प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है. खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा.
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भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के अंतर्गत उच्च शिक्षा में अब क्षेत्रीय भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर जोर होगा. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस पर पढ़ाई में इनके इस्तेमाल की बात कही थी. इसी दिशा में काम करते हुए नए शैक्षणिक वर्ष में 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने पांच भारतीय भाषाओं में टेक्निकल कोर्स की शुरुआत कर दी है.
वर्तमान सरकार इस बहुभाषायी उच्च शिक्षा नीति के जरिए समाज के वंचित तबकों को सशक्त करना चाहती है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में आमतौर पर कमजोर तबके से आने वाले स्टूडेंट्स सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करते हैं जिनमें उनके लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान हासिल कर पाना मुश्किल होता है.
देखिएः उच्च शिक्षा में बढ़तीं लड़कियां
उच्च शिक्षा में आगे बढ़ रही हैं लड़कियां
ताजा सरकारी आंकड़े दिखा रहे हैं कि उच्च शिक्षा के जिन क्षेत्रों में लड़कियों लड़कों से पीछे थीं, अब वो उनमें आगे आ रही हैं. जानिए किन क्षेत्रों को पहले ही अपना चुकी हैं लड़कियां और किन क्षेत्रों को अब धीरे धीरे अपना रही हैं.
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कुल नामांकन बढ़ा
2019-20 में उच्च शिक्षा में कुल 3.85 करोड़ छात्रों ने दाखिला लिया. 2018-19 के मुकाबले इस संख्या में 11.36 लाख (3.04 प्रतिशत) की बढ़ोतरी हुई. 2014-15 में यह संख्या 3.42 करोड़ थी.
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लड़कियां आ रहीं आगे
2015-16 से 2019-20 के बीच उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या (सकल नामांकन दर) 18.2 प्रतिशत बढ़ी है. यह सामान्य नामांकन दर में आई 11.4 प्रतिशत की वृद्धि से ज्यादा है. इस उछाल की वजह से देश में उच्च शिक्षा में लड़कियों की नामांकन दर अब 27.3 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जबकि लड़कों की नामांकन दर 26.9 प्रतिशत पर ही है.
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कॉमर्स अपना रही लड़कियां
कॉमर्स एक नया क्षेत्र बन कर उभरा है जिसमें लड़कियों का नामांकन बढ़ रहा है. 2019-20 में पूरे देश में कुल मिला कर 41.6 लाख छात्रों ने बी.कॉम के कोर्स में दाखिला लिया. इनमें 21.3 लाख लड़के थे तो 20.3 लाख लड़कियां. पांच साल पहले तक बी.कॉम में हर 100 लड़कों पर 90 लडकियां हुआ करती थीं, लेकिन अब यह अनुपात बराबर हो गया है.
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गिरा तीसरा बैरियर
बी.कॉम ऐसा तीसरा कोर्स बन गया है जिसमें पिछले पांच सालों में लड़कियों ने लड़कों की बराबरी कर ली है. 2017-18 में डॉक्टरी की पढ़ाई यानी एमबीबीएस और विज्ञान के स्नातक कोर्स यानी बी.एससी में यही हुआ था. बल्कि तब से डॉक्टरी और विज्ञान के स्नातक कार्यक्रमों में लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ दिया है.
तस्वीर: DW/S. Waheed
डॉक्टरी और विज्ञान की पढ़ाई
2017-18 में विज्ञान की पढ़ाई में हर 100 लड़कों पर 100 लड़कियां थीं और डॉक्टरी की पढ़ाई में हर 100 लड़कों पर 101 लड़कियां थीं. अब हर 100 लड़कों पर विज्ञान में 113 लड़कियां हैं और डॉक्टरी में 110.
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कुछ क्षेत्रों में पीछे
इंजीनियरिंग और कानून की पढ़ाई में लड़कियां अभी भी पीछे हैं. बी. टेक के कार्यक्रमों में हर 100 लड़कों पर सिर्फ 42 लड़कियां हैं, और कानून की पढ़ाई में हर 100 लड़कों पर सिर्फ 53 लड़कियां.
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इंजीनियरिंग की गिरती लोकप्रियता
लेकिन आंकड़े दिखा रहे हैं कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई की लोकप्रियता ही गिर रही है. एक तरफ जहां सभी मुख्य उच्च शिक्षा के कार्यक्रमों में नामांकन बढ़ा है, इंजीनियरिंग एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें छात्रों की संख्या गिरी है. स्नातक स्तर पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई में 2018-19 में 38.5 लाख छात्रों के मुकाबले 2019-20 में 37.2 लाख छात्रों ने दाखिला लिया. स्नातकोत्तर स्तर पर भी नामांकन में गिरावट आई है.
