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ऊंची विकास दर और भारत की चुनौतियां

४ जून २०१०

इस सप्ताह जर्मन मीडिया में सुर्खियों में रही आर्थिक विकास दर और भारत के सामने बढ़ती चुनौतियां तथा पाकिस्तान में अल क़ायदा से लड़ाई में ड्रोन पर बढ़ती निर्भरता.

जहां पश्चिमी दुनिया आर्थिक मंदी से उबरने के सपने देख रही है, भारत और चीन फिर से ऊंची विकास दर पर पहुंच गए हैं. उन्हें विश्व अर्थव्यवस्था के विकास का मोटर बताया जा रहा है. लेकिन जर्मन इंस्टीच्यूट ऑफ़ ग्लोबल एंड एरिया स्ट्डीज़ के एक विश्लेषण में कहा गया है कि उल्लेखनीय आर्थिक सफलताओं के बावजूद चीन और भारत विशाल सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.

पर्यावरण की चुनौतीतस्वीर: picture-alliance / dpa

आर्थिक प्रगति की राह पर दोनों देशों में, ख़ासकर चीन में ग़रीबी में स्पष्ट कमी हुई है, लेकिन चीन और भारत दोनों में ही असंतुलन बढ़ा है. वेतन और स्वास्थ्य सेवा तथा शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं में विषमता सामुदायिक विवाद भड़का सकती हैं और सामाजिक स्थिरता को ख़तरे में डाल सकती है देहाती आबादी के शहरों में जाने से दोनों देशों में आय और शिक्षा पर असर पड़ रहा है, संरचना और समाज कल्याण व्यवस्था पर भी भारी दबाव पड़ रहा है. दोनों देश बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रदूषण का सामना कर रहे हैं,जो विकास की प्रक्रिया को नुकसान पहुंचा रहा है. संरचना का अपर्याप्त विस्तार पहले की ही तरह विकास में बाधक है, ख़ासकर भारत में और चीन के देहाती क्षेत्रों में.

बर्लिन से प्रकाशित दैनिक टागेसश्पीगेल ने पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर हुए माओवादी हमले पर टिप्पणी की है, जिसमें सौ से अधिक लोग मारे गए. अखबार लिखता है

माओवादी हमलातस्वीर: AP

ट्रेन पर हमले के साथ भारत का यह भुला दिया गया युद्ध एक नई, ख़ूनी चोटी पर पहुंच गया है. असैनिक नागरिकों पर हमले अब तक माओवादी छापामारों के लिए सामान्य नहीं थे, जो भारत में साम्यवादी जनवादी गणराज्य बनाना चाहते हैं और दावा करते हैं कि वे अधिकारों से वंचित ग्रामीण आबादी के लिए लड़ रहे हैं. वे अत्यंत ग़रीब आदिवासियों के बीच से अपने लड़ाके भर्ती करते हैं. अब तक वे सुरक्षा बलों और सरकारी संस्थानों को निशाना बनाते थे. लेकिन सरकार द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शब्दों में आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े ख़तरे के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किए जाने के बाद से माओवादी विद्रोहियों ने पिछले महीनों में अपने हमलों में तेज़ी ला दी है.

चार दशकों से माओवादी विद्रोही सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं. यह संघर्ष इस बीच अरबों में पहुंचने वाली धनराशि के बराबर निवेशों के लिए ख़तरा बन गया है. साप्ताहिक समाचार पत्रिका डेअ श्पीगेल का कहना है कि खनिज सम्पदा वाले जंगली इलाकों पर नई दिल्ली की टुकड़ियां नियंत्रण खो चुकी हैं.

जंगल में पेड़ों की चोरीतस्वीर: UNI

पश्चिम की नज़रों से बहुत हद तक दूर, उपमहाद्वीप के दुर्गम जंगलों में एक सपना दांव पर लगा है-- शाइनिंग इंडिया, विश्व सत्ता बनने की राह पर चमकते, समृद्ध भारत का सपना. लेकिन औसत सात फ़ीसदी सालाना विकासदर की गारंटी लंबे समय तक अकेले मेहनती किसानों, टैनरी मजदूरों और सॉफ़्टवेयर कर्मियों की मदद से नहीं दी जा सकती. अभी तक अनुपयुक्त अरबों यूरो की भूसंपदा उन इलाकों में है जहां माओवादियों का गढ़ है. लेकिन इस संपदा के फौरी दोहन और उसके न्यायोचित बंटवारे के संकेत अच्छे नहीं हैं. ऐसा लगता है कि माओ-बाइबल लिए मार्च पर निकले मर्द अपने इरादों के प्रति गंभीर हैं. प्रधानमंत्री सिंह नेपाल, कश्मीर और श्रीलंका के विद्रोहियों के साथ भारतीय माओवादियों के गठजोड़ की चेतावनी दे चुके हैं.

