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40 साल पहले मिली बीमारी कैसे बनी महामारी

गुडरुन हाइजे
३ दिसम्बर २०२१

40 साल पहले 1981 में अमेरिकी समलैंगिक पुरुषों के बीच एचआईवी एड्स का पहला मामला सामने आया था. आज पूरी दुनिया में करीब 3.8 करोड़ लोग एचआईवी के साथ जी रहे हैं. वहीं, करीब इतने ही लोगों की मौत भी एचआईवी की वजह से हुई है.

आसान नहीं हमारे इम्यून सिस्टम और टीकों के लिए एचआईवी के ढांचे पर हमलातस्वीर: Imago Images/Science Photo Library

वर्ष 1981 में जून का महीना था. अमेरिका के डॉक्टरों ने पहली बार किसी ऐसी अज्ञात बीमारी के बारे में लिखना शुरू किया जिसकी वजह से युवा समलैंगिक पुरुष प्रभावित हो रहे थे. यह बीमारी थी एड्स, जो एचआईवी वायरस की वजह से हो रही थी. हालांकि, इस समय यह किसी को नहीं मालूम था कि यह बीमारी आगे चलकर सदी के अंत तक सबसे घातक महामारी बन जाएगी.

महामारी की शुरुआत में, एचआईवी-एड्स के अधिकांश मामलों को फेफड़ों की दुर्लभ बीमारी के तौर पर माना गया. इस नई बीमारी से ग्रस्त मरीजों को बुखार रहता था. कुछ मामलों में गले के ऊपर गांठ या लाल चकता भी देखा गया जो एक प्रकार का कैंसर होता है और त्वचा पर घाव होने का कारण बनता है. नतीजा ये हुआ कि शुरुआत में अधिकांश रोगियों की मौत हो गई. साथ ही, 1982 में बीमारी को नाम मिला एड्स यानी एक्वायर्ड इम्यून डेफिशिएंसी सिंड्रोम.

वैज्ञानिकों ने वायरस को अलग किया

साल 1983 में लुक मोंतानिए और फ्रांसुआज बागे सिनोसी ने वायरस को अलग किया. पेरिस के इंस्टीट्यूट पाश्चर में काम करने वाले इन दो फ्रांसीसी वायरोलॉजिस्ट ने 2008 में मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार जीता. हालांकि, इससे रॉबर्ट गैलो नाम के अमेरिकी शोधकर्ता के साथ बड़ा विवाद हो गया. अमेरिकी शोधकर्ता ने दावा किया था कि उन्होंने यह खोज की है. 1991 में उन्होंने अपने दावे को वापस ले लिया था.

यह दावा सिर्फ खोज करने या नोबेल पुरस्कार को लेकर नहीं था. यह एचआईवी संक्रमण का पता लगाने वाले एंटीबॉडी टेस्ट पर पेटेंट या कॉपीराइट के बारे में भी था. पहली बार 1984 में सार्वजनिक तौर पर उस टेस्ट का इस्तेमाल किया गया और दिखाया गया कि वायरस किस तरह ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रभावित कर रहा है.

किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है वायरस

अमेरिका के बाद पूरी दुनिया से इस वायरस से प्रभावित लोगों की जानकारी सामने आने लगी. जर्मनी में 1982 में सबसे पहले मामला सामने आया. इसके बाद यह जानकारी आयी कि हॉलीवुड स्टार रॉक हडसन सहित कई प्रसिद्ध संगीतकार, फोटोग्राफर और अभिनेता भी इस वायरस का शिकार हो गए हैं.

माइक्रोस्कोप में वायरस ऐसा दिखता हैतस्वीर: Seth Pincus/Elizabeth Fischer/Austin Athman/National Institute of Allergy and Infectious Diseases/AP Photo/AP Photo/picture alliance

1985 में हडसन की एचआईवी-एड्स से मृत्यु हो गई. कहा जाता है कि हडसन की मौत ने एचआईवी-एड्स को लेकर जनता की राय को बदल दिया. 1980 के दशक के अंत तक कई प्रसिद्ध लोग एचआईवी के साथ रहने के अपने अनुभवों के बारे में सार्वजनिक रूप से बोल रहे थे. हालांकि, लोकप्रिय हस्तियों और सेलिब्रिटी को छोड़ दें, तो एचआईवी पॉजिटिव सामान्य लोगों को समाज में काफी ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इन्हें सामाजिक कलंक के तौर पर देखा जाता है.

महामारी बना एड्स

आज भी एड्स फैलने की रफ्तार बनी हुई है. अधिकांश मामलों के पीछे की वजह असुरक्षित यौन संबंध हैं. कुछ मामलों में संक्रमित खून के संपर्क में आने से यह एचआईवी वायरस एक शरीर से दूसरे में प्रवेश करता है.

