास बुझाने के काम नहीं आ सकता.
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बिन पानी सब सून
धरती पर मौजूद कुल जल का केवल ढाई प्रतिशत ही ताजा पानी है. इसमें से भी दो-तिहाई हिस्सा ग्लेशियर और बर्फीली चोटियों के रूप में कैद है. इसका मतलब हुआ कि इंसान के पीने, खाना पकाने, जानवरों को पिलाने या कृषि के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा बहुत ही कम है.
पानी का चक्कर
असल में पानी एक नवीकरणीय स्रोत है. प्रकृति में जल चक्र चलता रहता है जिससे हमारे पृथ्वी ग्रह पर जल यानी H2O की मात्रा हमेशा एक समान बनी रहती है. इसलिए पानी के पृथ्वी से खत्म होने का खतरा नहीं हैं. असल खतरा इस बात का है कि भविष्य में हमारे पास सबकी जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त साफ पानी होगा या नहीं.
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पाकिस्तान तो गया
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट दिखाती है कि भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान 2025 तक सूख जाएगा. जर्मनी के एक जल विशेषज्ञ योहानेस श्मीस्टर बताते हैं कि "स्थानीय स्तर पर समस्या बहुत गंभीर है" और "आंकड़ें और अवलोकन यही दिखाते हैं कि हालात और बिगड़ते ही जाएंगे."
सिर उठाता स्थानीय जल संकट
सन 2016 की एक स्टडी के मुताबिक, नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ट्वेंटे ने पाया है कि चार अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी झेलनी पड़ेगी. कुछ इलाकों में लोग आज ही सूखे और जल संकट की चपेट में आ चुके हैं. हॉर्न ऑफ अफ्रीका इलाके में लगातर पड़ते सूखे के कारण भूखमरी और बीमारी का प्रकोप है.
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जलवायु परिवर्तन का बड़ा हाथ
इस पर्यावरणीय घटना के कारण दुनिया भर में मौसमों का चक्र और जल चक्र प्रभावित होगा. इससे भी कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ आयेगी. कही कहीं तापमान के बहुत ज्यादा बढ़ जाने से भी पानी की कमी झेलनी पड़ेगी.
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प्रकृति ही नहीं लापरवाही भी कारण
विशेषज्ञ पानी की कमी को "इकोनॉमिक" संकट भी बताते हैं. इसका मतलब हुआ कि इंसान उपलब्ध पानी का किस तरह से प्रबंधन करता है यह भी अहम है. जैसे कि भूजल का बहुत ज्यादा दोहन करना, नदियों और झीलों को सूखने देना और बचे खुचे साफ पानी के स्रोतों को इतना प्रदूषित कर देना कि उनका पानी इस्तेमाल के लायक ना रहे.
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कैसे करें मुकाबला
वॉटरएड के विंसेंट केसी कहते हैं कि साफ पानी के 'इकोनॉमिक' संकट से निपटने के लिए सरकारों को पानी की सप्लाई और संग्रह के ढांचे में और ज्यादा निवेश करना होगा. इसके अलावा खेती को ऐसा बनाना होगा जिसमें पानी की खपत कम हो. कुल ताजे पानी का करीब 70 फीसदी फिलहाल खेतों में सिंचाई और पशु पालन में खर्च होता है.
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बढ़ चुकी हैं जरूरतें
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एक इंसान हर दिन केवल खाना पकाने और बुनियादी हाइजीन में औसतन 20 लीटर ताजे पानी का इस्तेमाल करता है. कपड़े धोने और नहाने में लगने वाला पानी इसके ऊपर है. जो देश जितने विकसित हैं उतनी ही ज्यादा उनकी पानी की जरूरतें हैं. जैसे जर्मनी में प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन 140 लीटर पानी का खर्च है, 30 लीटर तो केवल शौचालय के फ्लश में जाता है.
