1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

उन्नीसवीं सदी का एक बहुमुखी भारतीय व्यक्तित्व

२६ मई २००८

आईसीएस अफ़सर, ऋग्वेद-रामायण-महाभारत के अनुवादक, लेखक, इतिहासकार व कांग्रेस अध्यक्ष - कौन थे रमेश चन्दर दत्त? उनके व्यक्तित्व पर प्रोफ़ेसर मीनाक्षी मुखर्जी के साथ साक्षात्कार पर आधारित ख़ास प्रस्तुति.

एक यात्रा, जिसका शुरूआती दौर सदियों पहले था.तस्वीर: AP

रमेश चन्दर दत्त का जन्म सन 1848 में बंगाल के एक बौद्धिक परिवार में हुआ था, और उनके पिता इसाम चन्दर दत्त उस ज़माने में बंगाल में डिप्टी कलक्टर थे. कोलकाता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में उन्होंने शिक्षा पाई, और सन 1868 में परिवार की अनुमति के बिना ही वे अपने मित्रों, बिहारी लाल गुप्त तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के साथ इंगलैंड की यात्रा की. उस समय तक एक ही भारतीय, टैगोर परिवार के सत्येन्द्रनाथ टैगोर को आईसीएस बनने का मौक़ा मिला था, और रमेश चन्दर दत्त भी इसे हासिल करना चाहते थे. एक ही साल के अन्दर उन्होंने इसे हासिल किया, और उसके बाद उन्होंने ब्रिटिश शासन के तहत अनेक ऊँचे पदों पर काम किया. लेकिन कई सवालों पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के साथ उनके मतभेद थे, और सार्वजनिक रूप से अपनी राय व्यक्त करने की ललक के साथ सन 1897 में उन्होंने सिर्फ़ 49 वर्ष की आयु में नौकरी से अवसर ग्रहण कर लिया. इसके दो ही साल बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए.

ब्रिटिश नौकरी से अवसर ग्रहण करने के बाद रमेश चन्दर दत्त कुछ समय के लिए लंदन विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के अध्यापक भी रहे. इसके बाद तीन साल तक वे बरोदा रियासत के मंत्री रहे. साथ ही वे बंगीय साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष थे, जबकि रवीन्द्रनाथ टैगोर इस संस्था के उपाध्यक्ष चुने गए थे. कविता, कहानी व जीवन कथाओं के लेखन के अलावा उन्होंने ऋग्वेद का बँगला में तथा छन्दों में रामायण व महाभारत का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया.

साहित्य व इतिहास के अलावा रमेश चन्दर दत्त आर्थिक अध्ययन के क्षेत्र में भी पारंगत थे. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान भारत के आर्थिक इतिहास पर एक पुस्तक लिखी थी. अमर्त्य सेन से काफ़ी पहले उन्होंने सरकारी नीति के साथ ग़रीबी और अकाल के संबंधों को जोड़कर दिखाने की कोशिश की थी. इस सिलसिले में उन्होंने सन 1900 में तत्कालीन वाइसरॉय लार्ड कर्ज़न को एक खुला पत्र भी लिखा था. अपनी पुस्तक भारत के आर्थिक इतिहास में उन्होंने लिखा था –

अट्ठारहवीं सदी का भारत उत्पादन और कृषि के मामले में काफ़ी आगे बढ़ा हुआ था, और एशिया व यूरोप के बाज़ार में भारत के करघों के उत्पादनों की धूम थी. अफ़सोस कि यह एक सच्चाई है कि ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक दिनों में इंगलैंड के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भारतीय उत्पादन को पीछे धकेला गया. भारत के दसियों लाख कारीगर बेकार हो गए, भारत की जनता की समृद्धि ख़त्म हो गई.

प्रतिरोध के ये प्रारंभिक स्वर थे, जिनमें से भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विकसित हुआ.

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें