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एक किताब ने छेड़ी थी बहस

२२ अगस्त २०११

अगस्त 2010 में जर्मन संघीय बैंक के निदेशक थीलो सारात्सिन की किताब आने के बाद कई सप्ताह तक देश की आप्रवासन नीति पर बहस छिड़ गई थी. इस बहस ने जर्मनी की आप्रवासी नीति पर अपनी छाप छोड़ी.

थीलो सारात्सिनतस्वीर: dapd

थीलो सारात्सिन की किताब का नाम भी बहुत भड़काऊ था, जर्मनी खुद को समाप्त कर रहा है. देश की वामपंथी एसपीडी पार्टी से जुड़े सारात्सिन ने अपनी किताब में मुसलमानों को समाज में न घुलने मिलने वाला और जर्मनी के लिए खतरा बताया है. उनकी किताब कई सप्ताह तक बेस्टसेलर लिस्ट पर चोटी पर रही.

इसका अनुभव बॉन टानेनबुश में किताब की दुकान "गोएथे और हफीज" को भी हुआ. इस इलाके में बहुत से आप्रवासी और कम आय वाले लोग रहते हैं. किताब दुकान के मालिक आफ्रोसियोब हायदरियान अपनी दुकान को संस्कृतियों के बीच पुल मानते हैं और इसलिए उन्होंने दुकान का नाम जर्मनी और ईरान के दो विख्यात लेखकों गोएथे और हफीज के नाम पर रखा है. 30 अगस्त को सारात्सिन की किताब के रिलीज होने के बाद ईरानी मूल के हायदरियान ने उसे प्रमुखता से स्टॉल पर रखा. बिक्री ने उन्हें सही ठहराया. कहते हैं, "छोटी दुकान होने के नाते यह बहुत ही अच्छा था. हमने यहां 97 से 100 किताबें बेचीं."

तस्वीर: picture-alliance/dpa

लोगों में जबरदस्त उत्साह

मुख्य रूप से जर्मनों ने पिछले साल सारत्सिन की किताब खरीदी, लेकिन उसे खरीदने वालों में कुछ आप्रवासी भी थे. अब तक उसकी 13 लाख प्रतियां बिकी हैं. सारात्सिन की राय में गलत आप्रवासन नीति, मुस्लिम आप्रवासियों के घुलने मिलने से इनकार और जर्मनी के लिए भावी खतरे पर गरमागरम बहस छिड़ गई. लेकिन इस बहस में सारात्सिन का व्यक्तित्व भी अछूता नहीं रहा. आलोचकों ने उन पर लफ्फाजी और नस्लवाद का आरोप लगया तो समर्थकों को लगा कि आखिरकार कोई सच कहने वाला तो हुआ. किताब विक्रेता हायदरियान कहते हैं, "उन्होंने अपनी राय लिख दी है. संभव है कि कुछ गलत हों, लेकिन गलत की आलोचना हो सकती है, अच्छे पर नजर रखी जा सकती है और उसे स्वीकार किया जा सकता है, न कि बस नकार देना है."

सारात्सिन हर जबान पर थे. बहस दफ्तरों में हो रही थी और घरों में भी. एक साल बाद क्या बचा है? जर्मनी की राजधानी बर्लिन के आप्रवासी समस्या वाले जिले नौए कौएल्न के मेयर हाइन्त्स बुशकोव्स्की कहते हैं कि सारात्सिन की वजह से यह विषय घर घर तक पहुंचा है. लेकिन उनका यह भी कहना है कि एक साल बाद उनके इलाके का माहौल पहले के मुकाबले अधिक उत्तेजनापूर्ण है. यहां 3 लाख की आबादी में एक तिहाई से अधिक विदेशी मूल के लोग हैं. सालों से आप्रवासी मजदूरों पर काम करने वाले फ्राइबुर्ग के प्रोफेसर उलरिष हैर्बर्ट नहीं मानते कि सारात्सिन की टिप्पणियों ने मुसलमान आप्रवासियों और जर्मनों के संबंधों को नुकसान पहुंचाया है. "मेरी राय है कि घुलने मिलने और विदेशियों पर उत्तेजक बहस विदेशियों और जर्मनों के संबंधों को सिर्फ हाशिए पर छूता है."

तस्वीर: picture alliance/dpa/Bearbeitung:DW

आप्रवासियों का आत्मविश्वास बढ़ा

किताब छपने के बाद कम से कम पहले तीन महीनों में बर्लिन की हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय की राजनीतिशास्त्री नाइका फोरूतान ने यही महसूस किया. "आप देख सकते थे कि खासकर मुस्लिम पृष्ठभूमि वाले आप्रवासियों में शुरुआत में पीछे हटने जैसी भावना थी कि तूफान जल्द गुजर जाए." उसके बाद उन्होंने भी बहस में हिस्सा लेना शुरू किया. फोरूतान का मानना है कि इस बहस के कारण वे अपने को समाज का हिस्सा समझने लगे हैं. उन्होंने सारात्सिन के सिद्धांतों पर एक अध्ययन करवाया है जिसमें उनके कुछ सिद्धांतों पर वैज्ञानिक रूप से सवाल उठाए गए हैं.

इतिहासकार प्रोफेसर हर्बर्ट का मानना है कि सारात्सिन की किताब से उठ खड़ा विवाद का भविष्य में बहुत थोड़ा ही महत्व रहेगा. उसके मुद्दों पर कम ही चर्चा हुई और न ही वह अपने प्रकार की पहली बहस थी. उनका कहना है कि विदेशी रहें या न रहें, वे समेकित हैं या नहीं और उनका व्यवहार सही है या नहीं जैसी बहसों के बदले साफ साफ तय किया जाना चाहिए कि साहचर्य के लिए क्या जरूरी है. वे कहते हैं, "इस देश में जर्मनों और विदेशियों के व्यवहार में स्पष्ट नियम और सीमाएं हों. और हम इसकी व्याख्या करें तथा समाज में उस पर साझी राय बने."

रिपोर्ट: क्लाउडिया प्रीवेजानोस/मझा

संपादन: ए जमाल

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