तस्वीर: IANS
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हालांकि प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है, खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा. साथ ही यह योजना अपने वंचित तबकों को सशक्त करने के मकसद को पूरा कर सकेगी या नहीं, इस पर भी जानकार असमंजस में हैं.
गणित-विज्ञान विषय में अच्छे
भारत और अन्य एशियाई देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूल स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने अपने अंग्रेजी शिक्षा पाने वाले साथियों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया है. यूं तो ज्यादातर विषयों में बच्चों का स्तर एक जैसा था लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने वाले बच्चे विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ज्यादा अच्छे रहे. शैक्षणिक मनोविज्ञान भी मानता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई के कई फायदे होते हैं.
जानकारों के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों की हाजरी अच्छी रही है और उनमें पढ़ाई के प्रति ज्यादा लगन दिखी है. इसके अलावा उन्हें पढ़ाई में अभिभावकों की ओर से भी अतिरिक्त मदद मिल जाती है. शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि अभिभावक भी मातृभाषा में पढ़ाए जा रहे विषयों को समझ पाते हैं. जानकार मानते हैं कि जब इन बातों को वंचित तबकों के स्टूडेंट्स के नजरिए से देखा जाता है तो क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है.
अंग्रेजी की जरूरत रहेगी
हालांकि जानकार अंग्रेजी की पढ़ाई के खिलाफ नहीं हैं. उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज की कुलपति और शैक्षणिक मनोविज्ञान की जानकार सीमा सिंह कहती हैं, "पढ़ाई के माध्यम के तौर पर 'मातृभाषा बनाम अंग्रेजी' की लड़ाई से अच्छा है 'मातृभाषा संग अंग्रेजी' का नजरिया अपनाया जाना चाहिए." यानी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी की शिक्षा की आवश्यकता बनी रहेगी और शुरुआती पढ़ाई के दौरान ही इसे सिखाया जाने लगेगा.
तस्वीरेंः मूलभूत सुविधाएं भी नहीं
भारत के स्कूलों में नहीं हैं मूल सुविधाएं
भारत सरकार की एक ताजा रिपोर्ट में सामने आया है कि देश के स्कूलों में बड़े पैमाने पर बिजली, शौचालय, किताबें, कंप्यूटर आदि जैसी मूल सुविधाएं नहीं हैं. अच्छी खबर है कि इसके बावजूद स्कूलों में नामांकन बढ़ रहा है.
शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई +) की ताजा रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2019-20 में प्राथमिक से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर पर नामांकन कराने वाले बच्चों की संख्या में पिछले साल के मुकाबले 1.6 प्रतिशत (42.3 लाख) की बढ़ोतरी हुई. विशेष रूप से लड़कियों का नामांकन भी काफी बढ़ा है.
तस्वीर: DW/Prabhakar
सुविधाएं गायब
लेकिन नामांकन की यह सकारात्मक तस्वीर सुविधाओं के अभाव को ढक नहीं पाई. यहां तक कि करीब 17 प्रतिशत स्कूलों में बिजली तक नहीं है.
तस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture-alliance
किताबें
रिपोर्ट के मुताबिक 84.1 प्रतिशत स्कूलों में लाइब्रेरी या किताबें पढ़ने के लिए एक कमरा है, लेकिन किताबें सिर्फ 69.4 प्रतिशत स्कूलों में हैं.
तस्वीर: Reuters/P. Waydande
कंप्यूटर
शहरों की तस्वीर देख कर शायद आपको लगे कि सोशल मीडिया के इस जमाने में स्कूलों में कंप्यूटर तो होंगे ही. लेकिन असलियत ये है कि आज भी 61 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में कंप्यूटर नहीं हैं.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
इंटरनेट
इंटरनेट की उपलब्धता की तस्वीर और ज्यादा खराब है. देश के करीब 78 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट नहीं है. जहां कंप्यूटर नहीं हैं वहां तो इंटरनेट होने का सवाल पैदा ही नहीं होता, लेकिन कई ऐसे भी स्कूल हैं जहां कंप्यूटर होने के बावजूद इंटरनेट नहीं है.
तस्वीर: dapd
विकलांगों के लिए सुविधाएं
स्कूलों में विकलांग छात्रों के लिए भी सुविधाओं का भारी अभाव है. करीब 30 प्रतिशत स्कूलों में व्हीलचेयर चढ़ाने के लिए रैंप नहीं है और लगभग 79 प्रतिशत स्कूलों में विकलांगों के लिए अलग से शौचालय तक नहीं है.
