सुप्रीम कोर्ट के एक ताजा फैसले ने असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी के अंतिम मसौदे से बाहर रहे लगभग 40 लाख लोगों के लिए उम्मीद की एक नई किरण पैदा कर दी है.
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अदालत ने इन 40 लाख व्यक्तियों के दावे और आपत्तियां स्वीकार करने का काम शुरू करने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक यह प्रक्रिया 25 सितंबर से शुरू होकर 60 दिनों तक चलेगी. इसके तहत अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लोग पहले सूचीबद्ध 15 में से 10 दस्तावेजों को दिखा सकते हैं.
अदालत ने एनआरसी के संयोजक पर मसौदे से संबंधित जानकारियां केंद्र से साझा करने पर भी फिलहाल रोक लगा दी है. इस मामले की अगली सुनवाई 23 अक्तूबर को होगी. ध्यान रहे कि एनआरसी के अंतिम मसौदे की विश्वसनीयता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं. इनमें दशकों से असम में रहने वाले लाखों हिंदीभाषी लोगों के नाम भी शामिल नहीं हैं.
क्या है ताजा फैसला?
सुप्रीम कोर्ट के जज रंजन गोगोई और न्यामूर्ति आरएफ नरीमन की एक खंडपीठ ने बुधवार को इस मामले की सुनवाई के बाद एनआरसी के अंतिम मसौदे से बाहर रखे गए 40 लाख लोगों के दावों और आपत्तियों की प्रक्रिया 25 सितंबर से शुरू करने का निर्देश दिया. अदालत ने कहा है कि एनआरसी मुद्दे की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए उन लोगों को दूसरा मौका देना जरूरी है जिनके नाम इसके मसौदे से बाहर हैं.
इससे पहले पांच सितंबर को इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला से पूरी कवायद पर विस्तृत गोपनीय रिपोर्ट मांगी थी. केंद्र व राज्य सरकारों की दलील थी कि नागरिकता साबित करने के लिए 15 में से किसी एक दस्तावेज को दाखिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए. लेकिन खंडपीठ ने इनमें से पांच दस्तावेजों पर यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि इनकी पुष्टि में दिक्कत है. हालांकि बाकी दस दस्तावेज समुचित प्राधिकरण की ओर से बनाए गए हैं जिनकी पुष्टि की जा सकती है.
सुनवाई के दौरान एडवोटेकट जनरल केके वेणुगोपाल ने दलील दी कि इन पांच दस्तावेजों को बाहर करने से निरक्षर लोगों की बड़ी आबादी को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. असम के अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि राज्य सरकार अंतिम एनआरसी में एक भी अवैध आप्रवासी का नाम नहीं चाहती. लेकिन साथ ही यह भी नहीं चाहती कि समुचित कागजात के अभाव में किसी वैध नागरिक का नाम इस सूची से बाहर हो जाए.
वेणुगोपाल ने सवाल किया कि आखिर अदालत पांच दस्तावेजों को सूची से बाहर रखने पर जोर क्यों दे रही है. इस पर खंडपीठ ने कहा कि गोपनीय रिपोर्ट में कुछ बातें ऐसी हैं जिनको जनहित में सार्वजनिक करना उचित नहीं होगा. अदालत ने कहा है कि वह 30 दिनों के बाद राज्य की जमीनी स्थिति की समीक्षा के बाद इस सवाल पर फैसला करेगी कि उन पांचों दस्तावेजों को दाखिल करने की अनुमति दी जाए या नहीं.
एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन यानी एनआरसी की वजह से असम में रहने वाले लाखों लोगों का भविष्य अधर में लटका है. चलिए जानते हैं कि क्या है एनआरसी.
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क्या है एनआरसी
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की सूची है. जिन लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, उन्हें बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी माना जाएगा.
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बिखरेंगे परिवार
30 जुलाई को प्रकाशित एनआरसी के अंतिम मसौदे में 40 लाख बांग्ला भाषियों के नाम नहीं है. इस तरह दशकों से असम में रह रहे कई परिवारों के बिखरने की आशंका पैदा हो गई है.
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एनआरसी की जरूरत
कुछ संगठन एनआरसी को बांग्ला भाषी मुसलमानों को निशाने बनाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं जबकि सरकार इसे असम में बड़ी तादाद में रह रहे अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए जरूरी बताती है.
