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एनआरसी से असम में बढ़ता असमंजस

प्रभाकर मणि तिवारी
१ अगस्त २०१८

असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी के अंतिम मसौदे के प्रकाशन के बाद इस पर अनियमितता और हड़बड़ी में इसे तैयार करने के आरोप लगे रहे हैं. राज्य में कहीं खुशी का माहौल है तो कहीं गम का.

Indien Assam Pressekonferenz NRC
तस्वीर: picture-alliance/ZUMA Wire/D. Talukdar

खासकर बांग्लादेश से लगे बराकघाटी के तीन जिलों के उन चार लाख लोगों में भारी आतंक है जिनके नाम मसौदे में नहीं हैं. इस बीच, इस मसौदे पर सियासी घमासान भी शुरू हो गया है. तृणमूल कांग्रेस दो अगस्त को एक सात-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल असम भेजेगी. ममता ने कहा है कि जरूरत हुई तो बंगाल सरकार असम से निकाले जाने वाले लोगों को शरण देने पर विचार कर सकती है.

एनआरसी के बाद हालात

असम में एनआरसी के प्रकाशन के बाद असमंजस बढ़ता जा रहा है. केंद्र सरकार और असम सरकार के बाद मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि मसौदे में जिनके नाम शामिल हैं उको परेशान नहीं किया जाएगा. लेकिन एनआरसी की कवायद जारी रहेगी. इन आश्वसानों के बावजूद लोगों की चिंता कम होने की बजाय बहढ़ती ही जा रही है. राज्य की ब्रह्मपुत्र घाटी में जहां खुशी है वहीं बांग्लादेश से लगे बराक घाटी के तीन जिलों- सिलचर, करीमगंज व कछार में रहने वाले अल्पसंख्यकों में गम का माहौल है.

मसौदे में हजारों मामले ऐसे हैं जहां एक ही परिवार के कुछ लोगों को तो वैध नागरिक मान लिया गया है लेकिन कुछ को नहीं. इस तथ्य के बावजूद कि तमाम सदस्यों ने एक जैसे ही कागजात जमा किए थे. इससे मसौदा तैयार करने में हड़बड़ी और अनियमितता के आरोप लग रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजन तो समय पर एनआरसी के लिए आवेदन ही नहीं दे सके थे. रंगिया जिले में रहने वाले फखरुद्दीन अली के पोते साजिद अली अहमद बताते हैं, "राज्य के वंशजों वाले आंकड़े में उनके घर के चार सदस्यों के नाम शामिल नहीं थे. इन आंकड़ों में 1951 के एनआरसी के अलावा 25 मार्च, 1971 तक की मतदाता सूची शामिल थी.” अब वह नए सिरे से आवेदन देने पर विचार कर रहे हैं.

अंतिम मसौदे में नहीं हैं लाखों नामतस्वीर: Reuters/A. Hazarika

बरपेटा जिले के कायाकूची इलाके में रहने वाले मशहूर कवि व सरकारी स्कूल में शिक्षक सफीउद्दीन अहमद (36) का नाम मसौदे में शामिल नहीं है. उनके दो बेटों को भी सूची से बाहर रखा गया है. सफीउद्दीन बताते हैं, "मैंने तमाम जरूरी दस्तावेजों के साथ अपने पासपोर्ट की कापी भी जमा की थी. पहले मसौदे में नाम नहीं होने के बावजूद हमें पूरा भरोसा था कि अंतिम मसौदे में इसे शामिल कर लिया जाएगा. लेकिन किसी नामालूम वजह से ऐसा नहीं हुआ.” अहमद के 12 सदस्यों वाले परिवार में नौ लोगों के नाम एनआरसी में शामिल है. विडंबना यह है कि अहमद के दादाजी के पिता वर्ष 1952 में राज्य की पहली विधानसभा में ताराबाड़ी सीट से विधायक चुने गए थे.

अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ की केंद्रीय समिति की सदस्य मौसुमा बेगम (25) का नाम भी एनआरसी से बाहर है जबकि उनके परिवार के बाकी लोग इसमें शामिल हैं. वह कहती है, "हम सबने एक जैसे कागजात जमा किए थे. लेकिन पिता-माता और भाइयों को तो एनआरसी में जगह मिल गई, मुझे नहीं.”

