पुराने दौर में इंसान का दिमाग आसानी से सजग हो जाता था. वक्त बीतने के साथ हमारे मस्तिष्क की चुनौतियां बढ़ती गईं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सूचनाओं की बाढ़ हम तक पहुंच गई. मस्तिष्क पर इसका बेहद गहरा असर पड़ रहा है.
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डिजिटल वर्ल्ड, जिसमें हर कोई एक नेटवर्क से जुड़ा है. हमारा दिमाग अकसर सूचनाओं और डाटा की सूनामी से घिरा रहता है. मस्तिष्क के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट की न्यूरो रिसर्चर याना फांडाकोवा लगातार सूचनाओं से घिरे मस्तिष्क पर रिसर्च कर रही हैं. वह कहती हैं, "आम तौर पर हमारे सामने कोई स्थिति आती है, फिर मस्तिष्क उस पर चिंतन करता है. पहले हम उसके बारे में सोचते हैं और उसके बाद ही आगे बढ़ते हैं."
लेकिन जब हमारे सामने लगातार नई नई चीजें आ रही होती हैं, तो उनके बीच तालमेल बैठाते हुए मस्तिष्क का क्या हाल होता है, याना फांडाकोवा यही जानने की कोशिश कर रह रही हैं. एक्सपेरिमेंट के लिए वह कुछ लोगों से जटिल चीजें हल करा रही हैं. स्क्रीन पर बने राक्षसों में उन्हें फर्क समझना है. सारे प्रतिभागियों को राक्षसों के अलग अलग गुणों को समझना होगा. इस दौरान कीबोर्ड पर सही कीज दबानी होंगी.
वैज्ञानिक बीच बीच में वे चीजें भी डाल देते हैं, जो काम काज और खाली समय के दौरान रोज हमारे सामने आती हैं, जैसे कोई फोन कॉल, मैसेज या नोटिफिकेशन. ऐसा होते ही हमें बहुत ही तेजी से अलग अलग किस्म की चुनौतियां से निपटना पड़ता है. इस प्रोग्राम के जरिए पता चलेगा कि आसान चुनौतियों को प्रतिभागी कितनी जल्दी खत्म करते हैं. इसके बाद उन्हें बहुत ही कम समय के भीतर अन्य कारकों जैसे, आकार, रंग या पैटर्न पर ज्यादा ध्यान देना होगा.
याना फांडाकोवा कहती हैं, "ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनमें हमारे मस्तिष्क को ध्यान देना होगा कि अलग अलग एक्शंस को अलग रखा जाए. ये ऐसी चीजें हैं जो हम आम तौर पर ऑटोमैटिकली कर लेते हैं, लेकिन इसके पीछे हमारे दिमाग की कठिन मेहनत होती है."
याना प्रतिभागियों की जांच के लिए स्कैनर का भी इस्तेमाल करती हैं. वह सीधे उनके मस्तिष्क में झांकती हैं और देखती हैं कि कौन सा हिस्सा सक्रिय है. जब इंसान को जटिल बाधा सुलझानी होती है, तो मस्तिष्क के अगले हिस्से की जरूरत पड़ती है. इसे समझाते हुए वह कहती हैं, "यह मस्तिष्क का वो हिस्सा है जो बिल्कुल माथे के पीछे होता है. यही वह अंग है जो बताता है कि इस काम में या उस काम में कितने संसाधन लगाए जाने चाहिए. जब हमें एक ही साथ अलग अलग काम करने पड़ते हैं तो दिमाग का यही हिस्सा सबसे ज्यादा परिश्रम करता है. साथ ही तय करता है कि काम आपस में मिक्स न हों."
बच्चे और किशोर ऐसी परिस्थितियों में क्या करते हैं? उम्र की वजह से वे हर वक्त बदलावों का सामना कर रहे होते हैं. वे नई चीजें बड़ी तेजी से सीखते हैं. क्या वयस्कों के मुकाबले बच्चे या किशोर, टेस्ट को ज्यादा आसानी से सुलझाते हैं? याना इसका जवाब देती हैं, "कई शोधों के जरिए हम जानते हैं कि जब हम साथ में कोई काम कर रहे होते हैं तो उत्तर खोजने में बच्चों को ज्यादा समय लगता है. और बच्चे, वयस्कों की तुलना में ज्यादा गलतियां भी करते हैं."
दिमाग के अगले हिस्से का विकास 20 साल तक होता है. अलग अलग काम मिलने पर बच्चों का ब्रेन उतनी तेजी से स्विच नहीं कर पाता, जितनी तेजी से वयस्कों का करता है. लेकिन क्या सूचनाओं की बाढ़ इस पर भी कोई असर डाल रही है?
एक ताजा शोध के मुताबिक हम हर दिन औसतन 88 बार अपना फोन चेक करते हैं. उसमें फोटो वीडियो देखते हैं, दोस्तों से चैट करते हैं और न्यूज या अन्य चीजें पढ़ते हैं. जर्मन लोग हर दिन औसतन ढाई घंटे ऑनलाइन रहते हैं. युवा तो अपने फोन या अन्य मोबाइल डिवाइसों पर करीब सात घंटे बिताते हैं.