तस्वीर: P. Samanta
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बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग की प्रोफेसर अंजली बाजपेयी के मुताबिक, "कई रिसर्च बताते हैं कि छोटे बच्चे (2 से 8 साल के) नई भाषाओं को ज्यादा तेजी से सीखते हैं. इसलिए यह एक सही उम्र है, जब बच्चों को कम्युनिकेशन के लिए एक विदेशी भाषा सिखाई जा सकती है."
रिसर्च सामग्री की कमी
क्षेत्रीय भाषाओं में विषयों की जानकारी पाने के लिए एक दशक पहले के मुकाबले अब स्टूडेंट्स के पास बहुत से साधन हैं. यूट्यूब पर लगभग हर विषय के बारे में हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी पाई जा सकती है. हजारों की संख्या में क्षेत्रीय स्टडी चैनल इस पर मौजूद हैं, जिन पर लाखों की संख्या में व्यूज आते हैं.
इससे साफ हो जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में शैक्षिक सामग्री की काफी मांग है. हाल ही में शिक्षा से जुड़े कई स्टार्टअप क्षेत्रीय भाषाओं में जगह बनाने की कोशिश शुरू कर चुके हैं.
सरकार भी इसमें साथ दे रही है. ऐसे में माना जा सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई से उच्च शिक्षा में गरीबी और अमीरी के अंतर को खत्म किया जा सकता है लेकिन वहीं दूसरी ओर इस रास्ते पर चलने के कई डर भी हैं.
यह डर पहले के ऐसे प्रयोग से निकले हैं जो याद दिलाते हैं कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) ऐसे प्रयास करने के बावजूद नाकाम रहा है. ऐसी कोशिश में सबसे बड़ी चुनौती अध्ययन सामग्री जैसे किताबों और रिसर्च पेपर वगैरह की कमी होती है.
अनुवाद का बड़ा कार्यक्रम
इस कमी को पूरा करने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (AICTE) ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग कर किताबों, अकादमिक पत्रिकाओं और वीडियो का हिंदी अनुवाद करने वाला उपकरण पेश किया है. हालांकि इन अनुवादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना सबसे जरूरी बात होगी ताकि अर्थ संबंधी गड़बड़ियों को दूर किया जा सके. इतना ही नहीं भाषा और मशीन लर्निंग में ऐसे प्रयास बहुत बड़े स्तर पर करने होंगे जिनके लिए काफी पैसों की जरूरत होगी.
तस्वीरेंः जर्मनी में सरकारी स्कूलों का चलन
जर्मनी में है बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का चलन
भारत के शहरों में ज्यादातर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पंसद करते हैं. लेकिन जर्मनी में ठीक इसका उल्टा है. जानिए कैसा है यहां का स्कूल सिस्टम.
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स्कूल जाना जरूरी
जर्मनी में बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं. उससे पहले तक वे किंडरगार्टन जा सकते हैं. 6 से 15 की उम्र तक स्कूल जाना अनिवार्य है. बच्चों को स्कूल ना भेजने पर माता पिता या अभिभावकों को सजा हो सकती है. होम स्कूलिंग यानी बिना स्कूल के घर से ही पढ़ाई करने पर मनाही है. हर राज्य के नियम थोड़े बहुत अलग हैं.
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प्राथमिक शिक्षा
स्कूल का पहला दिन बच्चों के लिए खास होता है. सभी बच्चों को टॉफी, चॉकलेट, पेन, पेंसिल और अन्य काम की चीजों से भरा एक उपहार मिलता है. अगले दिन संजीदगी से पढ़ाई शुरू होती है. अधिकतर राज्यों में बच्चे चार सालों तक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं यानी पहली से चौथी कक्षा तक लेकिन बर्लिन में प्राथमिक शिक्षा छह साल तक चलती है.
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स्कूल का चयन
चौथी क्लास के बाद बच्चों का स्कूल बदलता है. वे किस स्कूल में जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर ने उनके लिए क्या तय किया है. हालांकि नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में माता पिता टीचर की सिफारिश को नजरअंदाज कर सकते हैं. बच्चा किस तरह के स्कूल में जाता है, इससे तय होता है कि वह आगे चल कर यूनिवर्सिटी की डिग्री लेगा या फिर वोकेशनल कोर्स करेगा.