बाल अधिकार कार्यकर्ता और टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस से ग्रेजुएशन करने वाली 26 साल की ईशानी चौधरी इस बात से परेशान हैं कि एनआरसी में नाम नहीं होने की वजह से कहीं उनका जेनेवा दौरा तो खटाई में नहीं पड़ जाएगा. संयुत राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की ओर से 28 सितंबर को जेनेवा में आयोजित उक्त सम्मेलन में ईशानी को भी हिस्सा लेना है. उन्होंने पासपोर्ट बनवाने के लिए आवेदन दिया है.

उदालगुड़ी जिले के एक शिक्षक और असमिया अखबारों में नियमित रूप से कॉलम लिखने वाले मुसाबीरूल हक का नाम भी एनआरसी से बाहर है. वह कहते हैं, "एनआरसी का खाका लोगों को मसौदे से बाहर रखने के लिए बनाया गया है. जबकि इसका फोकस यह होना चाहिए था कि किसी वैध नागरिक का नाम मसौदे से बाहर नहीं रहे.”

(एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?)

बराक घाटी इलाके में कछार के विधायक दिलीप पाल की पत्नी अर्चना पाल और कांग्रेस के पूर्व विधायक अताउर रहमान के नाम भी मसौदे में शामिल नहीं हैं. विधायक पाल कहते हैं, "यह अंतिम सूची नहीं है. मेरी पत्नी का नाम इसमें नहीं है. लेकिन वह फिर अपना दावा पेश करेगी.” उन्होंने कहा कि वे एनआरसी की अंतिम सूची का इंतजार करेंगे. करीमगंज के कांग्रेस विधायक केडी पुरकायस्थ कहते हैं, "लोग बाद में आपत्तियां व दावे जरूर पेश कर सकते हैं. लेकिन एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम मसौदे में नहीं होना चिंताजनक है.” उन्होंने आरोप लगाया कि मसौदे में भारी गड़बड़ियां हैं. इसका मकसद लोगों को परेशान करना है.
 

संतुष्ट हैं याचिकाकर्ता

एनआरसी में जगह नहीं बना पाने लाखों लोग इससे भले नाराज हों, इस कवायद की शुरुआत के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले अभिजीत शर्मा नतीजे से संतुष्ट हैं. शर्मा ने इस पहल के लिए एक बुजुर्ग दंपती और एक सरकारी अधिकारी के प्रति आभार जताया है. प्रदीप कुमार भुइयां ने वर्ष 2009 में एक याचिका का मसौदा तैयार कर असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू) नामक एक गैर-सरकारी संगठन के अध्यक्ष शर्मा को याचिकाकर्ता बनने के लिए प्रेरित किया था. एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया उसी समय से शुरू हुई. शर्मा बताते हैं, "प्रदीप कुमार भुइयां, उनकी पत्नी बनती भुइयां और सरकारी अधिकारी नब कुमार डेका बरूआ की वजह से एनआरसी का पूर्ण मसौदा तैयार करना संभव हो सका है. उनके प्रोत्साहन से ही हमने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर एनआरसी को अपडेट करने की अपील की थी.” भुइयां दंपती ने सुप्रीम कोर्ट में इस कानूनी लड़ाई पर अपनी जेब से मोटी रकम खर्च की है.

भुइयां दंपती ने एनआरसी के नतीजे पर तो संतोष जताया है लेकिन इसका श्रेय लेने से इनकार कर दिया है. भुइयां ने इसे असम आंदोलन (1979-85) के शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि करार दिया है. वह कहते हैं, "असम के लोगों को एनआरसी के लिए असम आंदोलन के शहीदों, सुप्रीम कोर्ट, एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेल और उनकी टीम का आभारी होना चाहिए.”

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि फिलहाल इन 40 लाख लोगों का भविष्य अधर में पड़ गया है. उनको राज्य से निकाला जाएगा या नहीं, यह साफ नहीं है. लेकिन मतदान के अधिकार से जरूर वंचित किया जा सकता है. इनकी हालत रोहिंग्या मुसलमानों जैसी भी हो सकती है.

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