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एक दिन जिसने दुनिया बदल दी

११ सितम्बर २०११

अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमलों के बाद पिछले दस सालों में क्या बदला है? पहली नजर में बहुत कम, लेकिन हकीकत में बहत कुछ, कहना है डॉयचे वेले के मुख्य संपादक मार्क कॉख का.

एक दशक बाद ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं बदला है. संयुक्त राज्य अमेरिका को दुनिया की सारी समस्याओं का जिम्मेदार माना जाता है. जर्मनी खुद में उलझा रहता है, तब तक जब तक कि कोई अमेरिकी कार्रवाई के खिलाफ नैतिकता के नाम पर बहस नहीं छेड़ देता, जिसमें अल कायदा के संस्थापक ओसामा बिन लादेन की  मौत हुई. और इतिहास के सबसे भयानक आतंकी हमले के दस साल बाद किताबें छप रही हैं जो साबित करना चाहती हैं कि 11 सितंबर 2001 कोई ऐसा दिन नहीं था जिसने दुनिया बदल दी. मानवीय मानकों पर न मापी जा सकने वाली त्रासदी को एक आम ऐतिहासिक घटना बताने के ऐसे लाचार प्रयासों को मनोवैज्ञानिक रूप से समझा जा सकता है लेकिन राजनीतिक तौर पर वे गलत हैं और नैतिक तौर पर निंदनीय हैं. क्योंकि 9/11 ने दुनिया को जिस तरह बदला है उतना पिछले दशकों में शायद ही किसी और तारीख ने किया है. अब उसके पहले और उसके बाद की बात होती है. यह तारीख एक पड़ाव है जिसकी गहराई में विचारधाराएं, सिद्धांत, और राजनीतिक अवधारणाएं डूब गई हैं. इसकी वजह से पैदा हुई दरारें अब तक भरी नहीं जा सकी हैं.

तस्वीर: DW

यह बात खासकर पश्चिम के लिए लागू होती है. पिछले दस सालों में स्पष्ट नीतियों और पहल के साथ इस्लामी आतंकवाद और उसके समर्थकों की चुनौतियों का मुकाबला करने के बदले उसने बार बार हड़बड़ी में समझदारी दिखाने के संकेत दिए हैं. सबसे बेतुकी मिसाल थी पैगंबर मोहम्मद पर बनाए गए कुछ आपत्तिजनक कार्टूनों पर डर वाली प्रतिक्रिया. लेकिन इससे भी बढ़कर, खासकर जर्मनी में शुरू हुई बहस है कि ओसामा बिन लादेन जैसे हत्यारे को मारना अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुरूप है या नहीं.

इस तरह की बहस दिखाती है कि  9/11 के हमलों ने पश्चिमी मूल्यों को कितना झकझोर दिया है. निश्चित तौर पर अमेरिका के बेहतरीन राष्ट्रपतियों में शुमार न होने वाले जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने हमले के दो दिन बाद कहा था, "हम आजादी और उस सबकी जो अच्छा और न्यायोचित है, रक्षा करेंगे." यह सरल और निर्णायक वाक्य इस बीच गुआंतानामो, अबु गरैब और आतंकवाद विरोधी संघर्ष में मारे गए हजारों लोगों पर न्यायसंगत आक्रोश की बलि चढ़ गया है. उनके रुख की बेलागी और स्पष्टता पर दाग लग गया है. यह सिर्फ 9/11 के शिकारों का उपहास ही नहीं करता, जिन्हें वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में लगी आग में या 400 मीटर की ऊंचाई से कूदकर होने वाली मौत को चुनना था. यह आखिरकार अपराधियों और शिकारों की भूमिका तय करता है.

बुश के वाक्य के कुछ ठोस और पलटे न जा सकने वाले नतीजे आंखों से ओझल हो गए हैं. अफगानिस्तान अब  इंसानों का तिरस्कार करने वाले कट्टरपंथी धर्मांध गुटों के हाथ में नहीं है. इराक में तानाशाही समाप्त हो चुकी है और वह लोकतंत्र की राह पर  है. और पश्चिम एशिया की क्रांतियां भी आखिरकार लोकतंत्र और आजादी के लिए बार बार दुहराए जाने वाले समर्थन का नतीजा है.

आतंकवाद को कभी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. हिंसा की वैकल्पिक भाषा के तौर पर भी नहीं, जैसा कि कभी कभी समझदारी दिखाने वाले लोग कहते हैं. 9/11 के दस साल बाद , डॉयचे वेले का मल्टी मीडिया विशेष इसे सभी आयामों में दिखाता है. एकल लोगों पर, पूरे  इलाकों पर और हम सबके लिए संभावनाओं पर अपनी रिपोर्टों में.  एक दिन, जिसने पूरी दुनिया बदल दी.

समीक्षा: मार्क कॉख/मझा

संपादक: ए जमाल

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