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एवरेस्ट से ऊंचे अहंकार में घिरा पर्यटन

शिवप्रसाद जोशी
४ जून २०१९

ये हिमालयी “ट्रैफिक जाम” दरअसल प्रशिक्षण, तकनीकी और एथिक्स के अभाव से उपजा है.

Nepal Bergsteiger sterben am Mount Everest
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Nimsdai Project Possible/N. Purja

एवरेस्ट की चढ़ाई के दौरान पिछले दिनों शौकिया पर्वतारोहियों की मौत ने एडवेंचर टूरिज्म के स्याह पहलुओं की ओर ध्यान खींचा है. बड़े पैमाने पर पर्यटक, शौकिया पर्वतारोही, ट्रेकिंग के शौकीन ऊंचे बर्फीले पहाड़ों का रुख कर रहे हैं. ट्रैवल और ट्रेकिंग कंपनियां लुभावने पैकेजों के साथ उन्हें बुलाती हैं लेकिन सुरक्षा, स्वास्थ्य और अन्य तकनीकी और कानूनी मुद्दों पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता. 

सरकार के दावे अपनी जगह हैं लेकिन यह भी सही है कि ट्रेकिंग के नियंत्रण और निर्धारण को लेकर देश में कोई विशिष्ट कानून नहीं हैं. टूरिज्म इंडस्ट्री का एक तंत्र तमाम व्यवस्थाओं की खिल्ली सा उड़ाता हिमालयी क्षेत्र को रौंद रहा है. 

एवरेस्ट जैसी चोटी को फतह करने का सपना हर पर्वतारोही का होता है और उत्तराखंड से लेकर कश्मीर तक उच्च हिमालयी और दुर्गम बर्फीले क्षेत्रों की ट्रेकिंग किसी भी एडवेंचर टूरिस्ट का लक्ष्य होता है. लेकिन सपनों और इरादों के साथ आले दर्जे का प्रशिक्षण, साजोसामान, हिम्मत और स्वास्थ्य भी चाहिए. इनके अलावा हिमालय के प्रति एक बुनियादी नैतिकता का ख्याल रखना भी जरूरी है क्योंकि वो सिर्फ रोमांच और पर्यटन का ठिकाना नहीं है, उसकी अपनी एक गरिमा और जैव-विविधता है और अपना एक इकोसिस्टम है जिसका उल्लंघन इंसानी लालसा पर ही भारी पड़ सकता है.

तस्वीर: Imago Images/D. Delimont

एवरेस्ट की चढ़ाई के दौरान हुई मौतें यही बताती हैं. पिछले दिनों इंटरनेट पर कुछ पर्वतारोहियों की भेजी तस्वीरें खूब वायरल हुई थीं जिनमें चोटी की ओर बढ़ते लोगों की एक बहुत लंबी और ठसाठस कतार देखी जा सकती है. जिस तरह से कुछ लोग इंतजार करते दिखते हैं उससे लगता है कि बहुत धीरे धीरे ये कतार आगे की ओर खिसक रही थी.

"ट्रैफिक जाम” कहे गये दमघोंटू और विचलित कर देने वाले हालात में पर्वतारोहियों की जानें चली गईं. हालांकि कुछ तर्जुबेकार शेरपाओं और पर्वतारोहण के विशेषज्ञों के मुताबिक एवरेस्ट पर मौतों की वजह ट्रैफिक जाम नहीं बल्कि उचित व्यवस्थाओं और जानकारी का अभाव है.

मिसाल के लिए 23 बार एवरेस्ट फतह का विश्व रिकॉर्ड बना चुके दुनिया के अकेले अनुभवी पर्वतारोही, नेपाल निवासी कामी रीता शेरपा का कहना है कि एवरेस्ट की चढ़ाई करने वाले शौकिया पर्वतारोही अक्सर ये अंदाजा लगाने में चूक जाते हैं कि नीचे लौटते हुए दरअसल उनके पास पर्याप्त ऊर्जा और ऑक्सीजन भी रहनी चाहिए. और इसी घातक गड़बड़ी की चपेट में वे आ जाते हैं.

शेरपा का कहना है कि एवरेस्ट पर भीड़ स्वाभाविक है क्योंकि साल में वे बहुत गिनती के दिन होते हैं जब आसमान साफ रहता है और मौसम पर्वतारोहण के अनुकूल रहता है. ऐसे में हर पर्वतारोही इस साफ विंडो का लाभ उठाना चाहता है. यही देखते हुए नेपाल सरकार परमिट भी जारी करती है. हालांकि माना जा रहा है कि हाल की घटनाओं की वजह से नियमनिर्देशों में कुछ परिवर्तन किए जा सकते हैं.