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एनआरसी की कसौटी
24 मार्च 1971 तक जिन लोगों के नाम असम की मतदाता सूचियों में शामिल थे, उन्हें और उनके बच्चों को एनआरसी में शामिल किया गया है. इस तरह दशकों से असम में रहे कई लोग भी शर्त पूरा करने की स्थिति में नहीं होंगे.
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सुरक्षा सख्त
एनआरसी में 40 लाख लोगों के नाम ना होने से तनाव बढ़ने की आशंका हैं जिन्हें देखते हुए सुरक्षा के कड़े इंताजम किए गए हैं. केंद्र सरकार ने असम में अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजे हैं.
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देश निकाला?
सरकार ने साफ किया है कि फिलहाल 40 लाख लोगों में किसी को न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा. उन्हें नागरिकता साबित करने का पूरा मौका दिया जाएगा.
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पहला एनआरसी
भारत के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था.
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घुसपैठ की समस्या
उसके बाद भी घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर वर्ष 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद असम में इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे कि राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा.
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आंदोलन
अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था. लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे.
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लटकता रहा मामला
इस समझौते के मुताबिक 25 मार्च 1971 के बाद से असम में अवैध रूप से रहने वालों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं होंगे और एनआरसी को अपडेट किया जाएगा. लेकिन यह काम किसी न किसी वजह से लटका रहा.
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पहला चरण
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी देख-रेख में 2015 में यह काम शुरू हुआ. असम में 3.29 आवेदकों में से 1.9 करोड़ के नाम इस साल जनवरी में ही भारतीय नागरिकों के तौर पर दर्ज हो गए.
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अधर में भविष्य
ताजा मसौदा प्रकाशित होने के बाद में अब कुल 2.89 करोड़ लोगों के नाम भारतीय नागरिक के तौर पर दर्ज किए गए हैं. जिन 40 लाख लोगों के नाम इसमें शामिल नहीं है, उनका भविष्य फिलहाल डांवाडोल है.
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एनआरसी की कवायद
असम में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर और उसकी निगरानी में 2015 में एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू हुआ था. दो साल से भी लंबे समय तक चली जटिल कवायद के बाद बीते साल 31 दिसंबर को एनआरसी के मसविदे का प्रारूप प्रकाशित किया गया था, जिसमें 3.29 करोड़ में से 1.90 करोड़ नाम ही शामिल थे.
एनआरसी के तहत 25 मार्च 1971 से पहले बांग्लादेश से यहां आने वाले लोगों को स्थानीय नागरिक माना जा रहा है. देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था. उसके बाद भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर 1971 के बाद यहां इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे की राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा.
उसी वजह से अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था. लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. उस समझौते में अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए एनआरसी को अपडेट करने का प्रावधान था. लेकिन किसी न किसी वजह से यह मामला लटका रहा.
एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला ने जुलाई में अंतिम मसौदा जारी करते हुए कहा था कि एनआरसी के तहत 2 करोड़ 89 लाख 677 लोगों को भारतीय नागरिक पाया गया है. इनके नाम मसविदे में शामिल हैं. उन्होंने कहा था कि जिन लगभग 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, उनको भी अपने दावे और आपत्तियां पेश करने का पर्याप्त मौका दिया जाएगा. अब अदालती फैसले ने सूची से बाहर रहे 40 लाख लोगों के मन में उम्मीद की एक नई किरण पैदा कर दी है.
किस देश में कितनी सुरक्षित है नागरिकों की सूचना
भारत में अभी यह बहस छिड़ी है कि नागरिकों के पास निजता का मूल अधिकार है या नहीं. लेकिन विश्व के कुछ देशों में सरकार के अधिकारों और नागरिकों की प्राइवेसी को लेकर नियम साफ हैं.
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अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने दिखायी राह
विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में निजता का अधिकार गंभीर मसला है. हालांकि यह संविधान में उल्लिखित नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई संशोधनों की व्याख्या इस तरह की, जिससे प्राइवेसी के अधिकार का पता चलता है. संविधान का चौथा संशोधन बिना किसी "संभावित कारण" के किसी की तलाशी पर रोक लगाता है. कुछ अन्य संशोधनों में नागरिकों को बिना सरकारी दखलअंदाजी के अपने शरीर और निजी जीवन से जुड़े फैसले लेने का अधिकार है.