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कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ छिपे हुए खर्चे
आंखों से दिखने वाले पानी की सामान्य खपत के अलावा कई इंसानी गतिविधियों से अप्रत्यक्ष बर्बादी भी होती है. एक डब्बा कॉफी उगाने में 840 लीटर पानी तो एक जींस बनाने में 8,000 लीटर पानी लग जाता है. इन सभी जरूरी कामों में पानी की खपत कम करने के तकनीकी उपाय भी तलाशने होंगे. (काथारीना वेकर/आरपी)
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कृष्णानंद बताते हैं कि जब उन्होंने तालाब की खुदाई शुरू की तो गांव वालों ने ‘पागल' समझकर मज़ाक उड़ाया. बकौल कृष्णानंद, बावजूद इसके वो अपने काम में डटे रहे और आज गांव वालों के लिए न सिर्फ उन्होंने पानी की व्यवस्था कर दी है बल्कि एक मिसाल भी कायम की है.
वो कहते हैं, "दो साल तक लगातार काम करता रहा. सुबह छह बजे से लेकर शाम तक लगातार काम किया. पहले फावड़े से खोदकर मिट्टी निकालता था, फिर मिट्टी को हटाता था. उसी मिट्टी से तालाब के चारों ओर बाउंड्री भी बना दी है.
कृष्णानंद यहीं रुके हैं बल्कि उनका कहना है कि आगे भी वो तमाम सूख चुके तालाबों का नया जीवन देने का प्रयास करेंगे. बुंदेलखंड इलाके में सूखे की समस्या से न सिर्फ इंसान बल्कि जानवर भी परेशान रहते हैं. गर्मियों के मौसम में पानी की किल्लत यहां इस कदर होती है कि लोगों को कई किलोमीटर दूर से नदियों या नहरों से पानी लाना पड़ता है क्योंकि नल, तालाब, कुंए और हैंडपंप सूख जाते हैं.
इस इलाके में ये समस्या कोई नहीं है बल्कि यहां की भौगोलिक स्थिति के चलते प्राचीन काल से ही रही है. इसी को ध्यान में रखते हुए यहां के शासकों ने, खासकर चंदेल राजाओं ने बड़े-बड़े तालाब खुदवाए थे. इसके अलावा भी इस इलाके में जगह-जगह छोटे-बड़े तालाब मिलते हैं लेकिन कालांतर में रख-रखाव के अभाव में ये तालाब या तो सूख गए या फिर अतिक्रमण के शिकार हो गए. लेकिन अब जब ये इलाका लगातार सूखे की समस्या को झेल रहा है तो लोग इन पुराने प्रयासों की ओर लौटने लगे हैं.
हालांकि इस इलाक़े में सूखे की विकट समस्या को देखते हुए ही सरकार ने खेत-तालाब योजना भी शुरू की है. इसके तहत मनरेगा मजदूरों से तालाब की खुदाई कराई जाती है. दो घन फुट गहरी खुदाई के लिए मजदूरों को क़रीब 250 रुपये का भुगतान किया जाता है लेकिन बाबा कृष्णानंद ने इस काम के लिए न तो किसी से आर्थिक मदद ली और न ही किसी ने उन्हें मदद देने की पेशकश की. हां, ये जरूर है कि तालाब बन जाने के बाद तारीफ करने वालों की कमी नहीं है.
आने वाले खतरे की निशानी हैं ईरान की ये तस्वीरें
ईरान के कोहगिलूयेह और बोयरअहमद प्रांत में सूखे की मार के कारण लोग पीने के पानी को दर बदर भटक रहे हैं. इस इलाके की तस्वीरें जल संकट की तरफ बढ़ती दुनिया की तरफ इशारा करती हैं.
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सूखे जल स्रोत
कोहगिलूयेह और बोयरअहमद प्रांत में पानी ज्यादातर स्रोत सूख गये हैं. इसीलिए पीने के पानी के लिए ग्रामीण इलाके के लोगों को लंबी दूरी तय करनी पड़ रही है. बहुत से ग्रामीण तो तंग आकर शहरों का रुख कर रहे हैं.
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बदतर हालात
ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कोहगिलूयेह और बोयरअहमद ईरान के सबसे अमीर प्रांतों में से एक हुआ करता था. लेकिन आज यहां पैदा जल संकट से पता चलता है कि अब इलाके की स्थिति क्या है.
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जिंदगी मुश्किल
समाचार एजेंसी इरना के मुताबिक इस प्रांत के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में जल आपूर्ति का कोई बुनियादी ढांचा नहीं है. ऐसे प्राकृतिक जल स्रोतों के सूख जाने से इलाके के लोगों की जिंदगी मुश्किल हो गयी है.