कुछ जानकारों का मानना है कि अगर पर्वतारोही कतार दर कतार चढ़ाई कर रहे हैं तो ये आदर्श स्थिति तो नहीं कही जा सकती. इसके लिए सरकार को टूर ऑपरेटरों और ऑनलाइन सेवाओं के साथ तालमेल बनाकर एक ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे जान का जोखिम कम हो, उतने ही परमिट एकबारगी दिए जाएं जिनसे भीड़ न बने. पर्वतारोहियों को गाइड करने वाले शेरपाओं को भी अधिक चुस्त और मुस्तैद रहने की जरूरत है.

तस्वीर: picture-alliance/Pacific Press/M. Adhikari

बात पर्वतारोहण के शौकीनों की भी है कि आखिर उन्हें ऐसी खतरनाक और जटिल चोटियों पर चढ़ाई का मुकम्मल प्रशिक्षण हासिल है या नहीं. क्योंकि किसी एक व्यक्ति का कथित रोमांच और साहस दूसरे अन्य लोगों के जानलेवा भी बन सकता है. एवरेस्ट जैसी कल्पनातीत ऊंचाई को अकेले ही जीत लेने का दंभ तो व्यर्थ ही होगा.

एवरेस्ट पर ट्रैफिक, प्रदूषण और टूर ऑपरेटरों के एक बड़े नेटवर्क की सक्रियता के बीच उच्च हिमालय के अन्य क्षेत्रों में भी मुश्किलें कम नहीं हैं. जैसे उत्तराखंड को ही लें जिसकी दुर्गम चोटियों की चढ़ाई और बर्फीले इलाकों की ट्रेकिंग एक दुर्लभ रोमांच बना हुआ है. इसी रोमांच को हासिल करने के लिए देश दुनिया के ट्रेकर बड़े पैमाने पर उत्तराखंड का रुख करते हैं. लेकिन साहसिक पर्यटन के उद्योग में भी कई खामियों और मुनाफे की बढ़ती लालसा के प्रवेश ने एक नया ‘डेंजर जोन' इन शांत वादियों में निर्मित कर दिया है. लेकिन शौकिया ट्रेकर इस अदृश्य जोन को रोमांच समझकर लांघ जाते हैं और कभी सफल तो कभी निराश होकर लौटते हैं तो कुछ बदनसीब लौट भी नहीं पाते.

ट्रेक के मार्ग, विशेषज्ञों से मान्य होने चाहिए और किन क्षेत्रों में ट्रेकिंग वर्जित है, ये घोषित होना चाहिए. ट्रेकिंग और क्लाइम्बिंग से जुड़ी उत्तराखंड में करीब 500 एजेंसियां हैं और राज्य में करीब 200 चोटियां हैं जिनके लिए एडवेंचर टूरिस्ट खिंचे चले आते हैं.

तस्वीर: Imago Images/ZUMA Press/S. Gautam

जानकारों का आरोप है कि इसी का फायदा उठाकर कई कंपनियां कथित रूप से उन्हें ऐसी विकट जगहों पर जाने को तैयार कर लेती हैं जो सिर्फ उनकी कल्पना या रोमांच में हैं लेकिन जिन्हें लेकर उनके पास अक्सर कोई मानसिक या शारीरिक अनुभव, प्रशिक्षण या हेल्थ कंडीशन नहीं होती है.

विशेषज्ञों ने इस चिंता को बार बार रेखांकित किया है कि हिमालय पर ट्रेकिंग या क्लाइम्बिंग पब्लिसिटी स्टंट की तरह हो गया है जिसकी वजह से पर्वतारोहण और ट्रेकिंग की मूल भावना और वास्तविक मकसद खो गये हैं. प्रशासनिक स्तर पर भी पारदर्शिता और कड़ाई से नियमों का अनुपालन सुनिश्चित कराया जाना चाहिए. ऐसे साहसिक अभियानों में जान का जोखिम स्वाभाविक है लेकिन इस जोखिम को न्यूनतम बनाए रखना भी सबकी जिम्मेदारी है.

नये और दुर्गम रास्तों, बीहड़ों, विकराल ऊंचाइयों और बर्फीली भीषणताओं से घिरे भूगोल को भेदने का इंसानी स्वभाव रहा है जो उसे निर्धारित सीमाओं को लांघने को उकसाता या अभिप्रेरित करता है. लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर ऐसा किसी लालच, कब्जे या वर्चस्व की कामना में किया जाता है तो ये जुनून अर्थहीन और मनुष्यताविरोधी ही कहा जाएगा.

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