एड्स बना चिरकालिक रोग
१ अगस्त २००८किंतु, 1983 में, जब इस रोग के वायरस की पहचान हुई थी, फ्रौंस्वाज़े बारे-सिनोसी ऐसा नहीं सोच रह थीं. उस समय सिनोसी कहीं युवा थीं, पेरिस के जगप्रसिद्ध पास्त्योर इंस्टीट्यूट में एड्स के वायरस के जीन के कोड को पढ़ने में लूक मोंतानियेर के साथ कंधे-से-कंधा मिला कर काम कर रही थीं. चौथाई सदी बाद, आज भी वे एड्स-वायरस के काम करने की पहेली को बूझने में लगी हैं और मानती हैं कि यह वायरस अब भी वैज्ञानिकों को छका रहा है. कोई दूसरा वायरस ऐसा नहीं है, जिसके बारे में HIV से अधिक शोध हुई हो. लेकिन, कोई दूसरा वायरस ऐसा भी नहीं है, जो HIV जितना कुटिल और छलिया होः
"HIV वायरस के बारे में हमारी सारी जानकारी का यही फ़ायदा हुआ है कि आज हम एड्स की भरोसेमंद पहचान कर सकते हैं. इसके अलावा हम उसका इलाज़ भी कर सकते हैं, भले ही उसे पूरी तरह ठीक नहीं कर सकते. इलाज़ रोगियों के लिए किसी हद तक सामान्य जीवन बिताना संभव बनाता है. हाँ, इलाज़ से कुछ नयी समस्याएँ भी पैदा होती हैं, जैसाकि शक्तिशाली दवाओं के साथ लंबे उपचारों के बाद अक्सर होता है. उपचार के ख़र्च को घटाने में भी काफ़ी प्रगति हुई है."
उपचार के अनेक उपप्रभाव
विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO की मानें, तो इस बीच हर तीसरे एड्स-रोगी को उपचार मिल रहा है. उत्तर के अमीर देशों में स्थिति सबसे अच्छी है. दक्षिण के देशों से फ्रौंस्वाज़े बारे-सिनोसी का आग्रह हैः
"कुछेक वर्षों में हम अफ्रीका, एशिया और पूर्वी यूरोप में भी एक ऐसी चीज़ देखेंगे, जो हम आज फ्रांस में देख रहे हैं. एड्स एक ऐसा चिरकालिक रोग बन गया है, जिसके लिए बहुत कड़ी दवाएँ लेनी पड़ती हैं. नतीजा यह हो रहा है कि बहुत-से एड्स-रोगी कैंसर के, मधुमेह जैसी चयापचय में गड़बड़ी वाली बीमारियों के या इसी तरह की अन्य बीमारियों के भी रोगी बन जाते हैं. दक्षिण के देशों को चाहिये कि वे इन अनुषंगी दुष्प्रभावों के लिए अभी से तैयार हो जायें. "
अफ्रीका बना एड्स-महाद्वीप
मालेगापूरू माकगोबा दक्षिण अफ़्रीका के क्वाज़ूलू-नाटाल विश्वविद्यालय के उपकुलपति हैं. वे इस बात के लिए अफ्रीकी देशों को ही दोष देते हैं कि आज अफ्रीका HIV-संक्रमित और एड्स-पीड़ित लोगों का महाद्वीप कहलाता हैः
"पहला कारण है, इस महामारी के प्रकोप को हर जगह झुठलाया जाता रहा. जब बीमारी के पहले मामले सामने आये, तब यह कह कर हाथ झाड़ लिया जाता था कि यह तो समलैंगिकों की बीमारी है; हमारे यहाँ समलैंगिगकता तो होती नहीं, इसलिए एड्स भी नहीं हो सकता. लेकिन, जब एड्स का वायरस विषमलैंगिकों में भी देखा गया, तो अफ्रीकी बगलें झाँकने लगे कि इसे अब कैसे झुठलाया जाये. कोई बहाना नहीं मिलने पर पलट कर वार किया जाने लगा कि यह तो हमारी अश्वेत नस्ल पर ही साफ़ हमला है. यह दिखाने की कोशिश है कि अफ्रीकी ही यह यौन-प्लेग दुनिया भर में फैला रहे हैं. मानो इस धरती पर अफ्रीकी ही एकमात्र ऐसे लोग हैं, जो काम-वासना में रुचि लेते हैं. इस तर्क के साथ एड्स पर बहस का मुँह पुनः बंद कर दिया जाता था."
लज्जा और लांछन का दुष्चक्र
मालेगापूरू माकगोबा यह भी मानते हैं कि HIV-संक्रमित और एड्स-पीड़ित लोगों को समाज में जिस तरह लांछित-कलंकित और तिरस्कृत किया जाने लगा, उससे भी अफ्रीका में इस बीमारी को फैलने का मैक़ा मिला. उत्तरी देशों में वैज्ञानिक शोध के परिणाम अफ्रीका में व्याप्त निरक्षरता और अज्ञान के आगे आज भी असहाय रह जाते हैं:
"ऐसी हर बीमारी, जिसका यौन-क्रिया से संबंध है, सारी दुनिया में एक लज्जास्पद विषय है-- पश्चिमी देशों में भी. लेकिन, ऐसे देश, जहाँ शिक्षा की कमी है, नाव की पतवार पुरुषों के हाथ में है और वे अपनी मर्दानगी का खुल कर जौहर दिखाते हैं, ऐसे देश परनिंदक हथकंडों के लिए सबसे उर्वर भूमि हैं. जहाँ पुरुष अपनी श्रेष्ठता के क़ायल हों, महिलाओं के पास कोई सत्ता न हो, वहाँ महिलाओं और समाज पर नकेल कसने का यही तरीका है."
माकगोबा का कहना है कि अफ्रीका को स्वयं एड्स-संबंधी शोध में भारी धन लगाना होगा और उसके वायरस को वहाँ जानना-समझना होगा, जहाँ वह सबसे तेज़ी से फैल रहा है. यदि यह बात सच है कि अफ्रीका के बाद एड्स भारत में सबसे तेज़ी फैल रहा है, तो माकगोबा का निष्कर्ष भारत पर भी लागू होता है. भारत को भी रोकथाम और उपचार का उपाय खुद ही ढूँढना होगा.