भले ही इसकी शुरुआत समलैंगिक जोड़ों के बीच देखने को मिली, लेकिन बाद में यह स्त्री और पुरुष के बीच बनने वाले असुरक्षित यौन संबंधों की वजह से तेजी से फैला. 20 सदी के अंत तक लोगों में इसका काफी डर बैठ गया. संक्रमित होने से बचने के लिए लोगों ने सुरक्षित यौन संबंध बनाने की पहल की और कंडोम का इस्तेमाल किया जाने लगा.

एचआईवी और एड्स एक नहीं हैं

एचआईवी जब हमारे खून में प्रवेश करता है, तो वह मानव प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला करता है. वह प्रतिरक्षा प्रणाली को इतना कमजोर कर देता है कि यह किसी अन्य वायरल या जीवाणु संक्रमण से लड़ने में असमर्थ हो जाता है. यदि एचआईवी का इलाज नहीं किया जाता है, तो एड्स विकसित हो सकता है. यह इंसान को काफी ज्यादा बीमार बना देता है.

इस स्थिति में फेफड़ों में सूजन आ जाती है, लसिका ग्रंथियों की सूजन से गांठें पड़नी शुरू हो जाती हैं, शरीर में खुजली और जलन होने लगती है, स्किन कैंसर जैसी तकलीफें होने लगती है या शरीर में चकत्तेदार धब्बे दिखने लगते हैं. अगर जल्द ही एचआईवी का इलाज शुरू कर दिया जाए, तो एड्स होने की संभावना कम हो जाती है. काफी हद तक प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाए रखा जा सकता है.

वैश्विक समस्या है एड्स

1988 में संयुक्त राष्ट्र ने विश्व एड्स दिवस की शुरुआत की थी. उस समय तक यह बीमारी 100 से अधिक देशों में फैल चुकी थी. तब से, हर वर्ष 1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है और एक नई शपथ ली जाती है. इस साल 2021 में शपथ ली गई, "असमानताओं को समाप्त करें. एड्स को समाप्त करें. महामारी को समाप्त करें.Ó

शुरुआती दिनों में ट्रांसफ्यूजन के दौरान भी हो रहा था संक्रमणतस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Hoppe

एड्स की वजह से सबसे ज्यादा अफ्रीकी देश प्रभावित हुए हैं. यहां स्वास्थ्यकर्मियों के पास अक्सर इलाज के लिए दवाओं की कमी होती है. दुनिया के दो-तिहाई एचआईवी संक्रमित अफ्रीका में रहते हैं. आकड़ों में देखें तो करीब 2.5 करोड़ लोग. इनमें से 20 लाख लोगों की उम्र 15 साल से कम है. उप-सहारा अफ्रीका में, मौत का सबसे सामान्य कारण एड्स है. एचआईवी-एड्स से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में स्वाजीलैंड, बोत्सवाना, लेसोथो, मलावी, नामीबिया, नाइजीरिया, केन्या और जिम्बाब्वे शामिल हैं.

सबसे ज्यादा संक्रमित लोग दक्षिण अफ्रीका में हैं. यहां 70 लाख से ज्यादा लोग एचआईवी पॉजिटिव हैं. इनमें से तीन लाख 20 हजार बच्चे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि बीमारी से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर कार्रवाई की जाएगी. अफ्रीका में, एचआईवी पॉजिटिव लोगों को बेहतर इलाज उपलब्ध कराने और सामान्य लोगों को इस वायरस के बारे में जागरूक करने की जरूरत है. वहां अभी भी एचआईवी पॉजिटिव लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इस वजह से कई लोग टेस्ट नहीं कराना चाहते हैं.

बड़ी सफलता है एंटीवायरल की खोज

1996 में एड्स को लेकर किए जा रहे अनुसंधान के दौरान बड़ी सफलता हाथ लगी. एड्स को लेकर किए जा रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में शोधकर्ताओं ने एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी पेश की. यह थेरेपी वायरस के असर को धीमा कर सकती है या रोक सकती है. वायरस से लड़ने और एड्स को विकसित होने से रोकने के लिए कई दवाओं को मिलाया गया है, ताकि शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता बनी रहे.

एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी का कॉम्बिनेशन अब एचआईवी का इलाज बन गया है. इससे प्रभावित लोगों को जीवन भर दवा लेनी पड़ती है, क्योंकि यह जरूरी नहीं कि इस इलाज से वायरस शरीर से पूरी तरह खत्म हो जाएगा. हालांकि, यह वायरस के असर को कम जरूर करता है.

कई मामलों में यह थेरेपी वायरस के असर को इस हद तक कम कर देती है जिससे पता ही नहीं चलता कि व्यक्ति एचआईवी पॉजिटिव है. इसका मतलब यह भी है कि एचआईवी से पीड़ित ऐसे लोग जो इलाज करवा रहे हैं, अब दूसरे लोगों को संक्रमित नहीं करेंगे. साथ ही, अब इससे ‘मौत का डर' भी नहीं बना रहेगा.