बच्चों को रखिए स्क्रीन से दूर
टीवी, स्मार्टफोन और टैबलेट के जमाने में बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना नामुमकिन सा लगता है. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझाव के अनुसार बच्चों के विकास के लिए यह बेहद जरूरी है.
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दो साल तक कुछ नहीं
डब्ल्यूएचओ का सुझाव है कि दो साल की उम्र तक के शिशुओं को टीवी या स्मार्टफोन, किसी भी रूप में स्क्रीन नहीं दिखाना चाहिए. आम धारणा से अलग यह सुझाव बच्चों की आंखें खराब होने के डर से नहीं, बल्कि इसलिए दिया गया है ताकि बच्चे शारीरिक रूप से सक्रिय रह सकें.
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स्ट्रोलर से भी बचें
सुझाव के अनुसार इस उम्र के बच्चों को एक घंटे से ज्यादा स्ट्रोलर या कार सीट में भी नहीं रहना चाहिए क्योंकि इस तरह से वे अपने हाथ पैर ज्यादा नहीं हिला पाते हैं. साथ ही उन्हें दिन में कम से कम 30 मिनट के लिए पेट पर लेटना चाहिए. नवजात शिशुओं को 14 से 17 घंटे और चार से 11 महीने के शिशुओं को 12 से 16 घंटे सोना चाहिए.
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एक से दो साल तक
एक से दो साल तक के बच्चों के लिए दिन में कम से कम तीन घंटे की शारीरिक गतिविधि जरूरी है. इन्हें भी एक अवस्था में एक घंटे से ज्यादा तक नहीं बैठने चाहिए और 11 से 14 घंटे की नींद लेनी चाहिए. रात में कम से कम दस घंटे और बाकी का वक्त दिन में. ये बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बेहद जरूरी है.
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स्क्रीन से बचो
दो साल के बच्चे आधे घंटे तक स्क्रीन देख सकते हैं लेकिन अगर हो सके तो इससे भी बचना चाहिए. कार्टून और वीडियो गेम की तुलना में वीडियो कॉल के लिए स्क्रीन टाइम को ठीक बताया गया है. आज की आधुनिक दुनिया में जहां संयुक्त परिवार कम होते जा रहे हैं वहां बच्चों का दादा-दादी और नाना-नानी से जुड़े रहने का यह एक अहम तरीका बन गया है.
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तीन से चार साल तक
ये बच्चे एक घंटे तक स्क्रीन देख सकते हैं. बाकी के सुझाव इनके लिए भी वैसे ही हैं. बस खेल कूद के दौरान कम से कम एक घंटा ऐसा होना चाहिए जिससे वे थोड़ा थक सकें. इन बच्चों को दिन में 10 से 13 घंटे की नींद लेनी चाहिए. अगर कोई वीडियो गेम बच्चों को खेलने कूदने के लिए प्रोत्साहित करती है, तो वह दिखाई जा सकती है.
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बच्चों से बातें करें
सुझावों में यह भी कहा गया है कि बच्चों को स्क्रीन थमा देने के बजाए उनके साथ बात करनी चाहिए, उन्हें कोई कहानी सुनानी चाहिए या फिर किताब पढ़ कर सुनानी चाहिए. ऐसा करने से बच्चे को भाषा सीखने में मदद मिलती है, जबकि स्क्रीन टाइम किसी भी रूप में भाषा सीखने में मददगार साबित नहीं होता है.
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कहां कैसे नियम
अमेरिका में विशेषज्ञों की राय है कि 18 महीने तक की उम्र तक बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना चाहिए. इसी तरह कनाडा में दो साल की उम्र तक स्क्रीन ना दिखाने की हिदायत दी जाती है. जबकि ब्रिटेन में इस तरह के कोई दिशानिर्देश नहीं हैं और ना ही भारत में हैं.
इस रिपोर्ट के आने के बाद से दुनिया भर में इस पर काफी चर्चा हो रही है. अधिकतर लोगों का मानना है कि यह सैद्धांतिक रूप से तो ठीक है लेकिन व्यावहारिक नहीं है. ऐसा पहली बार है कि डब्ल्यूएचओ ने पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सुझाव दिए हैं.
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न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर हेनिंग बेक, बस का इंतजार करते समय अपना फोन बिल्कुल बाहर नहीं निकालते. वह कहते हैं, "किसी नई चीज से ज्यादा दिलचस्प और कुछ नहीं है. हम प्राकृतिक रूप से जिज्ञासु हैं, जन्म से. कौतूहल जगाने वाली चीजें हमें पसंद हैं. आधुनिक फोन बिल्कुल यही कर रहे हैं."
