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ईशनिंदा कानून की आड़ में नफरत की राजनीति

२६ अप्रैल २०११

ईश निंदा कानून कई देशों में धर्म की रक्षा के लिए बनाए गए हैं. मुश्किल यह है कि यह कानून एक धर्म की तो रक्षा करते हैं पर दूसरे धर्मों को अकसर इसका नुकसान उठाना पड़ता है.

तस्वीर: picture alliance/dpa

कागज का एक छोटा सा टुकड़ा भी बेहद जरूरी हो सकता है खासतौर से अगर यह पहचान पत्र हो. बर्तोल्त ब्रेष्त ने कहा था कि पहचान पत्र शरीर का सबसे आवश्यक अंग होता है. पहचान के बिना नागरिकों के अधिकार अक्सर सीमित हो जाते हैं. आप कोई घर किराए पर नहीं ले सकते और दुनिया के अधिकतर देशों में इसके बगैर आपको नौकरी भी नहीं मिलेगी. पहचान पत्र के बगैर शादी का सर्टिफिकेट नहीं मिलता है और जब बच्चे पैदा हों तो उनका जन्म प्रमाण पत्र भी. इस प्रमाण पत्र के बगैर स्कूल में दाखिला नहीं मिलेगा. एक पहचान पत्र का न होना जीवन में कितनी सारी मुश्किलों की वजह बन सकता है पर इससे भी मुश्किल काम है इंडोनेशिया में बिना किसी धार्मिक समूह से जुड़ा नागरिक पहचान पत्र हासिल करना.

तस्वीर: AP

इंडोनेशिया में पहचान पत्र हासिल करने के लिए यहां मौजूद धार्मिक समूहों में से किसी एक से औपचारिक रूप से जुड़ा होना जरूरी है. देश में एक ऐसा समूह भी है जिसे सरकार ने मान्यता नहीं दी है, नतीजा कि इसे मानने वालों को पहचान पत्र के लिए खासी मुश्किल उठानी पड़ती है. इस धार्मिक समूह का नाम है अहमदिया.

पिछले कुछ महीनों में इंडोनेशिया के अहमदिया समूह से जुड़े लोगों के साथ भेदभाव बढ़ा है. इस समूह के सदस्यों पर हमले हो रहे हैं और इनमें कई मारे गए हैं. देश में लगातार इनका विरोध बढ़ रहा है और इस समूह पर पाबंदी लगाने की सरकार से मांग की जा रही है. अहमदिया समूह खुद को इस्लाम से जुड़ा मानता है. पर उनका दावा है कि पैगम्बर मुहम्मद के बाद एक और पैगम्बर भी हुए हैं. उनकी यही बात इस्लाम की शिक्षा से से मेल नहीं खाती इसलिए उनकी सारी बातें ईशनिंदा कानून के दायरे में आती हैं.

तस्वीर: AP

इंडोनेशिया में असहिष्णुता

मानवाधिकार के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन इम्पार्सियल से जुड़े अल अराफ मानते हैं कि ईशनिंदा कानून का इस्तेमाल धार्मिक समूह एक दूसरे के खिलाफ कर रहे हैं. उनका कहना है कि जब 1965 में कानून बनाया गया तो इसका उद्देश्य राजनीतिक था. ताकत हासिल करने के लिए बनाए गए इस कानून के नियम मानवाधिकारों के हिसाब से उचित नहीं थे. उनका कहना है कि ईशनिंदा कानून गुजरे जमाने का कानून है. कानून की दोबारा समीक्षा कराने की मांग भी संविधान आयोग ने खारिज कर दी. यही वजह है कि इंडोनेशिया में यह कानून अभी भी लागू है वह भी तब जब कि अदालतें भी मानती हैं कि इनमें कई खामियां हैं.

अल अराफ मानते हैं कि कानून नहीं बल्कि इसका पालन कराने वाली एजेंसियों का बुरा होना ज्यादा बड़ी समस्या है. अराफ के मुताबिक, "बड़ी बात यह है कि कानून का पालन कराने वाली एजेंसियां मानवाधिकारों के प्रति कितनी जवाबदेह हैं. ये एजेंसियां निष्पक्ष नहीं हैं और ज्यादातर मामलों में वह खुद भी एक पक्ष की भूमिका निभाती हैं और अहमदिया लोगों को एक दुश्मन की तरह देखती हैं. ऐसे में दूसरे धार्मिक समूह जब धर्म के नाम पर हिंसा करते हैं तो उन्हें आसानी से छोड़ दिया जाता है."