देश के अंदर मुश्किलें हैं तो भारतीय उद्योगपति पश्चिमी देशों में कंपनियों के अधिग्रहण की तैयारी कर रहे हैं. यूरो की घटती दर और स्वयं अपनी वित्तीय ताक़त उनके लिए मौक़ा लेकर आई है, लेकिन फ़्रैंकफ़ुर्ट से प्रकाशित दैनिक फ़्रांकफ़ुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग का कहना है कि हर ख़रीद का अंत सुखद नहीं रहा है. अखबार इसके कारण गिनाते हुए कहता है

भारतीयों की भारी मुनाफ़े की ललक भी ख़तरनाक लगती है. भारत में सीमेंस के प्रमुख आर्मिन ब्रुइक कहते हैं, "यहां हर कोई दो अंकों में सोचता है." साथ ही, अक्सर अरबों की विरासत से लैस आत्मविश्वासी भारतीय उद्योगपति यूरोपीयों को शुरू में चीनियों की अपेक्षा सुगम लगते हैं, लेकिन उन्हें आलोचना, विरोध और फ़ैसले को उचित ठहराए जाने की आदत नहीं होती. भारत में उनके शब्दों का वज़न जर्मन मैनेजरों या ट्रेड यूनियन नेताओं के सामने के वजन से अधिक होता है. अंतरसांस्कृतिक विवाद भले ही उतना स्पष्ट हो, जितना दूसरे एशियाई मैनेजरों के मामले में, लेकिन उसे झुठलाया नहीं जा सकता.

भारत के बाद अब पाकिस्तान. नौए त्स्युइरिषर त्साइटुंग का कहना है कि अल क़ायदा का एक प्रमुख नेता मुस्तफ़ा अबु अल-याज़िद अफ़ग़ानिस्तान से लगी पाकिस्तानी सीमा में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया है. पिछले सालों में ऐसी रिपोर्टें ग़लत साबित होती रही हैं, लेकिन इस बार पहली बार अल क़ायदा ने मौत की पुष्टि की है.

अमेरिकी ड्रोन प्रीडेटरतस्वीर: AP

यदि ये ख़बर इस बार सच साबित होती है, तो यह आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में अमेरिका की सम्मानजनक सफलता होगी. वाशिंग्टन में एक सरकारी प्रवक्ता ने कहा है कि मारे गए अल क़ायदा नेता ने अपनी अंगुलियां हर जगह उलझा रखी थीं और हमलों की योजना में भी उसकी अहम भूमिका थी. वह उन कुछेक लोगों में शामिल था, जिनका बिन लादेन के साथ सीधा संपर्क था. अल-याज़िद की मौत अल्पकालिक रूप से आतंकी संगठन के लिए विफलता है, लेकिन मध्यकालिक रूप से वह अल क़ायदा की ताक़त को बहुत प्रभावित नहीं करेगी. अल क़ायदा ने बार बार दिखाया है कि वह मारे गए या गिरफ़्तार किए गए नेताओं के स्थान पर नए लोगों को लाने में सक्षम है.

म्यूनिख़ से प्रकाशित दैनिक ज़्युड डॉयचे त्साइटुंग का कहना है कि मानवरहित ड्रोन विमानों के हमले इस बीच आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में अमेरिका का सबसे घातक हथियार बन गये हैं. अखबार इन हमलों की आलोचना करते हुए लिखता है

इनमें असैनिक नागरिक भी मरते हैं, एक त्रासदी है.यह.. अंततः. लेकिन उग्रवाद पर सिर्फ़ असैनिक साधनों से जीत हासिल की जा सकती. ओबामा सरकार अपनी पाकिस्तान नीति में गंभीर ग़ल्ती कर रही है. जैसे, यह नासमझी है कि जब एक उच्चाधिकारी अमेरिकी अख़बारों से कहता है कि यदि अमेरिकी लोगों पर पाकिस्तानी भूमि से नियोजित हमला होता है तो अमेरिका की प्रतिक्रिया भारी बमबारी होगी. इस तरह के बयान पाकिस्तानियों का गुस्सा बढ़ाते हैं. उन्हें लेकिन यह अहसास होना चाहिए कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई उनके भी फ़ायदे में लड़ी जा रही है. अन्यथा अमेरिका अपनी दुखद छवि को और पुख्ता करेगा.

संकलन: आना लेमन/महेश झा

संपादन: राम यादव

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