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चमोली त्रासदी पर हाई कोर्ट का चौंकाने वाला फैसला

१९ जुलाई २०२१

चमोली त्रासदी की जवाबदेही तय करने की मांग वाली याचिका को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है. चौंकाने वाली बात यह है कि याचिका के गुणों का मूल्यांकन किया ही नहीं गया, बल्कि याचिकाकर्ताओं को किसी की कठपुतली बताया गया.

तस्वीर: KK Productions/AP/picture alliance

मामले पर सुनवाई उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राघवेंद्र सिंह चौहान और जस्टिस आलोक कुमार वर्मा की पीठ कर रही थी. पीठ ने याचिका को "अत्यधिक रूप से अभिप्रेरित" और "एक अज्ञात व्यक्ति या हस्ती" के इशारे पर दायर किया हुआ बताया. अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता इस अज्ञात हस्ती के हाथ की कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं हैं.

कोर्ट ने यह भी कहा कि उसे याचिका की "बोना फाइड" पर भरोसा नहीं है और वो जनहित याचिका दायर करने की प्रक्रिया का दुरुपयोग है. इसके बाद अदालत ने याचिका को खारिज करने के साथ साथ याचिकाकर्ताओं पर 10,000 रुपए प्रति व्यक्ति जुर्माना भी लगाया.

कौन है याचिका के पीछे

याचिकाकर्ताओं में तीन व्यक्ति चमोली आपदा से सीधे प्रभावित रैणि गांव के मूल निवासी हैं जो ग्राम सभा द्वारा सर्वसम्मति से लिये गए फैसले के तहत अदालत गए. इनमें एकभवान सिंह राणा ग्राम सभा के मौजूदा प्रधान हैं, संग्राम सिंह क्षेत्र पंचायत के पूर्व सदस्य हैं और सोहन सिंह जाने माने पर्यावरण एक्टिविस्ट हैं. वो चिपको आंदोलन की नेता गौरा देवी के पोते हैं.

चमोली त्रासदी में बांध के टूटने से उठा गुबारतस्वीर: ITBP/REUTERS

बाकी दो याचिकाकर्ता जोशीमठ से हैं, जिनमें कमल रतूड़ी कांग्रेस के नेता होने के साथ साथ सामजिक कार्यकर्ता हैं. उनके अलावा अतुल सती भाकपा माले के राज्य कमेटी सदस्य हैं और कई आंदोलनों से जुड़े रहे हैं. इनमें से संग्राम सिंह पहले भी उत्तराखंड हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं.

2019 में उन्हीं की जनहित याचिका पर फैसला देते हुए अदालत ने ऋषि गंगा बिजली परियोजना के स्थल पर विस्फोट से चट्टानों को उड़ाने का काम रोकने का आदेश दिया था. कुल मिलाकर सभी याचिकाकर्ता राज्य के जाने माने लोग हैं. इन सभी का परिचय याचिका में ही विस्तार से दिया हुआ है. याचिका में सबके पहचान पत्र और उनके अपील से जुड़े कई कागजात और हलफनामे भी संलग्न हैं.

ऐसे में याचिकाकर्ताओं की पृष्ठभूमि पर अदालत का टिप्पणी करना और उसी आधार पर याचिका को खारिज कर देना विस्मयकारी है. कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता सामाजिक ऐक्टिविस्ट होने का दावा तो करते हैं लेकिन यह साबित करने के लिए उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया है.

हलफनामा ही सबूत

इस फैसले को पूर्वाग्रह से ग्रसित बताते हुए अतुल सती ने डीडब्ल्यू से कहा कि अदालत ने पहली ही सुनवाई में बिना कोई भी दलील सुने हुए याचिकाकर्ताओं पर सवाल उठाते हुए याचिका को खारिज कर दिया. उन्होंने यह भी बताया कि एनटीपीसी का वकील पांच ही दिन पहले एक दूसरे मामले में संग्राम सिंह के ही खिलाफ उपस्थित हुआ था, लेकिन उस दिन संग्राम सिंह को पहचानने तक से इंकार कर दिया और अदालत से कहा कि पता नहीं ये कौन हैं और कहां से चले आए हैं.

त्रासदी के बाद कई हफ्तों तक एक सुरंग के अंदर दबे लोगों की तलाश और बचाव कार्य चलता रहातस्वीर: REUTERS

अमूमन अदालतों में याचिकाओं पर सुनवाई मंजूर ही तभी की जाती है जब उसे दायर करने वालों का परिचय अच्छे से साबित हो और याचिका में दी गई दलीलों का ठोस आधार हो. याचिकाकर्ताओं की तरफ से अदालत में जिरह करने वाला मान्यता प्राप्त वकील भी पहले उन लोगों के परिचय की पुष्टि कर लेता है.