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सूखे की मार
हाल के सालों में ईरान के कई इलाकों ने सूखे की मार झेली है. जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के कई हिस्सों में मौसम बदल रहा है. इसकी वजह से कहीं भारी बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति पैदा हो रही है.
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जल बिन सब सून
जल ही जीवन है. इसलिए इस इलाके के लोगों के लिए पीने के पानी का इंतजाम करना आज सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गया है. दूर दूर से डिब्बों में पानी भर कर लाना अब इनकी जिंदगी का अहम हिस्सा हो गया है.
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जैसे तैसे गुजारा
तेस्नीम समाचार एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस प्रांत में पानी के 210 चश्मे सूख गये हैं. सिर्फ कुछ जल स्रोत ही बचे हैं जो जैसे तैसे लोगों की प्यास बुझा रहे हैं.
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बदलती आबो हवा
सूखे और जल संकट से निपटने के लिए कारगार योजना न बनाने के लिए ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी को अकसर आलोचना झेलनी पड़ती है. जलवायु परिवर्तन के कारण ईरान में धूल भरी आंधियां भी बढ़ी हैं.
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जल संकट
विशेषज्ञ ईरान के इन हालातों के लिए काफी हद तक जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते हैं. हालांकि पानी की किल्लत ईरान ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में एक बड़े संकट का रूप लेती जा रही है.
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कहां से मिलेगा पानी
राष्ट्र का कहना है कि अगले 15 सालों में दुनिया भर के जल भंडारों में 40 फीसदी की कमी आयेगी. नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ट्वेंटे के अध्ययन के अनुसार चार अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी झेलनी पड़ेगी.
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मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के तेरह जिलों में बंटा बुंदेलखंड का ये इलाका सूखे से इस कदर प्रभावित रहता है कि अब तक लाखों लोग यहां से पलायन कर गये और हजारों की संख्या में यहां के किसान आत्म हत्या कर चुके हैं. हालांकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कभी बुंदेलखंड पैकेज, कभी कर्जमाफी और कभी अन्य योजनाओं के जरिए राहत पहुंचाने की कोशिश करती हैं लेकिन राहत पीड़ित लोगों तक पहुंचने में या तो देर हो चुकी होती है या फिर कई बार वहां तक पहुंच ही नहीं पाती और बीच में ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है.
सदियों पुरानी सभ्यता सिखाएगी पानी साफ करना?
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हमीरपुर में स्थानीय पत्रकार और आरटीआई एक्टिविस्ट पंकज सिंह परिहार कहते हैं कि यहां की जमीन बंजर पड़ी है, जलस्रोत सूख चुके हैं, भूमिगत जलस्तर तेजी से घटा है और सूखे से पीड़ित लोगों का लगातार पलायन जारी है. वो कहते हैं, ”पूरे इलाक़े में गांव के गांव खाली हो गए हैं लेकिन सरकारों की ओर से एक के बाद एक समितियां बनाकर और कभी-कभी कुछ पैकेज जारी करके बुंदेलखंड को बचाने की खोखली और कागजी कार्रवाई की जा रही है. केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए बुंदेलखंड पैकेज के हजारों करोड़ रुपये राज्य सरकार ने कहां खर्च कर दिया, खुद उसे ही नहीं पता है और यहां के लोग बदतर हालात में जीने को विवश हैं.”
पंकज सिंह परिहार बताते हैं कि सूखे की समस्या भले ही प्राकृतिक हो लेकिन यहां चल रहे अवैध खनन इस समस्या को और बढ़ा रहे हैं लेकिन इसे रोकने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो रही है. जहां तक पानी के संकट का सवाल है तो मौजूदा खेत तालाब योजना के अलावा भी कई योजनाएं चल रही हैं लेकिन यहां के लोगों का कहना है कि ज़्यादातर योजनाएं ‘कागजों पर' ही चलती हैं, जमीन पर नहीं.
सत्तर के दशक में अपने समय में एशिया की सबसे बड़ी जल परियोजना के नाम से मशहूर ‘पाठा पेयजल परियोजना' भी इस इलाके में शुरू हुई थी जिसमें पाइपलाइन के जरिए पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की गई थी.
