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एसिड हमलों की जिम्मेदारी का सवाल

६ जून २०१५

एसिड हमलों का शिकार आम तौर पर महिलाएं होती हैं. भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग की प्रमुख ललिता कुमारमंगलम का मानना है कि बाजार में आसानी से एसिड की बोतलें उपलब्ध कराने वालों को भी हमलों की कुछ जिम्मेदारी उठानी होगी.

Indien - Opfer von Säureangriffen
तस्वीर: DW/S. Waheed

गृह मंत्रालय के आंकड़े दिखाते हैं कि एक साल पहले 66 के मुकाबले 2014 में एसिड अटैक के 309 मामले दर्ज किए गए. किसी इंसान के चेहरे को बिगाड़ने, अंधा करने या अपाहिज बनाने के लिए उस पर तेज अम्लीय तरल फेंक देना अब एक स्थापित अपराध बन चुका है. कंबोडिया के बाद इसके मामलों में बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत का नाम आता है. दुनिया भर के कुल एसिड हमलों में से 80 फीसदी का निशाना महिलाएं होती है. लंदन स्थित समाजसेवी संस्था एसिड सर्वाइवर ट्रस्ट इंटरनेशनल के अनुसार हर साल दुनिया भर में करीब 1,500 लोगों पर तेजाब का हमला होता है.

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा कुमारमंगलम कहती हैं, "जब हम कानून की बात करते हैं तो केवल उन्हीं लोगों की ओर नहीं देखना चाहिए जो एसिड फेंकते हैं, बल्कि एसिड के आसानी से उपलब्ध होने पर भी ध्यान देना चाहिए." कुमारमंगलम ने कहा, "छोटे निर्माता केवल अपनी बिक्री के बारे में सोचते हैं. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बनाई तेजाब की बोतलें किसके हाथ लग रही हैं या उसका क्या इस्तेमाल हो रहा है."

एसिड हमले का दोषी सिद्ध होने पर भारत में कम से कम 10 साल की जेल का कानून है. इसके अलावा देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट के आदेश में खतरनाक रसायनों की बिक्री पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है. मगर आज भी देश भर में बिना कोई खास लाइंसेस लिए कोई भी दुकानदार तेजाब बेच सकता है. घरेलू स्तर पर बनने वाले और घरों में कई कामों के लिए इस्तेमाल होने वाले कई रसायनों में एसिड की मात्रा खतरनाक स्तर तक होती है.

विशेषज्ञों ने पाया है कि एसिड हमले उन देशों में सबसे अधिक व्यापक हैं जहां स्त्री जाति से द्वेष की भावना आम हो, एसिड सस्ता और आसानी से उपलब्ध हो और जहां अपराधियों को सजा मिलना मुश्किल हो. तेजाब फेंके जाने के कई मामलों में पीड़ित महिला ने किसी के प्रेम, शादी या सेक्स के प्रस्ताव को ठुकराया था या फिर किसी और कारण से जलन के चलते उसे सबक सिखाने की भावना से अपराधी ने यह कदम उठाया था. कई पीड़ितों को इससे निपटने के लिए पर्याप्त आर्थिक और मेडिकल मदद भी नहीं मिलती है और कई सालों तक वे मानसिक और शारीरिक पीड़ा झेलते हैं. इसके खिलाफ 'स्टॉप एसिड अटैक' नाम का अभियान चलाने वाले समूह के आलोक दीक्षित कहते हैं, "पीड़ितों के सामने पुनर्वासन की कमी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है."

आरआर/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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