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जिमनेजियम
शब्द बिल्कुल वैसे ही लिखा जाता है लेकिन इसका कसरत करने वाले जिम से कोई लेना देना नहीं है. इस तरह के माध्यमिक स्कूल में बच्चे यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी करते हैं. 12वीं (और कुछ मामलों में 13वीं) क्लास के बाद एक खास किस्म की परिक्षा देनी होती है, जिससे यूनिवर्सिटी में दाखिले की योग्यता तय होती है. इस स्कूल में बच्चों को विज्ञान, गणित, दर्शनशास्त्र और खेल, सब विषय पढ़ने होते हैं.
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दूसरा रास्ता
जो बच्चे जिमनेजियम (जर्मन में गिमनाजियम) में दाखिला नहीं ले पाते या नहीं लेना चाहते उनके लिए रेआलशूले का विकल्प होता है. पांचवीं से दसवीं क्लास तक ये लगभग दूसरे स्कूल वाले ही विषय पढ़ते हैं लेकिन स्तर में थोड़ा अंतर होता है. बाद में अगर ये बच्चे चाहें तो यूनिवर्सिटी में दाखिले की परिक्षा भी दे सकते हैं. इसे आबीटूयर या फिर स्कूल लीविंग एग्जाम कहा जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Weigel
तीसरा रास्ता
एक अन्य विकल्प है हाउप्टशूले. इन बच्चों को भी शुरुआत में लगभग वही विषय पढ़ाए जाते हैं लेकिन बेहद धीमी गति से. यहां से निकलने वाले बच्चे आगे चल कर वोकेशनल ट्रेनिंग करते हैं. जर्मनी में वोकेशनल ट्रेनिंग पर काफी जोर दिया जाता है. हालांकि बाद में अपना मन बदलने वाले छात्रों के लिए आबीटूयर का रास्ता यहां बंद नहीं होता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Hoppe
चौथा विकल्प
कुछ स्कूल ऐसे होते हैं जो पहले तीनों विकल्पों को एक साथ ले कर चलते हैं. इन्हें गेजाम्टशूले कहा जाता है. 1960 और 70 के दशक में जर्मनी में इनका चलन बढ़ा. यहां छात्र चाहें तो 13वीं तक पढ़ाई करें, या फिर 9वीं या 10वीं के बाद ही किसी तरह की ट्रेनिंग ले कर नौकरी करना शुरू कर सकते हैं. इस स्कूल की मांग इतनी है कि 2018 में कोलोन शहर को एक हजार अर्जियां खारिज करनी पड़ी थीं.
तस्वीर: picture-alliance/imageBROKER/u. umstätter
कोई गारंटी नहीं
पांचवीं और छठी क्लास बच्चों के लिए एक टेस्ट जैसी होती है. इन दो सालों में वे जैसा प्रदर्शन करते हैं, उस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर उन्हें उसी स्कूल में रहने देते हैं या फिर स्कूल बदलने की सिफारिश करते हैं. ऐसे में होनहार बच्चों को जिमनेजियम का मौका मिल सकता है. लेकिन इसका मतलब यह भी है कि डट कर पढ़ाई ना करने पर रेआलशूले जाना पड़ सकता है.
तस्वीर: Gymnasium "Mesa Selimovic" Tuzla
वोकेशनल स्कूल
इन्हें बेरूफ्सशूले कहा जाता है यानी वह स्कूल जहां कोई पेशा सीखा जा सके. अकसर ये स्कूल इंडस्ट्री या ट्रेड यूनियन के साथ मिल कर काम करते हैं. ऐसे में बच्चे रेआलशूले या हाउप्टशूले से निकलने के बाद पेशेवर ट्रेनिंग ले सकते हैं. वे किसी फैक्ट्री में काम करना सीख सकते हैं या फिर हेयर ड्रेसर या मेक अप आर्टिस्ट भी बन सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
विकलांग बच्चों के लिए
विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए अलग से स्कूल होते हैं और अगर वे चाहें तो सामान्य स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं. नेत्रहीन या व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वाले बच्चे अकसर फोर्डरशूले या फिर जौंडरशूले में जाते हैं. हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे भेदभाव बढ़ता है लेकिन दूसरी ओर इन विशेष स्कूलों में उनकी जरूरतों का ख्याल भी बेहतर रूप से रखा जा सकता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Weigel
नामों का झोल
हर राज्य में कुछ ना कुछ अलग होता है. इन सब विकल्पों के अलावा भी कुछ विकल्प हैं. कहीं हाउप्टशूले और रेआलशूले का मिलाजुला रूप ओबरशूले के रूप में मौजूद है, तो कहीं मिटलशूले और गेमाइनशाफ्ट्सशूले भी हैं. जर्मन शब्द शूले का मतलब होता है स्कूल. इतने तरह के स्कूल हैं कि कई बार यहां रहने वाले लोगों के लिए भी ये उलझन का सबब बन जाते हैं.
