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एशिया के पिघलते ग्लेशियर लोगों को भागने पर मजबूर कर देंगे

टिम शाउएनबेर्ग
२२ जुलाई २०२२

गर्म हवाएं हिमालय पर्वत के उन ग्लेशियरों यानी हिमनदों को पिघला रही हैं जिन पर करोड़ों लोग निर्भर हैं. हिमनदों के पिघलने के कारण गांव बाढ़ में डूब रहे हैं और लोगों को पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

Pakistan | Die Hassanabad Brücke kollabiert
तस्वीर: -/AFP/Getty Images

उत्तरी पाकिस्तान में हसनाबाद के पास इसी साल मई में एक ग्लेशियर के टूटने से कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए थे. इसके अलावा दो पनबिजली संयंत्र और एक पुल ध्वस्त हो गए. उसी दौरान सिद्दीक बेग और उनका परिवार वहीं पर बिना पानी के संघर्ष कर रहा था. कई दिन तक हुई मूसलाधार बारिश ने 75 से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी और पानी की पाइपलाइन भी नष्ट हो गई थी.

सिद्दीक बेग इस्लामाबाद विश्वविद्यालय के हाई माउंटेन रिसर्च सेंटर में आपदा मामलों के जानकार हैं. वो कहते हैं, "हमारे घरों में पीने का पानी नहीं था, इसलिए मुझे अपने परिवार के साथ होटल का रुख करना पड़ा.”

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ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले करीब पचास लाख लोगों पर जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार पड़ रही है. एक तो बाढ़ की वजह से चारों ओर पानी ही पानी है, और दूसरी ओर पीने के पानी का संकट है.

मई में ही पाकिस्तान के जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने चेतावनी दी थी कि अप्राकृतिक गर्म मौसम की वजह से 33 हिमनद टूटने के कगार पर हैं. बेग कहते हैं कि इस इलाके के लोगों को 70 फीसदी पेयजल की आपूर्ति इन हिमनदों से ही होती है. यदि हिमनद खत्म हो गए तो बारिश के पानी से इस पेयजल की भरपाई नहीं हो सकेगी.

धरती गर्म होने के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैंतस्वीर: zhang zhiwei/Zoonar/picture alliance

अप्रैल में, पाकिस्तान में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी और तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक चला गया. इस तापमान की वजह से पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी और पानी आकर प्राकृतिक बांधों में जमा हो गया. बांधों में बहुत ज्यादा पानी भर जाने के कारण बांध टूटने लगे. बेग कहते हैं कि कुछ साल पहले तक बढ़ रहे ग्लेशियर अब स्थिर नहीं रह गए हैं. उनके मुताबिक, "यह पूरा क्षेत्र या यों कहें कि एशिया का ऊंचे पहाड़ों वाला यह भाग जलवायु परिवर्तन की मार सह रहा है. यह सच्चाई है.”

हिमालय क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग की गति दो गुनी ज्यादा 

एशिया के उच्च पर्वतीय क्षेत्र को सेंट्रल एशियन माउंटेन रीजन भी कहा जाता है और इसमें हिमालयन, कराकोरम और हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखलाएं आती हैं जो चीन से लेकर अफगानिस्तान तक फैला है. इस क्षेत्र में करीब 55 हजार ग्लैशियर हैं जिनमें पेयजल का जितना भंडार है उतना पृथ्वी पर एक साथ पेयजल कहीं नहीं है, सिवाय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के.

इन हिमनदों से पिघला हुआ जल एशिया की दस सबसे बड़ी नदियों को जीवन देता है जिन पर करीब दो करोड़ लोगों की आबादी निर्भर रहती है. 

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साल 2015 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदियां ही करीब 7.5 अरब लोगों को जीवन देती हैं. चीन की यांग्सी नदी एशिया की सबसे बड़ी नदी है तो दक्षिण-पूर्व एशिया की मेकॉन्ग नदी भी हिमालयी हिमनदों के पानी पर ही निर्भर हैं.

ग्लेशियर के पिघलने से वो बांध भी बह गया जो बिजली पैदा करने के लिए बनाया गया थातस्वीर: REUTERS

बढ़ते तापमान की वजह से इन सभी पर खतरा मंडरा रहा है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी के मुताबिक, दुनिया के मुकाबले हिमालयी क्षेत्र में तापमान करीब दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है जिसकी वजह से बर्फ पिघल रही है और बर्फबारी हो रही है. यदि दुनिया भर के नेता अपने वादे के मुताबिक वैश्विक तापमान में 1.5 फीसद कमी करने के फैसले पर अमल नहीं करते हैं तो इस शताब्दी के अंत तक दक्षिण एशिया के पहाड़ों पर जो बर्फ है, उसका आधा या फिर दो-तिहाई हिस्सा गायब हो जाएगा.

