भारत के चुनावों में उम्मीदवार या पार्टियां कभी पेड़, बैलगाड़ी या कुल्हाड़ी जैसे चुनाव चिन्ह चुनती थीं, आज रोबोट और पेन ड्राइव जैसे चिन्ह पंसद किए जाने लगे हैं.
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किसी दौर में निर्दलीय या गैर-पंजीकृत दलों के उम्मीदवार झाड़ू और बैलगाड़ी जैसे चुनाव चिन्ह लेकर मैदान में उतरते थे. लेकिन अब इन चुनाव चिन्हों पर तकनीक का असर साफ नजर आ रहा है. अब लैपटाप, माउस, सीसीटीवी कैमरा और पेनड्राइव जैसे चुनाव चिन्ह लेकर उम्मीदवार मैदान में हैं. चुनाव आयोग के पास मुक्त चुनाव चिन्हों की सूची होती है. निर्दलीयों को उनमें से अपनी पसंद के मुताबिक चिन्ह चुनना होता है. लेकिन बदलते समय के साथ इस सूची में भी बदलाव आया है.
उम्मीदवारों की पसंद को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने अबकी मुक्त चुनाव चिन्हों की तादाद दोगुने से भी ज्यादा बढ़ा दी है. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान आयोग की ऐसी सूची में महज 87 चुनाव चिन्ह थे. लेकिन इस बार इनकी तादाद बढ़ कर 198 हो गई है. इनमें डिजिटल चुनाव चिन्हों की भरमार है.
पहले निर्दलीय उम्मीदवारों और गैर-पंजीकृत राजनीतिक दलों के लिए बैलगाड़ी, कुल्हाड़ी, मोमबत्ती, टोकरी और गाजर, ट्रैक्टर, पंपिंग सेट, चारा काटने की मशीन और हैंडपंप जैसे चुनाव चिन्ह होते थे. लेकिन जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते असर से अब चुनाव चिन्ह भी अछूते नहीं रहे हैं. अब मुक्त चुनाव चिन्हों की सूची में इनके साथ सीसीटीवी कैमरे, कंप्यूटर के माउस, पेनड्राइव, लैपटाप, मोबाइल चार्जर और ब्रेड टोस्टर ने ले ही है. निर्दलीय उम्मीदवारों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों की दलील है कि ऐसे आधुनिक चुनाव चिन्हों से खासकर युवा तबके को लुभाना आसान होता है.
क्या है अलग-अलग चुनावों में खर्च की सीमा
लोकसभा में चुनाव खर्च की सीमा अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग है. ऐसा ही विधानसभा चुनावों के लिए भी है.
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लोकसभा चुनाव
लोकसभा चुनावों में एक सीट पर होने वाले चुनाव खर्च की सीमा अलग-अलग राज्य के हिसाब से अलग-अलग है. 2014 से पहले यह चुनाव खर्च सीमा 40 लाख थी. 2014 में इसे बढ़ाकर कुछ राज्यों में 54 लाख और बाकी जगह 70 लाख कर दिया गया.
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54 लाख खर्च सीमा
तीन राज्य - अरुणाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम और संघ शासित प्रदेश - अंडमान निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली, दमण द्वीप, लक्ष्यद्वीप और पांडिचेरी.
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70 लाख खर्च सीमा
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, ओडिशा, केरल, झारखंड, असम, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड और संघ शासित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली.
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विधानसभा चुनाव
विधानसभा चुनावों में एक सीट पर होने वाले खर्च की राशि भी राज्यों की जनसंख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से अलग-अलग है. कुछ राज्यों में 20 लाख और बाकी राज्यों में 28 लाख है.
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20 लाख खर्च सीमा
तीन राज्य - अरुणाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम और संघ शासित प्रदेश - अंडमान निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली, दमण द्वीप, लक्ष्यद्वीप और पांडिचेरी.
तस्वीर: DW/Payel Samanta
28 लाख खर्च सीमा
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, ओडिशा, केरल, झारखंड, असम, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड और संघ शासित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली.
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दो स्थानीय निकाय
भारत में दो स्थानीय निकाय होते हैं. शहरी स्थानीय निकाय जैसे नगर पालिका, नगर परिषद, नगर निगम हैं और ग्रामीण स्थानीय निकायों में ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद होते हैं. हर राज्य के हिसाब से इनकी अलग-अलग खर्च सीमा होती है. यह सीमा राज्य निर्वाचन आयोग तय करते हैं.
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शहरों में खर्च की सीमा
इन चुनावों में खर्च की सीमा वार्डों की संख्या के हिसाब से तय की जाती है. जहां सभापति का चुनाव सीधे होता है वहां वार्ड की संख्या के हिसाब से खर्च तय होता है. जैसे 2018 में उत्तराखंड में हुए नगरीय निकायों के चुनावों में मेयर अपने चुनाव प्रचार में अधिकतम 16 लाख रुपये खर्च कर सकते थे जबकि डिप्टी मेयर पद के लिए खर्च की सीमा 2 लाख रुपये रखी गई है.