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खास है प्राइवेसी एक्ट, 1974
अमेरिका के इस एक्ट के अंतर्गत सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किसी की निजी जानकारियों को बिना उसकी अनुमति के देश की कोई केंद्रीय एजेंसी हासिल नहीं कर सकती. अगर किसी एजेंसी को जानकारी चाहिए तो पहले उसे बताना होता है कि उसे किस काम के लिए उस सूचना की जरूरत है. सोशल सिक्योरिटी नंबर को लेकर यह विवाद है कि इससे सरकारी एजेंसी यह जान जाती है कि कोई व्यक्ति टैक्स भरता है या नहीं या कैसे सरकारी अनुदान लेता है.
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जापान का 'माइ नंबर'
2015 में जापान में नागरिकों की पहचान से जुड़ा एक नया सिस्टम शुरु हुआ. इसमें टैक्स से जुड़ी जानकारी, सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत मिलने वाले फायदों और आपदा राहत के अंतर्गत मिलने वाली मदद को एक साथ लाया गया. आलोचकों की भारी निंदा के बावजूद सरकार ने इसे शुरु कर दिया. सभी जापानी नागरिकों और वहां के विदेशी निवासियों को 12 अंकों की संख्या 'माइ नंबर' मिली. सरकार अब इसमें बैंक खातों को भी जोड़ना चाहती है.
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डाटा लीक के लिए सरकार जिम्मेदार
जापान में भी निजता के अधिकार को साफ साफ परिभाषित नहीं किया गया है. लेकिन जापानी संविधान में नागरिकों को "जीवन, आजादी और खुशी तलाशने" का अधिकार है. 2003 में निजी सूचना की सुरक्षा का कानून बना, जिसमें लोगों की जानकारी को सुरक्षित रखना अनिवार्य है. जब भी किसी व्यक्ति के डाटा का इस्तेमाल होगा, तो उसे इसके मकसद के बारे में जानकारी दी जाएगी. निजी डाटा को लीक से बचाने के लिए सरकार कानूनी रूप से बाध्य है.
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डाटा सुरक्षा में भी यूरोपीय समरसता
पूरे यूरोप में डाटा प्रोटेक्शन डायरेक्टिव लागू होते हैं. इसके अंतर्गत लोगों की सूचना के रखरखाव और इस्तेमाल पर कई तरह की रोक है. ईयू के सदस्य देशों को "ऐसे तकनीकी और संगठनात्मक उपाय लागू करने होते हैं जिससे किसी के डाटा का गलती या गैरकानूनी इस्तेमाल ना हो, ना ही उसे कोई अनाधिकृत व्यक्ति पा सके, बदल सके या किसी तरह का नुकसान पहुंचा सके.” इस नियम का उल्लंघन होने पर न्यायिक उपायों का व्यवस्था है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Seeger
स्वीडन की स्कैंडेनेवियन सोच
स्वीडन विश्व का पहला देश था जहां नागरिकों को पहचान संख्या दी गयी. हर सरकारी कामकाज में इसका इस्तेमाल अनिवार्य हुया. लेकिन अगर किसी की सूचना उसकी जानकारी के बिना इस्तेमाल की जाये और उस पर नजर रखी जाये, तो इसके खिलाफ सुरक्षा मिलेगी. स्वीडन जैसे स्कैंडेनेवियाई देशों में सरकार से नागरिकों को इतने भत्ते मिलते हैं, जिनके लिए लोगों का पहचान नंबर देना जरूरी होता है. प्राइवेसी की चिंता यहां बहुत कम है.
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भारत के सामने नया सवाल
दुनिया के तमाम देशों में सरकारें अपने नागरिकों की ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटाने में लगी हैं. ज्यादातर इसे प्रभावी कामकाज से जोड़ा जा रहा है. अब तक किसी दूसरे व्यक्ति या निजी समूहों से अपनी जानकारी बचाने की चिंताएं, अब सरकार से अपनी जानकारियां बचाने पर आ पहुंची हैं. सवाल सरकार की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए डाटा के इस्तेमाल और सवा अरब लोगों के डाटा की सुरक्षा का है.