जर्मनी के एक गैर लाभकारी समूह जर्मनवॉच के क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के मुताबिक, नेपाल और पाकिस्तान उन दस प्रमुख देशों में हैं जहां जलवायु परिवर्तन का खतरा सबसे ज्यादा है, जबकि भारत और अफगानिस्तान इस मामले में शीर्ष के बीस देशों में आते हैं.

भारत में कोलकता के जीआईएस विश्वविद्यालय में ग्लेशियर मामलों के जानकार अतनु भट्टाचार्य कहते हैं, "ग्लेशियरों को निश्चित तौर पर पिघलना है.” हालांकि अभी ताजे यानी पीने योग्य पानी की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में है लेकिन भविष्य में यह कितना बचा रहेगा, यह स्पष्ट नहीं है.

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भट्टाचार्य कहते हैं कि नीति निर्धारकों को खेती के बारे में भी सोचना चाहिए जो कि इस क्षेत्र में लोगों की आमदनी और आजीविका का सबसे प्रमुख साधन है. उनके मुताबिक खेती में जल प्रबंधन और जल शोधन के क्षेत्र में निवेश करने की जरूरत है.

पनबिजली परियोजनाएं: पहले बाढ़, फिर सूखा

पिघलते हिमनदों की वजह से बिजली आपूर्ति भी प्रभावित हो रही है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के बाहरी हिस्सों में 250 से ज्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. झीलों में पानी बढ़ने से यहां भी बाढ़ आ जाती है. हर तीन में से एक बिजली संयंत्र को इस बाढ़ का अनुभव होता है और इसकी वजह से होने वाला नुकसान इनके निर्माण पर होने वाले खर्च की तुलना में कहीं ज्यादा होता है.

यहां तक कि यदि उन्हें फिर से डिजाइन किया गया तो जलाशयों के सूखने तक बिजली संकट का सामना करना पड़ेगा. भट्टाचार्य कहते हैं, "यदि हमारे पास हिमालय से आने वाले पानी की कमी है या पानी नहीं आता है तो हम बिजली नहीं पैदा कर सकते हैं.”

पिछले साल भारत ने गंगा नदी पर नये पनबिजली संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगा दी थी ताकि निचले इलाकों में नदियों के पानी के बहाव को बनाए रखा जा सके और नदियां सूखने ना पाएं. वायु प्रदूषण को कम करके ग्लेशियरों के पिघलने को रोक सकते हैं

पीने के पानी की कमी हो रही हैतस्वीर: Altaf Qadri/AP Photo/picture alliance

जीवाश्म ईंधनों के जरिए लोग उन गैसों को वायुमंडल में छोड़ते हैं जो पृथ्वी के चारों ओर ग्रीनहाउस की तरह काम करती हैं और धरती गर्म होने लगती है.

कोयला, तेल और गैस जलाने पर कालिख और पार्टिकुलेट मैटर छोड़ते हैं. हवा के जरिए ये काले पदार्थ बर्फ के ऊपर जम जाते हैं और सफेद बर्फ की तुलना में ज्यादा गर्मी सोखते हैं. इस वजह से वातावरण में कम सौर विकिरण होता है, बर्फ तेजी से गर्म होती है और पिघलने लगती है.

जानकारों का कहना है कि वायु प्रदूषण में कमी लाकर ग्लैशियरों को बचाया जा सकता है. इस इलाके में दो-तिहाई राख ईंट के भट्ठों और लकड़ियों के जलाने से पैदा होती है. इसके बाद सबसे ज्यादा प्रदूषण डीजल वाहनों से होता है. कुल प्रदूषण में डीजल वाहनों की हिस्सेदारी 7 से 18 फीसद तक होती है.

"इन लोगों को कहीं और बसाने की जरूरत है”

ग्लेशियरों के पिघलने की दर को कम करने के तरीके ढूंढ़ने के बावजूद, बेग जैसे तमाम वैज्ञानिक भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हैं. बेग का अनुमान है कि पाकिस्तान के इस पहाड़ी इलाके में करीब सत्तर लाख लोगों के ऊपर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है. वो कहते हैं, "इन लोगों को यहां से हटाकर कहीं और बसाने की जरूरत है, किसी सुरक्षित स्थान पर. लेकिन धरती को गर्म होने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देशों को रोक पाना हमारे वश में नहीं है.”

सियाचिन के नीचे गर्म पानी का झरना

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पाकिस्तान जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाली सिर्फ एक फीसदी गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है. अफगानिस्तान और नेपाल जैसे देश तो और भी कम उत्सर्जन करते हैं लेकिन उसकी तुलना में नुकसान कहीं ज्यादा झेल रहे हैं. 

लगातार आने वाली बाढ़, नष्ट हो रहे गांव, टूटी पाइपलाइनें और पेय जल की कमी को देखते हुए बेग अपने परिवार के बारे में पहले ही एक निर्णय ले चुके हैं, "एक दिन हम यहां से चले जाएंगे.”

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