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एक दिल्ली, खेलवालों की

१२ दिसम्बर २०११

दिल्ली दिलवालों की अक्सर ऐसा कहा जाता है. आम आदमी के लिए भारत की राजधानी शायद दिल वालों की ही है. लेकिन अगर दिल से हट कर झांकें तो पता लगेगा की किसी वक़्त दिल्ली खेल वालों की भी थी.

तालकटोरा स्टेडियमतस्वीर: AP

भले ही दिल्ली को तीन बड़े खेलों 1951 और 1982 के एशियाड और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए जाना जाता हो लेकिन यहां बड़े छोटे स्टेडियमों के अलावा बहुत शानदार खुले घास के मैदान थे जहां दिल्ली वाले दिल भर के खेलते थे. क्रिकेट, हॉकी और फुटबॉल के साथ कुश्ती और दंगल भी होते थे और शाम को शायद ही कोई बच्चा घर में बैठता था.

फिरोजशाह कोटला क्रिकेट स्टेडियम दिल्ली का सबसे पुराना स्टेडियम है. साल 1883 में बने इस स्टेडियम के साथ क्रिकेट का इतिहास जुड़ा है. चाहे वह अनिल कुंबले के पारी में लिए गए 10 विकेट का रिकॉर्ड हो या हेमू अधिकारी और गुलाम अमहद के बीच दसवें विकेट की साझीदारी में बने 109 रन हों.

जवाहरलाल नेहरू स्टेडियमतस्वीर: AP

और भी कई किस्से कहानियां और रिकॉर्ड कोटला में दर्ज हैं. कोटला से सटा अंबेडकर स्टेडियम है, जो पहले दिल्ली गेट स्टेडियम और फिर कॉर्पोरेशन स्टेडियम के नाम से भी मशहूर हुआ. यह भी किसी ऐतिहासिक स्टेडियम से कम नहीं. यह वही मैदान है, जहां 1940 से विश्व का दूसरा सबसे पुराना डूरंड फुटबॉल टूर्नामेंट खेला जा रहा है. यह टूर्नामेंट भारत में ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन विदेश सचिव सर हेनरी मोर्टिमेर डूरंड ने शिमला में 1888 में शुरू कराया. तब शिमला के पास दगशाई कैंप में सैनिकों के लिए खेला जाता था. लेकिन दिल्ली आने के बाद इसका रुतबा बढ़ा और आज भी यह भारतीय फुटबॉल का अभिन्न अंग है.

फ़ुटबाल से हट कर अगर हॉकी की बात करें तो आम आदमी की धारणा यही होगी की इंडिया गेट के पास का ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम दिल्ली का सबसे पुराना हॉकी स्टेडियम है. लेकिन यह बात गलत है.

दरअसल नेशनल स्टेडियम के नाम से मशहूर यह स्टेडियम 1993 में बना. इसके बनाने में भावनगर के महाराजा ने पैसा खर्च किया और तब इसका नाम इरविन एंपीथियेटर था. लेकिन 1951 के एशियन गेम्स के समय इसका नाम नेशनल स्टेडियम रख दिया गया. इसमें अथलेटिक्स और साइक्लिंग ट्रैक हुआ करते थे. लेकिन 1982 के एशियन गेम्स के समय इसे हॉकी स्टेडियम में बदल दिया गया. बाद में यहां पर वर्ल्ड कप कॉमनवेल्थ गेम्स के हॉकी मुकाबले भी हुए.

एसपी मुखर्जी स्विमिंग स्टेडियमतस्वीर: picture-alliance/dpa

इससे पहले क्नॉट प्लेस में शिवाजी स्टेडियम दिल्ली में हॉकी का गढ़ होता था. 1964 से यहां हो रहा नेहरू हॉकी टूर्नामेंट बहुत मशहूर है, जिसमें देश के टॉप खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं.

नई दिल्ली स्टेशन के पास रेलवे स्टेडियम भी हॉकी खिलाडियों की पसंदीदा जगह होती थी. 1964 में भारत को टोक्यो ओलंपिक में गोल्ड मेडल दिलाने वाले हॉकी टीम के सेंटर फॉरवर्ड हरबिंदर को वह ज़माना आज भी याद है, “नॉर्दन रेलवे की टीम में सात या आठ खिलाड़ी थे जो राष्ट्रीय टीम में भी थे. और हम सब रेलवे स्टेडियम पर प्रैक्टिस करते थे. उसके बाद देर तक पास की दुकान पर चाय पीते थे. क्योंकि वहां मोहिंदर लाल और चरणजीत जैसे लोग भी आते थे. तो चाय वाले ने दुकान का नाम स्पोर्ट्समैन टीशॉप रख दिया.”