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वक्त भी तय नहीं
किसी स्कूल की 12 बजे ही छुट्टी हो जाती है, तो कोई 4 बजे तक खुला रहता है. किसी में डे बोर्डिंग का विकल्प होता है, तो किसी में नहीं होता. ऐसे में कामकाजी माता पिता के लिए दिक्क्तें बढ़ जाती हैं. डे बोर्डिंग में बच्चों को खाना भी मिल जाता है और वे वहीं बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर सकते हैं. इसके लिए अतिरिक्त शुल्क लगता है. अधिकतर स्कूलों की फीस ना के बराबर होती है.
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तरह तरह के स्कूल
ये था सरकारी स्कूलों का ढांचा. अधिकतर लोग इन्हीं को चुनते हैं. लेकिन इनके अलावा प्राइवेट स्कूल भी हैं. कुछ लोग मॉन्टेसरी को पसंद करते हैं, तो कुछ वॉल्डोर्फ को. साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी होते हैं, जहां ज्यादातर पढ़ाई अंग्रेजी में होती है. कुछ लोग अपने बच्चों को बोर्डिंग में दूसरे शहर भी भेजते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये बेहद महंगे होते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Stratenschulte
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सीमा सिंह कहती हैं, "क्षेत्रीय भाषाओं में रिसर्च कंटेंट की कमी दूर करने के लिए अनुवाद अच्छा जरिया है. तकनीकी इसमें काफी मदद कर सकती है. लेकिन टेक्नोलॉजी जैसे विषयों में तेजी से बदलाव आते हैं. ऐसे में कुछ ऐसी समितियों को बनाया जाना चाहिए जो उन बदलावों को जल्द से जल्द पाठ्यक्रम में शामिल करने पर काम कर सकें. साथ ही ये समितियां भाषा को सरल और समझ आने लायक बनाए रखने की कोशिश भी करें."
नौकरी और शिक्षक दोनों ढूंढना मुश्किल
जानकार कहते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले ग्रेजुएट्स का प्लेसमेंट फिर भी एक समस्या होगा. कई सरकारी एंजेसियां एंट्री-लेवल नौकरियों के लिए सिर्फ अंग्रेजी में परीक्षाएं कराती हैं, इसे भी बदलने की जरूरत होगी. भारत में कॉलेज-शिक्षित बेरोजगारी पहले ही अधिक है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई इसे और बढ़ा कर सकती है. यह भारत जैसे देश में भाषा के आधार पर बंटवारा भी कर सकती है जिससे वंचित समुदायों में आत्मविश्वास पैदा होने के बजाए, उसका उल्टा असर भी हो सकता है.
नर्सरी की कमाई से बदली जिंदगी
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एक समस्या क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी भी होगी. भारत में उच्च-शिक्षा के लिए ज्यादातर अंग्रेजी का बोलबाला रहा है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले अच्छे शिक्षकों को खोजना भी चुनौतीपूर्ण होगा. मसलन एआईसीटीई ने क्षेत्रीय भाषाओं में कम्यूटर साइंस और इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए अनुमति दे दी है. इनमें कोडिंग करनी होती है. जिसमें प्राथमिक स्तर पर ही अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है. ऐसी स्थिति में स्टूडेंट्स को अलग से ट्रेनिंग की जरूरत पड़ सकती है.
अंतर घटेगा या बढ़ेगा
जानकार मानते हैं कि इस पूरे मामले में ग्लोबलाइजेशन को भी ध्यान में रखना चाहिए. नई शिक्षा नीति, शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना चाहती है लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने से स्टूडेंट्स को नॉलेज ट्रांसफर का लाभ मिलने में बाधा आ सकती है.
जानकारों के मुताबिक ऐसा भी हो सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा पाने वाले स्टूडेंट्स अंग्रेजी में पारंगत न होने के चलते अंतरराष्ट्रीय नौकरियां न हासिल कर सकें, जिससे ब्रेन ड्रेन में कमी लाने में मदद मिले. लेकिन यह नीति समृद्ध और गरीब लोगों के बीच के अंतर को पाटने के अपने उद्देश्य में भी सफल हो पाएगी इसमें संशय है. ऐसे में ग्लोबलाइजेशन के दौर में एक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की देने के मामले पर काफी सोच-विचार की जरूरत होगी.