राजनीति से परेशान ईरान
३ जून २०१३पारिसा तोनेकबोनी 15 साल पहले ईरान छोड़ जर्मनी आ गयी थीं. तब से वह अपने देश तो नहीं लौट पाईं हैं, लेकिन जर्मनी में रह कर भी सोशल नेटवर्किंग के जरिए अपने देश में दोस्तों और रिश्तेदारों से लगातार संपर्क में रहती हैं. 32 साल की पारिसा ने जर्मनी में ही पढ़ाई की और इस्लाम विशेषज्ञ के रूप में अपना करियर बनाया.
डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने बताया कि फेसबुक और ट्विटर के जरिए उन्हें पता चलता रहता है कि ईरान में स्थिति दिन ब दिन बदतर होती जा रही है, "आर्थिक प्रतिबंध के असर वहां साफ देखने को मिल रहे हैं और उनका सबसे ज्यादा असर हो रहा है जनता पर". पारिसा बताती हैं कि ईरान में खाने पीने की चीजों के दाम बढ़ते चले जा रहे हैं, "सरकार महंगाई दर के 30 प्रतिशत बढ़ने की बात करती है, लेकिन अनौपचारिक रूप से तो यह 50 फीसदी से भी ज्यादा है".
महंगाई की मार
पिछले कुछ समय में देश में फल सब्जियों और रोजमर्रा के सामान की कीमतें दुगनी से भी ज्यादा हो गयी हैं, "हाल ही में मेरी एक सहेली को लगा कि दुकान वाला उसे ठगना चाह रहा है, जब वह थोड़े से फलों के लिए 15,000 तोमन (करीब 200 रुपये) मांगने लगा. मैं तो यह सोचती हूं कि साधारण लोग वहां किस तरह से गुजारा कर रहे हैं".
ईरान के लोगों को मिलनसार होने के लिए जाना जाता है. लोग अक्सर परिवार और दोस्तों को घर पर आमंत्रित करते हैं और मिल कर वक्त बिताना पसंद करते हैं. खास तौर से ऐसे वक्त में जब देश में राजनीतिक उथल पुथल का माहौल है और बाहर लोगों पर चौकसी रखी जाती है, इसलिए घर पर मिलना ही एक संभावना होती है. "लेकिन क्योंकि चीजों के दाम इतने बढ़ गए हैं, इसलिए अब लोग इतना खर्च उठा ही नहीं पाते हैं. मुझे अपने दोस्तों से पता चलता है कि अब कम ही लोग एक दूसरे के यहां आते जाते हैं".
हालात ये हैं कि कई फैक्ट्रियों में महीनों से कर्मचारियों को वेतन ही नहीं मिला है. ऐसे में लोगों में काफी निराशा है. पारिसा कहती हैं कि राष्ट्रपति चुनावों के बाद भी कोई बदलाव होता नजर नहीं आता. शबनम अजार का भी यही मानना है. 35 साल की शबनम पत्रकार हैं और चार साल पहले ही अपने पति के साथ ईरान छोड़ कर जर्मनी आई हैं. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने बताया, "सरकार ने ऐसा माहौल बना दिया है कि लोग केवल नौकरी और रोटी के बारे में ही सोचते रहें, कोई भी राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में नहीं सोच पा रहा है".
पत्रकारों के लिए खतरा
शबनम को अहमदीनेजाद के खिलाफ सवाल उठाती रिपोर्टें लिखने के कारण धमकियां मिलने लगीं थीं. जर्मनी आ कर शबनम के पति ने कोलोन यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया, जहां वह फिल्में बनाना सीख रहे हैं. शबनम को उम्मीद है कि वह जर्मनी में पत्रकार के तौर पर कहीं नौकरी ढूंढ सकेंगी. लेकिन ऐसी ईरानी एजेंसियां बहुत कम ही हैं जिनके लिए पत्रकार विदेश में रह कर भी काम कर सकें. साथ ही अपने देश से इतना दूर रह कर वहां के बारे में कुछ लिखना भी आसान नहीं.
लेकिन शबनम खुद को खुशनसीब मानती हैं. 2009 में अहमदीनेजाद के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद ईरान में कई पत्रकारों और ब्लॉगरों को कैद कर लिया गया. आज भी हालात ठीक नहीं हैं, "जो कुछ पत्रकार वहां रह कर काम कर पा रहे हैं, उन पर सरकार की कड़ी नजर है". शबनम बताती हैं कि उनके पत्रकार मित्रों को सरकार की ओर से चेतावनी मिली है कि वे राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने वाले उन उम्मीदवारों के बारे में कोई रिपोर्ट ना लिखें जो सुधार के लिए काम करना चाहते हैं.
लोकतंत्र का नाटक
ऐसे में जर्मनी में आईटी विशेषज्ञ के तौर पर काम कर रहे अब्बास सलीमी को लगता है कि ईरान के लोगों को चुनावों का बहिष्कार कर देना चाहिए. अब्बास 30 साल पहले ईरान छोड़ कर जर्मनी आए थे. चुनावों से उन्हें कोई खास उम्मीद नहीं है. वह बताते हैं, "1979 में आई इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान में चुनाव महज एक मजाक बन कर रह गया है."
उनका कहना है कि अलग अलग उम्मीदवार खड़े कर सरकार लोकतंत्र का नाटक करना चाहती है, लेकिन जनता सरकार के इस खेल को अच्छी तरह समझती है, "देश के भविष्य के लिए क्या समाधान होना चाहिए, यह तो मैं भी नहीं जानता. मैं तो बस इतनी ही उम्मीद करता हूं कि पश्चिमी देशों के साथ परमाणु शक्ति को ले कर चल रही लड़ाई में कहीं सेना का हस्तक्षेप ना हो जाए. हम निर्वासित लोगों के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा विषय है".
ब्रेन ड्रेन की समस्या
पारिसा भी बताती हैं कि देश के हालात ऐसे हैं कि लोग कहीं बाहर निकलने के रास्ते खोज रहे हैं, "वे दोस्त जो हमेशा यह कहा करते थे कि बड़ी से बड़ी मुश्किल में भी वे ईरान नहीं छोड़ेंगे, वे भी अब मौके तलाश रहे हैं". वह कहती हैं कि राजनीति से तो लोगों को वैसे की कोई अपेक्षा नहीं है, लेकिन राजनीति से भी बड़ी समस्या इस समय अर्थव्यवस्था की है, जिसके कारण ईरान का पढ़ा लिखा युवा देश छोड़ कर यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का रुख कर रहा है.
ईरान से पिछले तीन दशकों से ही इस तरह से लोग निर्वासित हो रहे हैं. शबनम का कहना है कि ऐसा तबसे होने लगा जबसे देश की बागडोर धार्मिक नेताओं के हाथ में चली गयी है. वह मानती हैं कि यह दुखद है, "कुशल कर्मचारी ईरान को छोड़ कर जाने पर मजबूर हो रहे हैं. मैं नहीं जानती कि इस ब्रेन ड्रेन का हमारे समाज पर क्या असर होगा. यह दुख की बात है, लेकिन लोग आजादी में सांस लेना चाहते हैं. भला इसमें किसी की क्या गलती है?"
रिपोर्ट: शानली अनवर/ ईशा भाटिया
संपादन: आभा मोंढे