ओपीनियन पोल भी परखो
१९ नवम्बर २०१३इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपीनियन के प्रमुख एरिक डि कोस्टा ने 1957 के आम चुनावों में पहली बार जनमत सर्वेक्षण कराया. 90 के दशक के बाद तो इसने चुनावी पर्यावरण में अपनी लगभग एक अनिवार्य सी उपस्थिति बना ली. यानी बिना ऐसे सर्वेक्षणों के चुनावी प्रक्रिया और राजनैतिक दांव पेंच की लड़ाई अधूरी और बेरौनक लगती है. 21वीं सदी के पहले दशक में जो चुनाव भारत में हुए हैं उनमें भी ओपीनियन पोल का बोलबाला रहा, हालांकि वहां तक आते आते उनकी स्थिति कमोबेश वैसी ही हो गई थी जैसे मौसम विभाग की भविष्यवाणी को लेकर लोगों में धारणा रही है कि वे जो कहेंगे होगा उसका उलट.
एक महाचुनाव अब सामने है. इससे पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं और जिन्हें सेमीफाइनल आदि कहा जा रहा है और इन राज्यों में जनमत सर्वेक्षणों की चहल पहल देखते ही बनती है. खास कर टीवी चैनलों में तो एक अलग ही किस्म की चीख पुकार मची है. राजनीति के कई पंडित प्रकट हुए हैं और शूरवीरों की तो गिनती ही नहीं है. इस लिहाज से ओपीनियन पोल मास मीडिया के लिए खादपानी तो भरपूर उपलब्ध कराते ही हैं.
पाबंदी लगे ऐसे सर्वे पर
इस बीच एक नया मोड़ ये आया है कि चुनाव आयोग ने ओपीनियन पोल को निरर्थक करार दिया है और वो इन पर पाबंदी के पक्ष में है. रही बात राजनैतिक दलों की तो उनमें कांग्रेस ही बढ़ चढ़ कर इन सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की मांग कर रही है. कमोबेश सभी ओपीनियन पोल इस समय कांग्रेस की करारी हार की ओर इशारा कर रहे हैं. इसीलिए कांग्रेस हैरान परेशान है. लेकिन इस चिंता से अलग कुछ बातें हैं जो ओपीनियन पोल के काम करने के तरीके से जुड़ी हैं. मसलन, आखिर इनकी प्रामाणिकता क्या है. सर्वे एजेंसियां किस पैमाने पर अपना आंकड़ा जारी करती हैं. उनके सर्वे के किरदार कौन हैं. कौन सी पब्लिक होती है और कौन सा उसका हिस्सा जो इन एजेंसियों के मुताबिक अपनी राय जाहिर करता है. इस बात की क्या गारंटी है कि ओपीनियन पोल के निष्कर्ष सही हैं और उसके जुटाई रायशुमारी ही सही है, ये भी हम कैसे बता सकते हैं. उनके क्या आग्रह या पूर्वाग्रह हैं या नहीं, ये भी हम नहीं जानते.
अब इस बात का जवाब तीन तरह से दिया जा सकता है. पहला तो यही है कि इन सवालों को बेतुका बता कर खारिज कर दिया जाए. दूसरा प्रामाणिकता जांचने के लिए कोई साधन या उपकरण विकसित किए जाएं और फिर सर्वेक्षणों को परखा जाए कि वे वाकई सही हैं या नहीं. तीसरा, उलटा सवाल ही पूछ लिया जाए कि भाई अगर जनता की राय का ये मेला जुटाया भी जा रहा है तो आपको क्या कष्ट है. भारत के लोकतंत्र में और संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का भी तो कोई अर्थ है या नहीं.
कैसे कैसे सर्वेक्षण
लेकिन भारतीय राजनीति और भारतीय लोकतंत्र इस समय जिन संकटों से जूझ रहे हैं, राष्ट्रीय गौरव के नाम पर हावी उग्रताएं, सांप्रदायिक राजनीति का फैलाव, सत्ता राजनीति और कॉरपोरेट के गठजोड़ और भ्रष्टाचार की कहानियां, नव उदारवादी आंधी में डांवाडोल मध्यवर्गीय चेतना और लाखों करोड़ों लोगों का विस्थापित और वंचित जीवन, ऐसे विकट समय के चुनावी अभियानों में ओपीनियन पोल की रंगतें बेशक अभिव्यक्ति की आजादी होंगी लेकिन आखिर किसके लिए और किस शर्त पर. ये नहीं कहा जा रहा है कि ओपीनियन पोल का कामधाम और बाजार गैरवाजिब है. बेशक इस या उस राजनैतिक दल या इस या उस राजनीतिज्ञ के बारे में जितनी भी जनता का सर्वेक्षण किया गया है, उसकी राय सामने रखिए. राजनैतिक दलों को बताइये कि वे खुशफहमी या गलतफहमी में न रहें. इससे भला क्या एतराज हो सकता है लेकिन ये बातें तभी स्वीकार्य और सार्थक मानी जा सकती हैं जबकि जनमत सर्वेक्षण वाकई एक स्वस्थ, तार्किक, पारदर्शी और सही प्रक्रिया का निर्वहन कर रहे हों.
कांग्रेस के नेताओं की बेचैनी समझी जा सकती हैं. सत्ता राजनीति के अपने गुमान रहते आए हैं और उन्हें टूटने में बड़ा कष्ट होता है, फिर वो कांग्रेस हो या बीजेपी या पश्चिम बंगाल पर रिकॉर्ड शासन करने वाला लेफ्ट फ्रंट ही क्यों न हो. हर दल अपनी कमजोरी का पर्दा उठने नहीं देना चाहता. लेकिन हम यकीनी तौर पर ये नहीं कह सकते कि इस पर्दे को उठाने का निर्णायक काम ओपीनियन पोल ही करते होंगे. वे ही रेड या ग्रीन सिग्नल होते होंगे. अगर ऐसा होता तो सर्वेक्षणों का इतिहास इतनी विसंगतियों, विद्रूपों और गलतियों से भरा हुआ न होता. ज्यादा दूर न जाएं, 2004 के आम चुनाव को ही लें. जब इंडिया शाइनिंग का एनडीए का नारा कैसे औंधे मुंह गिरा था, लेकिन ओपीनियन पोल में उसका सितारा बुलंदी पर बताया गया था. इसीलिए सवाल उठते हैं कि जनमत सर्वेक्षण की प्रक्रिया में ही क्या कोई गड़बड़ निहित है.
किसका किसका फायदा
लेकिन इसके पक्षधर कहेंगे कि अतीत में कई सर्वेक्षण बिल्कुल खरे उतरे हैं. और इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी है. तो आप बिना सोचे समझे एक झटके में इस तरह का काम नहीं कर सकते कि प्रतिबंध ही लगा दो. फिर आप तमाम ऐसी जगहों और प्रक्रियाओं और अभियानों पर प्रतिबंध लगाने की ओर बढ़ेंगे जो आपको पसंद नहीं हैं. फिर वो एक तरह का नाजीवाद और फासीवाद होगा. आपको जो बुरा लगे वो समाज और सिस्टम से बाहर. इससे बड़ा और भयानक खतरा और क्या होगा.
कुल मिलाकर, ओपीनियन पोल किसी का एजेंडा न साधें, पारदर्शी बनें, सिकुड़ा हुआ सर्वेक्षण न करें तो ही बात बनती है. वरना तो ये एक्सरसाइज जनता को फैसले की अहम घड़ी में उलझाने और भ्रमित करने की चालाकी मानी जाएगी. और चालाकी कोई बिला वजह तो करता नहीं.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः अनवर जे अशरफ