तस्वीर: AP

मलेशिया का ईशनिंदा कानून

मलेशिया में भी ईशनिंदा कानून लागू है. कई सालों से यह देश अल्लाह और उलेमा जैसे इस्लाम से जुड़े शब्दों के इस्तेमाल पर संघर्ष कर रहा है. यहां रहने वाले लोगों में 9 फीसदी ईसाई हैं और उन्हें अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करने की मनाही है. इस्लाम से जुड़े लोगों को इस बात की चिंता है कि अगर ईसाइयों ने भी अल्लाह शब्द का इस्तेमाल किया तो लोग भ्रमित हो कर धर्मांतरण कर लेंगे. बाइबल की लाखों प्रतियों पर सिर्फ इस वजह से 'केवल ईसाइयों के लिए' की मुहर लगी होती है क्योंकि उनमें अल्लाह शब्द लिखा है.यहां मुस्लिमों को दूसरे धर्म की दीक्षा देने पर जेल जाना पड़ता है.

मलेशिया में मानवाधिकार के लिए काम करने वाली एक संस्था से जुड़े चार्ल्स हेक्टर का मानना है कि ईशनिंदा कानून का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं. वह कहते हैं, "इसमें सिर्फ सरकार की एक पार्टी है यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गनाइजेशन जो अल्लाह के नाम पर नफरत को हवा दे रही है." उन्होंने बताया कि यहां समय समय पर अलग अलग पार्टियां लोगों का ध्यान असली मुद्दों से हटाने और मुस्लिम लोगों का दिल जीतने के लिए इस तरह के मुद्दे उठाती रहती हैं.

पाकिस्तान में ईशनिंदा

ह्यूमन राइट्स वॉच के सीनियर रिसर्चर अली दयान हसन मानते हैं कुछ देश धर्म का इस्तेमाल अकसर भेदभाव वाली राजनीति को उचित ठहराने के लिए करते हैं. उन का कहना है कि ये देश समाज में सहिष्णुता को बढ़ावा दे कर भी दुर्व्यवहारों को रोकने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. उनका कहना है कि पाकिस्तान इसका एक अच्छा उदाहरण है. पाकिस्तान में हाल ही में ईशनिंदा कानूना का विरोध करने की वजह से दो राजनीतिज्ञों की हत्या कर दी गई.

हसन का मानना है कि पाकिस्तान में सहिष्णुता तब आ सकती है, "अगर पाकिस्तानी कानून यह तय करे कि सरकार ऐसे मामलों में पक्ष नहीं बनेगी. सरकार केवल लोगों के एक निष्पक्ष पंच की भूमिका निभाए और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे." उनका कहना है कि जब तक विभेदकारी कानून जारी रहेंगे पूरे समाज में सहिष्णुता नहीं आ सकती. यहां स्थिति यह है कि दुर्व्यवहारों ने यहां घर बना लिया है और इस वजह से हालात और बुरे हो गए हैं."

पाकिस्तानी राजनयिकों ने हाल ही में इस बात की ओर इशारा किया था कि असहिष्णुता, भेदभाव और धार्मिक समूहों के प्रति हिंसा दुनिया के हर हिस्से में है. इसी आधार पर वह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को धार्मिक असहिष्णुता से लड़ने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए तैयार करना चाहते थे. हसन का मानना है कि पाकिस्तान को असहिष्णुता से जंग मे एक उदाहरण बनना चाहिए और वह ऐसा कर सकता है.

धर्मनिरपेक्ष देश भारत में इस तरह का कानून नहीं है लेकिन विभिन्न समुदायों के कुछ धार्मिक संगठन और गिरोह संस्कृति के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने के लिए फतवे जारी करते रहते हैं. अच्छी बात ये है कि बहुसंख्यक लोग इन फतवों को सिरे से खारिज कर देते हैं और कानून भी यहां तटस्थ भूमिका निभाता है.

रिपोर्टः अंगातिरा गोलमर/एन रंजन

संपादनः उभ

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