उम्मीद की नई किरण

2016 में, यूरोपीय मेडिसिन एजेंसी (ईएमए) ने प्री-एक्सपोजर प्रोफिलैक्सिस (पीआरईपी) के तौर पर इस्तेमाल के लिए ट्रुवाडा नामक दवा को मंजूरी दी. इसलिए, एचआईवी से खुद को बचाने के लिए लोग अब पीआरईपी ले सकते हैं. हालांकि, यह दवा मुख्य रूप से उन लोगों को दी जाती है जिन्हें सामान्य लोगों की तुलना में एचआईवी पॉजिटिव होने का ज्यादा खतरा रहता है, जैसे कि समलैंगिक पुरुष.

एंटीरेट्रोवाइरल ड्रग से मरीजों को मदद मिली हैतस्वीर: Donwilson Odhiambo/ZUMA/picture alliance

पीआरईपी में दो एचआईवी दवाएं शामिल हैं जो संबंध बनाने से पहले ली जाती हैं. अगर हर दिन इसका इस्तेमाल किया जाए, तो संक्रमण का खतरा 95 प्रतिशत तक कम हो सकता है. हालांकि, इससे यौन संचारित दूसरी बीमारियों का खतरा कम नहीं होता है. उसके लिए, आज भी सबसे अच्छा उपाय कंडोम का इस्तेमाल करना ही है.

यूएनएड्स का महत्वाकांक्षी लक्ष्य

यूएनएड्स, एचआईवी-एड्स को लेकर काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था है. इसने एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है जिसे 90-90-90 कहा गया. वह इस लक्ष्य को 2020 तक ही पाना चाहता था. 90-90-90 का मतलब है कि एचआईवी पॉजिटिव 90 प्रतिशत लोगों को उनकी एचआईवी की स्थिति का पता चल जाए.

जिन लोगों का इलाज शुरू हो उनमें से 90 प्रतिशत को लगातार एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी मिले, और एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी पाने वाले 90 प्रतिशत लोगों में वायरस का असर पूरी तरह कम हो जाए. पहले दो मामलों में 2020 तक 84 प्रतिशत की सफलता मिली. तीसरे मामले में 66 प्रतिशत ही सफलता मिली. अब इस लक्ष्य को पाने का समय बढ़ाकर 2030 कर दिया गया है.

एड्स के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संगठनों की मुहिम

अध्ययनों से पता चलता है कि बहुत से लोग अभी भी एचआईवी और एड्स के बीच का अंतर नहीं जानते. इनमें काफी संख्या में युवा शामिल हैं. इसलिए, वायरस और इसके प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने की काफी जरूरत है. कई संस्थानों ने इसे अपना लक्ष्य बनाया है. उदाहरण के लिए, इंटरनेशनल एड्स सोसाइटी की स्थापना 1988 में हुई थी. अभी यह 170 देशों में एड्स के खिलाफ मुहिम चलाए हुए है.

सामाजिक भेदभाव के कारण एड्स से संघर्ष में मुश्किल तस्वीर: Boris Roessler/dpa/picture alliance

आज भी कई लोगों के बीच एड्स को लेकर गलत धारणाएं व्याप्त हैं. उनका मानना है कि एचआईवी हवा या दैनिक जीवन में इस्तेमाल की जाने वाली चीजों के जरिए फैलता है. इसलिए, कुछ लोग एचआईवी पॉजिटिव लोगों से शारीरिक दूरी बनाए रखते हैं. इस तरह की कई ऐसी गलत धारणाएं हैं जिनकी वजह से एचआईवी पॉजिटिव लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. साथ ही, लोग अपनी जांच कराने से डरते हैं और खुद को सामाजिक कलंक के तौर पर देखते हैं.

वैक्सीन का इंतजार

एचआईवी के खिलाफ वैक्सीन बनना काफी मुश्किल है. वायरस की सतह की संरचना त्रि-आयामी होती है. इस वजह से संभावित वैक्सीन इसके खिलाफ लड़ने में कारगर साबित नहीं हो सकती है. प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले कोशिकाओं की पहचान करती है और उससे हमारा बचाव करती है. हालांकि, एचआईवी काफी ज्यादा अलग होता है. यह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को धोखा देता है.

इससे खोज के दौरान ऐसा लगता है कि हम इसके बारे में जितना जानते हैं यह उससे एक कदम आगे है. इसलिए, जब तक शोधकर्ता किसी तरह की वैक्सीन विकसित नहीं कर लेते, तब तक सबसे सही तरीका यह है कि हम सुरक्षित यौन संबंध बनाएं और एंटीरेट्रोवाइरल दवा का इस्तेमाल करें.

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