हॉकी और फुटबॉल के अलावा दिल्लीवासियों को कुश्ती से भी बहुत लगाव रहा है. और यही कारण है कि दिल्ली ने एक से बढ़ कर एक पहलवान पैदा किया है. चंदगी राम, सतपाल, सुदेश कुमार, वेद प्रकाश, विश्वंभर, मालवा और प्रेमनाथ जैसे कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने विश्व और एशियाई स्तर पर तो पदक जीते ही हैं. साथ ही दिल्ली के सुशील ने ओलंपिक में पदक हासिल कर दिल्ली का मान बढ़ाया है.

यह सब दिल्ली में कुश्ती की परंपरा की वजह से हुआ. वैसे खुले आकाश में लाल किले के सामने तो दंगल बहुत ही मशहूर थे. लेकिन जब 1955 में उद्योगपति केके बिड़ला ने गुरु हनुमान को सब्जी मंडी के पास बिड़ला मिल्स में जगह दी तो बिड़ला व्यायामशाला का जन्म हुआ.

इसके बाद तो दिल्ली में पहलवानों की झड़ी लग गई. साथ ही यमुना नदी के किनारे मास्टर चंदगी राम के अखाड़े की भी स्थापना हुआ. यह अखाड़ा आज भी चल रहा है, जहां से कई अच्छे पहलवान निकले हैं.

इन स्टेडियमों के अलावा भी दिल्ली में कई ऐसे मैदान थे जो स्टेडियम तो नहीं कहे जा सकते लेकिन वहां खूब खेल होते थे. तालकटोरा मैदान ऐसी ही जगह है. दिल्ली की मशहूर टीमें जैसे नई दिल्ली हीरोज और शिमला यंग्स इसी मैदान पर प्रैक्टिस करती थीं. 1960 के दशक के दिल्ली के मशहूर खिलाड़ी पिंटो रॉय चौधरी आज भी उस जमाने को याद कर खिल जाते हैं, “अरे अब क्या दिल्ली में फुटबाल होगी. अब तो खेल पैसा कमाने का जरिया है.” उनका कहना है, “बिना किसी स्टेडियम के ही हमने आज से अच्छी फुटबॉल खेल ली.”

दिल्ली के मशहूर राजपथ को आज लोग शायद सिर्फ 26 जनवरी की गणतंत्र परेड के लिए जानते हैं. लेकिन यह जगह किसी ज़माने में शाम को खिलाड़ियों से भरी होती थी. यहां तक कि मशहूर अथलीट श्रीराम सिंह ने यहीं 1976 ओलंपिक की तैयारी भी की. उनका कहना है, “दिल्ली को वो रंगीन ज़माना वापस नहीं आ सकता.” इससे पहले मिल्खा सिंह ने भी राजपथ पर खूब दौड़ लगाई है.

तस्वीर: AP

बास्केटबाल के लिए भले ही आज खिलाडियों के नखरे हों लेकिन दिल्ली में 50 और 60 के दशक में देश के चोटी के खिलाडी खुली हवा में होने वाले बटलेरियन टूर्नामेंट में बड़े चाव से हिस्सा लेते थे. यह टूर्नामेंट मंदिर मार्ग के बटलर स्कूल के सामने बजरी के मैदान में होता था. किसी ज़माने में बंगाली स्कूल के नाम से मशहूर इस स्कूल का नाम 1917 में बटलर मेमोरियल स्कूल रख दिया गया.

यही हाल बैडमिंटन का है. बाराखंभा रोड पर आज दिल्ली मेट्रो का दफ्तर है. वहां किसी ज़माने में टॉप क्लास बैडमिंटन होती थी. बाराखंभा टूर्नामेंट बहुत मशहूर था जिसमें दीपू घोष, रोमन घोष, सुरेश गोयल जैसे नामी गिरामी खिलाड़ी हिस्सा लेते थे.

दिल्ली 100 साल का हो गया. किसी शहर के लिए इससे ज्यादा फख्र की बात क्या होगी लेकिन अगर दिल्ली के खेलों को देखते हैं तो समझ नहीं आता कि इसके सुनहरे अतीत पर नाज करें या गिरते ग्राफ पर अफसोस मनाएं.

रिपोर्टः नॉरिस प्रीतम, दिल्ली

संपादनः अनवर जे अशरफ

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