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फैसले का स्वागत
असम के विभिन्न राजनीतिक दलों ने एनआरसी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तो स्वागत किया है लेकिन साथ ही कहा है कि नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी 15 दस्तावेजों की सूची में से पांच के नाम नहीं हटाए जाने चाहिए. फिलहाल शीर्ष अदालत ने जिन 10 दस्तावेजों के सहारे दावे व आपत्तियां जमा करने और नागरिकता साबित करने को मंजूरी दी है, उनमें जमीन से संबंधित दस्तावेज, स्थानीय आवास प्रमाणपत्र, भारतीय जीवन बीमा निगम की पॉलिसी, पासपोर्ट, सरकारी लाइसेंस, केंद्र या राज्य सरकार के उपक्रमों में नौकरी का प्रमाणपत्र, बैंक या पोस्ट ऑफिस के खातों का ब्योरा, समुचित अधिकारियों की ओर से जारी जन्म प्रमाणपत्र, बोर्ड या विश्वविद्यालय की ओर से जारी शैक्षणिक प्रमाणपत्र और न्यायिक या राजस्व अदालतों में किसी मामले की कार्यवाही का ब्योरा शामिल है. लेकिन यह तमाम दस्तावेज 24 मार्च 1971 के पहले के होने चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता साबित करने के लिए 1951 के एनआरसी, 1971 के पहले की मतदाता सूची, नागरिकता प्रमाणपत्र, शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र और राशनकार्ड जैसे बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल पर फिलहाल रोक लगा दी है. अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) ने उम्मीद जताई है कि अगली सुनवाई में अदालत बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल की भी अनुमति दे देगी. आम्सू के अध्यक्ष अजीजुर रहमान कहते हैं, "हमें अदालत और न्याय प्रक्रिया पर पूरा भरोसा है. उम्मीद है कि अगली सुनवाई में दावों व आपत्तियों के लिए बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल की भी अनुमति मिल जाएगी."
राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस ने भी इन पांचों दस्तावेजों के इस्तेमाल की अनुमति देने का समर्थन किया है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रंजीत दास कहते हैं, "लाखों लोगों ने इन दस्तावेजों के जरिए एनआरसी में अपने नाम शामिल करने का आवेदन दिया है. उम्मीद है कि इनके इस्तेमाल की अनुमति मिल जाएगी." दास का सवाल है कि जब पहले इन दस्तावेजों को स्वीकार किया गया था, तो बाद में अचानक इन पर रोक क्यों लगा दी गई.
विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता देबब्रत सैकिया कहते हैं, "एनआरसी के लिए पहले योग्यता के जो मानक तय किए गए थे, उनमें 1951 की एनआरसी और 1971 से पहले की मतदाता सूची को भी जरूरी दस्तावेजों की सूची में शामिल किया गया था. उम्मीद है कि इनके इस्तेमाल पर लगी रोक स्थायी नहीं होगी."
बावजूद इसके एनआरसी से बाहर रहे लोगों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से काफी प्रसन्नता है. सिलचर में तीन पीढ़ियों से रहने वाले पवन चंद्र दास कहते हैं, "हमें इस बात की खुशी है कि अदालत ने हमारी दिक्कत को समझा है. उम्मीद है कि अब हमारे परिवार के तमाम लोगों के नाम भी एनआरसी में शामिल हो जाएंगे."
एनआरसी में शामिल होने के लिए चाहिए ये कागजात
एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस में अपना नाम जुड़वाने के लिए लोगों को 10 ऐसे दस्तावेज दिखाने जरूरी हैं, जो 24 मार्च 1971 से पहले बनाए गए. जानिए, किन कागजों का होना जरूरी है.
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बैंक या पोस्ट ऑफिस के खातों का ब्योरा
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समुचित अधिकारियों की ओर से जारी जन्म प्रमाणपत्र
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न्यायिक या राजस्व अदालतों में किसी मामले की कार्यवाही का ब्योरा
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बोर्ड या विश्वविद्यालय की ओर से जारी शैक्षणिक प्रमाणपत्र
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भारत सरकार द्वारा जारी किया गया पासपोर्ट
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भारतीय जीवन बीमा निगम की पॉलिसी
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किसी भी प्रकार का सरकारी लाइसेंस
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केंद्र या राज्य सरकार के उपक्रमों में नौकरी का प्रमाणपत्र