इलाक़े के सामाजिक कार्यकर्ता अभिमन्यु बताते हैं कि परियोजना के पूरा होने पर चित्रकूट के अलावा मानिकपुर के दूरदराज इलाके में बसे आदिवासियों के लिए भी पीने का पानी मिलने लगा लेकिन बाद में बदइंतजामी के चलते इसका जितना लाभ मिलना चाहिए था, वो नहीं मिल सका.
समीर मिश्रा
पानी में उगे शैवालों को बुरा मत समझिए
घर के पास के तालाब में शैवालों को उगता देखकर मन में जरूर इसे हटाने का ख्याल आया होगा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन शैवालों में कितने गुण हैं. आज भोजन, दवा और ब्यूटी प्रॉडक्ट में इनका बहुत इस्तेमाल किया जा रहा हैं.
तस्वीर: Imago/D. Delimont
पानी के भीतर है जंगल
शायद समुद्री शैवालों की बात पर आपके दिमाग में समंदर किनारे पत्थरों पर जमी लाल, हरी और भूरी काई की छवि आती हो. लेकिन ये शैवाल सिर्फ इतने ही नहीं हैं. इनमें से कुछ शैवाल समुद्र के भीतर स्थित जंगलों में उगते हैं तो कुछ ताजा पानी में. ये समुद्री शैवाल न सिर्फ पानी में रहने वाले जीव जंतुओं के लिए बल्कि इंसानों के लिए भी बेहद अहम हैं.
तस्वीर: Imago/D. Delimont
छोटे लेकिन काम के
बेहद ही सूक्ष्म शैवाल मसलन फाइटोप्लैंकटन तमाम समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं (फूड चेन) का आधार है. इसके बिना मानव जीवन भी संभव नहीं है. अधिकतर एकल कोशिका वाले जीव (सिंगल सेल ऑरगेनिज्म) प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरते हैं और दुनिया में मौजूद लगभग आधी ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं.
तस्वीर: NOAA MESA Project
कितना लाभ?
जब तापमान सही स्तर पर होता है और पानी में पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होती है, तो शैवाल तेजी से बढ़ते हैं. इनसे हरियाली भी नजर आती है. शैवालों का वृद्धि आमतौर पर हानिकारक नहीं होती लेकिन कभी-कभी ये पानी में ऑक्सीजन के स्तर को कम कर देते हैं. इससे समुद्री जीवन पर बुरा असर पड़ता है.
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शैवालों की खेती
समुद्री तटों के निकट बसे लोग सदियों से इन शैवालों का इस्तेमाल कर रहे हैं. मसलन आयरलैंड इसके प्रयोग में सबसे आगे हैं. शैवालों की टिकाऊ खेती की ओर अब दुनिया देख रही हैं. समुद्री शैवाल कार्बन सिंक की तरह काम करते हैं. कार्बन सिंक, प्राकृतिक या कृत्रिम तौर पर बनाए गए ऐसे भंडारण क्षेत्र होते हैं जो कार्बन उत्पादों को प्रकृति में छोड़ने की बजाय लंबे समय तक स्टोर कर सकते हैं.
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सलाद भी हैं
अब तक का सबसे लोकप्रिय समुद्री शैवालों से जुड़ा भोजन सुशी रोल है. हजारों साल से जापानी लोग नोरी नाम के शैवाल को मछली, चावल और सब्जियों के साथ खा रहे हैं. लेकिन आप इस पौष्टिक भोजन को सलाद और अन्य व्यंजनों के साथ भी खा सकते हैं. कुछ कंपनियां तो अब इसके नूडल्स भी बाजार में ले आयी हैं.
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इनसे होता इलाज
कुछ समुद्री शैवालों में जलन निवारक और एंटी माइक्रोबियल गुण पाए गए हैं, जिसका इस्तेमाल अब वर्षों पुराने जलने के निशान और घावों को भरने के लिए किया जा रहा है. वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं ताकि ये पता चल सके कि इन शैवालों का इस्तेमाल त्वचा और कैंसर के इलाज में कितना कारगर साबित होगा.
तस्वीर: Tomas Egaña
सौंदर्य में इस्तेमाल
समुद्री शैवाल का प्रयोग अब भोजन और टूथपेस्ट जैसे अन्य उत्पादों में किसी न किसी रूप में किया जाता है. साथ ही इनका प्रयोग ऑर्गेनिक कॉस्मेटिक और स्किन केयर प्रॉडक्ट्स में भी बढ़ रहा है. (एए/एनआर)