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ओपिनियन: भारत का नया सिटीजनशिप एक्ट असंवैधानिक है

देबारति गुहा
१३ दिसम्बर २०१९

मुसलमानों को तेजी से नागरिकता मिलने वाली प्रक्रिया से दूर करने का भारत का फैसला भेदभावपूर्ण है. भारत के बुनियादी बहुलवादी चरित्र को बदलने में ज्यादा देर नहीं होगी. यह कहना है डीडब्ल्यू की एशिया प्रमुख देबारति गुहा का.

Indien l Protest gegen Einbürgerungsgesetz
तस्वीर: Reuters/A. Hazarika

भारतीय नागरिकता हमेशा संविधान पर आधारित रही है, ऐसे संविधान पर जो लैंगिक भेदभाव, जाति, धर्म, श्रेणी, समुदाय या भाषा से इतर समानता पर जोर देता है.

हाल ही में पास किया गया नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी) बिल्कुल इसका उल्टा है. यह ऐसे हर आधारभूत मूल्य का उल्लंघन करता है और हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद के प्रसार को बढ़ावा देता है, वह भी एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म को नागरिकता का आधार  बनाकर.

यह असंवैधानिक कानून भारतीय संविधान के उन प्रावधानों का भी उल्लंघन और अतिक्रमण करता है जो नागरिकों के समानता के अधिकार, कानून के समक्ष समानता और संघ द्वारा भेदभाव रहित बर्ताव के अधिकार हैं.

यह विधेयक 1955 के नागरिकता कानून को बदल रहा है, उस कानून को, जो सबको साथ लेकर चलने वाले उस संयुक्त नजरिए से प्रेरित है जिसने भारत को ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन से आजादी दिलाने वाले संघर्ष की अगुवाई है. यह भारतीय नागरिकता उन लोगों को देने का रास्ता साफ करता है जो बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सताए जा रहे गैर मुस्लिम हैं.

ये लोग सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और जाहिर है हिंदू हो सकते हैं. लेकिन मुस्लिम नहीं, फिर भले ही वे सताए गए वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों, जैसे  म्यांमार के रोहिंग्या या पाकिस्तान के अहमदी.

देबारति गुहा, एशिया प्रमुख, डीडब्ल्यू तस्वीर: DW/P. Böll

मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव

इस अलगाव के पीछे तर्क क्या है? क्या मुसलमान दोयम दर्जे के इंसान है या वे इन देशों में कम बर्बरता का सामना कर रहे हैं?

यह कहा जा सकता है कि यह मुसलमानों को आम माफी या भारतीय नागरिकता से अलग करने की पहली सफल कानूनी कोशिश है. धर्म के अलावा इसका कोई और कारण नहीं है.

आम चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने पक्के तौर पर यह साफ कर दिया है कि वह मुस्लिम समुदाय को नजरअंदाज करना पसंद करेगी.

हाल ही में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या की विवादित जमीन सरकार द्वारा चलाए जा रहे ट्रस्ट को हिंदू धर्म के भगवान राम का मंदिर बनाने के लिए दे दी. विवादित जमीन पर 16वीं शताब्दी की बाबरी मस्जिद थी, जिसे हिंदू कट्टरपंथियों ने 1992 में गिरा दिया, उनका दावा था कि मस्जिद से पहले यहां राम मंदिर था.

एक तरह से सर्वोच्च अदालत ने जमीन "बड़े भाई" को दे दी और सताए गए "छोटे भाई" से कहीं और खेलने को कहा.

भले ही भारतीय गृह मंत्री अमित शाह यह कह रहे हों कि सीएबी को देश भर में लागू होने वाले एनआरसी से अलग किया जाएगा. लेकिन मेरी नजर में दोनों को एक साथ देखना चाहिए. अगर भारतीय संसद सीएबी पास कर सकती है तो एनआरसी लागू करने से उन्हें कौन रोक सकता है.

पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य में एनआरसी पहले ही 20 लाख लोगों को भारतीय नागरिकता से अलग कर चुका है. यह एक ऐसी मानवीय त्रासदी है, जिसमें लोगों को बांटा जा रहा है और नागरिकता को दस्तावेजों से जोड़ा जा रहा है. उस देश में यहां कई लोग निरक्षर हैं और जरूरी दस्तावेजों को अभाव रहता है.

सताए हुए लोग तमाम परेशानियों के साथ अत्याचार, बिखरे परिवार और राष्ट्रहीन जैसी समस्याएं झेल चुके हैं. यह बात मुसलमानों पर भी लागू होती है.

तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

राजनीतिक फायदे के लिए धर्म

तो फिर भारत में इसका विरोध क्यों नहीं हो रहा है? निश्चित रूप से कुछ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं.

बहुत से बुद्धिजीवी और आम लोगों ने इसकी आलोचना की है और सड़कों पर विरोध करने भी निकले हैं. इस आलोचना का लेकिन सांसदों पर क्या कोई असर होगा? साफ है कि नहीं.

नए नागरिकता एक्ट ने निश्चित रूप से यह दिखाया है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय कानून की तर्ज पर एक शरणार्थी नीति की जरूरत है ना कि ऐसे कानून कि जो भेदभाव और धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए करने वाली विचारधारा पर आधारित है. 

लोगों की खाद्य सुरक्षा और रोजगार जैसी अनिवार्य जरूरतों का निवारण और जाति, लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव को खत्म करने की बजाय निश्चित रूप से सीएबी एक व्यापक विभाजन और लोगों को परेशान करना शुरू करेगा.

दुर्भाग्य से अब यह कानून बन जाएगा क्योंकि संसद की दोनों सदनों ने इसे पारित कर दिया है. हैरानी यह है कि इसे संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा ने भी पास कर दिया जहां बीजेपी के पास बहुमत नहीं है.

अगर सब कुछ इसी रफ्तार से चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब भारत का बुनियादी बहुलतावादी चरित्र बदल जाएगा.

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