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ऐसे होता है खर्च
इन्हीं चुनावों में नगर पालिका परिषद अध्यक्ष पद के लिए 10 वार्ड तक चार लाख और 10 से अधिक वार्ड पर छह लाख रुपये की सीमा तय थी. नगर पालिका परिषद के सभासदों के लिए खर्च की अधितम सीमा 60 हजार रुपये थी. नगर पंचायत अध्यक्ष पद के उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार में अधिकतम 2 लाख रुपये थी. वहीं नगर पंचायत सदस्यों के लिए खर्च की सीमा 30 हजार रुपये थी.
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गांवों में खर्च की सीमा
ग्रामीण निकायों में भी वार्ड संख्या के हिसाब से खर्च तय किया जाता है. राजस्थान में हुए ग्रामीण निकायों के चुनाव में जिला परिषद सदस्य उम्मीदवार 80 हजार, पंचायत समिति सदस्य उम्मीदवार 40 हजार, सरपंच उम्मीदवार 20 हजार रुपये खर्च कर सकते थे. ये सीमा हर राज्य में अलग-अलग होती है.
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चुनाव आयोग तय करता है दाम
चुनावों में काम आने वाली हर चीज का एक दाम चुनाव आयोग तय करता है. पोस्टर, बैनर से लेकर चाय, समोसा तक के दाम चुनाव आयोग द्वारा तय होते हैं. हर प्रत्याशी को चुनाव के दौरान हुए पूरे खर्च का ब्योरा चुनाव आयोग को देना होता है. निश्चित सीमा से ज्यादा खर्च करने पर नामांकन रद्द हो जाता है.
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राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "चुनाव चिन्हों में आने वाला यह बदलाव भारत के इंडिया में बदलने का संकेत है. दशकों पहले चुनाव चिन्हों का यह सफर बैलगाड़ी और ऐसे ही दूसरे चुनाव चिन्हों के साथ शुरू हुआ था. अब उम्मीदवारों के पास चुनने के लिए रोबोट से लेकर लैपटाप तक हैं.”
पर्यवेक्षकों का कहना है कि तेजी से बढ़ती शहरी आबादी और तकनीक के बढ़ते असर ने चुनाव चिन्हों पर भी असर डाला है. देश में हुए पहले लोकसभा चुनावों के दौरान 90 फीसदी वोटर ग्रामीण इलाकों में रहते थे. वर्ष 1951-52 में होने वाले इन चुनावों में प्रति चार में से तीन यानी तीन चौथाई वोटर अनपढ़ थे. उनको चुनाव चिन्हों की सहायता से ही अपनी पसंदीदा पार्टी और उम्मीदवारों को पहचानने में सहायता मिलती थी. लेकिन वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक अब 37 फीसदी आबादी महानगरों व शहरों में रहती है. इसके साथ ही साक्षरता भी तेजी से बढ़ी है. इस लगातार बढ़ती शहरी आबादी के लिए लैपटाप और मोबाइल फोन अब सामाजिक बदलाव का सशक्त प्रतीक बन गए हैं.
खासकर नए वोटरों में भी ऐसे चुनाव चिन्हों के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. कोलकाता के एक निजी इंजीनियरिंग कालेज में कंप्यूटर साइंस पढ़ने वाले अभिजीत चक्रवर्ती कहते हैं, "चुनाव चिन्ह से पार्टी और उम्मीदवार की मानसिकता का संकेत मिल जाता है. चुनाव चिन्ह देखते ही समझ में आ जाता है कि किसी उम्मीदवार या राजनीतिक पार्टी से क्या उम्मीद रखनी चाहिए.”
इंजीनीयरिंग की एक अन्य छात्रा सुष्मिता घोष कहती हैं, "चुनाव चिन्हों में आने वाला बदलाव स्वाभाविक है. अब बैलगाड़ी, कुल्हाड़ी व कुदाल जैसे चुनाव चिन्हों की प्रसांगिकता खत्म हो चुकी है. शहरों में रहने वाली नई पीढ़ी ने तो बैलगाड़ी जैसी चीजें फिल्मों में ही देखी होंगी.” वह कहती हैं कि नए वोटरों को लैपटाप, मोबाइल व माउस जैसी चीजों के प्रति अपनापन महसूस होता है.
पश्चिम बंगाल की दक्षिण 24-परगना जिले से निर्दलीय के तौर पर मैदान में उतरने का मन बना रहे शुभोजीत भौमिक कहते हैं, "डिजिटल चुनाव चिन्हों से खासकर नए वोटरों को आकर्षित करना आसान है.” शुभोजीत अबकी पेनड्राइव को चुनाव चिन्ह बनाने की सोच रहे हैं.
विश्नवाथ चक्रवर्ती जैसे पर्यवेक्षक कहते हैं कि इन डिजिटल चुनाव चिन्हों से राजनेताओं को युवा तबके के लुभाने में सहायता मिलती है. कई इलाकों में तो महज चुनाव चिन्ह के बल पर ही निर्दलीय उम्मीदवलार तमाम समीकरणों को उलटते हुए बाजी मार ले जाते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि डिजिटल क्रांति के मौजूदा दौर में चुनाव चिन्हों में आने वाला बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है. आने वाले दिनों में इस सूची में कई और नई चीजें शामिल हो सकती हैं.
(दुनिया के 10 सबसे बड़े लोकतंत्र)
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