इस याचिका में भी वकील डी के जोशी ने अदालत को याचिकाकर्ताओं के परिचय का भरोसा दिलाया है. जोशी इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं और कहते हैं कि अदालतों के फैसले संदेह से परे होने चाहिए, लेकिन यह फैसला तो संदेह के ही आधार पर दिया गया है.

उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्होंने अदालत से कहा भी था कि अगर याचिकाकर्ताओं के परिचय पर कोई संदेह है तो अदालत उनकी जांच करा ले, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उन्होंने यह भी बताया कि अदालत में अगर कोई हलफनामा दे कर अपना परिचय देता है तो अदालत हलफनामे को ही सबूत मानती है, जब तक दूसरा पक्ष एक दूसरे हलफनामे के जरिये पहले पक्ष के दावों को चुनौती ना दे. जोशी ने यह भी बताया कि सुनवाई के दौरान प्रतिवादी पक्ष ने एक शब्द भी नहीं कहा.

क्या मांग थी याचिका में

याचिका का उद्देश्य चमोली त्रासदी की जवाबदेही तय करना, पीड़ितों को मुआवजा दिलाना और भविष्य में ऐसी घटनाओं को फिर से होने से रोकना था. इसमें केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार से मांग की गई थी कि वो ऋषि गंगा और तपोवन-2 विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजनाओं को दी गई वन और पर्यावरण स्वीकृति रद्द करें.

बचाव कार्य में लगे हुए एनडीआरएफ के कर्मीतस्वीर: National Disaster Reponse Force/AP/picture alliance

यह मांग भी की गई थी कि भविष्य में उस जगह की सुरक्षा और स्थिरता को देखते हुए दोनों परियोजनाओं को ही रद्द किया जाए. इसके अलावा केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय को निर्देश दिया जाए कि वो उस इलाके के पर्यावरणीय जीर्णोद्धार की प्रक्रिया शुरू करे.

सरकारी कंपनी एनटीपीसी और ऋषि गंगा परियोजना कंपनी को आदेश देने की अपील थी कि दोनों कंपनियां त्रासदी में एक या उससे ज्यादा सदस्यों को खो चुके परिवारों के लिए हर्जाना सुनिश्चित करे. इसके अलावा 200 लोगों की जान ले लेने वाली आपराधिक लापरवाही की जवाबदेही तय किए जाने की और दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू करने की मांग थी.

उत्तराखंड सरकार को निर्देश देने की मांग थी वो पूरी ऋषि-गंगा और धौली गंगा सब-बेसिन के इलाके में ब्लास्टिंग, नदी के तल में खनन और पत्थर तोड़ने पर प्रतिबंध लगाए. इसके अलावा केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से यह भी मांग की गई थी कि वो स्थानीय पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाने के लिए पनबिजली क्षेत्र से ही ब्लैकलिस्ट कर दे. अदालत ने किसी भी मांग को स्वीकार नहीं किया.

त्रासदी जारी है

अतुल सती कहते हैं कि वैसे तो उनका और उनके साथियों का पहले विचार था कि वो पुनर्विचार याचिका दायर करें, लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि उसका कोई फायदा नहीं होगा. उन्होंने बताया कि उनके और उनके साथियों के पास अदालत में लड़ने के पैसे भी नहीं थे और गांव वालों ने चंदा इकठ्ठा कर यह राशि उनके लिए जमा की थी.

त्रासदी के बाद टूटे हुए बांध के अवशेष देखते हुए स्थानीय लोगतस्वीर: Sajjad Hussain/AFP/Getty Images

उन्होंने कहा कि इसलिए अब वो और उनके साथी हाई कोर्ट के हाथों दोबारा निराश होने की जगह सुप्रीम कोर्ट जाने पर विचार कर रहे हैं और इस विषय में जल्द फैसला लेंगे. उत्तराखंड में पर्यावरण को बचाने की और चमोली त्रासदी जैसे हादसों को रोकने की कितनी जरूरत है यह इस बात से ही पता चल जाता है कि वहां अभी भी आए दिन इस तरह की घटनाएं हो रही हैं.

18 जुलाई की रात को ही उत्तरकाशी के मांडो गांव में बादल फटने से बाढ़ आ गई और कम से कम तीन लोगों की जान चली गई. अतुल सती बताते हैं कि रैणि गांव के लोग अभी भी भय में जी रहे हैं और बारिश होते ही अपने घरों को छोड़ कर जंगलों में चले जाते हैं. ऐसे में उत्तराखंड हाई कोर्ट का फैसला राज्य में कई लोगों को निराश छोड़ गया है.

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