हेनिंग बेक, फ्रैंकफर्ट में एक थिंक टैंक का दौरा कर रहे हैं. यह संस्था भविष्य के ट्रेंड्स पर रिसर्च करती है और कंपनियों को सलाह देती है. लेना पापासाबास, सांस्कृतिक मानव विकास की विशेषज्ञ हैं. वह कुछ कारण बताती हैं. "आप जानना चाहते हैं, क्या किसी ने मुझे कुछ लिखा, क्या किसी ने मुझ तक पहुंचने की कोशिश की, क्या मुझे कोई नया लाइक मिला. हर कोई प्रतिक्रिया चाहता है. यह रेस्पॉन्स जैसा है जो किसी के साथ आपके रिश्ते की, आपके परिवेश या फिर आपके खुद से जुड़े होने की पुष्टि करता है. कोई है जो मुझे देख रहा है, सुन रहा है और इसी नतीजे के चलते मैं खुद को अच्छी तरह जीवित महसूस करता हूं."
ऐसे कई और कारण हैं जो हमें फोन चेक करने के लिए प्रेरित करते हैं. एक है, बोरियत. अमेरिका में हुआ एक शोध इसे दर्शाता है. टेस्ट में शामिल लोगों को अकेले कमरे में इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया. उन्हें ऐसी मशीन से जोड़ा गया था जिसके जरिए वे खुद को बहुत ही हल्का बिजली का झटका दे सकें. कुछ ही मिनटों के बाद बोरियत और कौतूहल के चलते दो तिहाई पुरुषों और एक चौथाई महिलाओं ने वह बटन दबाया.
लेना पापासाबास कहती हैं, "कई लोग हर जगह अपना फोन ले जाते हैं, भले ही वे दूसरे कमरे में ही क्यों न जाएं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास उनका फोन न भी हो तो वे वाइब्रेशन महसूस करते हैं या उन्हें रिंगटोन जैसी आवाज सुनाई पड़ती है. इसीलिए, मोबाइल फोन के साथ एक न्यूरोटिक एलिमेंट तो है ही."
इसके बावजूद कुछ न करना भी बहुत फायदेमंद हो सकता है. जब हम अपने दिमाग को आराम देते हैं तो रचनात्मकता को मौका मिलता है. अकसर इसी दौरान बेहतरीन आइडिया आते हैं. हमारे दोनों एक्सपर्ट इस बात पर सहमत हैं. डॉ. हेनिंग बेग कहते हैं, "अगर मैं लगातार खाता ही रहूं तो मैं फट जाउंगा. सूचना के साथ भी ऐसा ही है. मेरे मस्तिष्क के पास समीक्षा करने, प्राथमिकताएं तय करने और सोचने के लिए वक्त होना चाहिए."
और यही वजह है कि हेनिंग बेक, बस का इंतजार करते हुए अपना फोन जेब से नहीं निकालते हैं. वह बस नए अनुभव जुटाते हैं और अपने दिमाग को आराम करने या अपने हिसाब से जानकारियों को व्यवस्थित करने का समय देते हैं.
(ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर)
ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
क्या आपने भी कई बार सोचा है कि हर वक्त मोबाइल या कंप्यूटर पर फेसबुक, ट्विटर वगैरह नहीं देखा करेंगे, लेकिन ऐसा कर नहीं सके हैं? सोशल मीडिया एक क्रांति है लेकिन ये भी तो जानें कि वो आपके दिमाग के साथ क्या कर रहा है. देखिए.
तस्वीर: picture-alliance/N. Ansell
खुद पर काबू नहीं?
विश्व की लगभग आधी से ज्यादा आबादी तक इंटरनेट पहुंच चुका है और इनमें से कम से कम दो-तिहाई लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. 5 से 10 फीसदी इंटरनेट यूजर्स ने माना है कि वे चाहकर भी सोशल मीडिया पर बिताया जाने वाला अपना समय कम नहीं कर पाते. इनके दिमाग के स्कैन से मस्तिष्क के उस हिस्से में गड़बड़ दिखती है, जहां ड्रग्स लेने वालों के दिमाग में दिखती है.
तस्वीर: Imago/All Canada Photos
लत लग गई?
हमारी भावनाओं, एकाग्रता और निर्णय को नियंत्रित करने वाले दिमाग के हिस्से पर काफी बुरा असर पड़ता है. सोशल मीडिया इस्तेमाल करते समय लोगों को एक छद्म खुशी का भी एहसास होता है क्योंकि उस समय दिमाग को बिना ज्यादा मेहनत किए "इनाम" जैसे सिग्नल मिल रहे होते हैं. यही कारण है कि दिमाग बार बार और ज्यादा ऐसे सिग्नल चाहता है जिसके चलते आप बार बार सोशल मीडिया पर पहुंचते हैं. यही लत है.
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मल्टी टास्किंग जैसा?
क्या आपको भी ऐसा लगता है कि दफ्तर में काम के साथ साथ जब आप किसी दोस्त से चैटिंग कर लेते हैं या कोई वीडियो देख कर खुश हो लेते हैं, तो आप कोई जबर्दस्त काम करते हैं. शायद आप इसे मल्टीटास्किंग समझते हों लेकिन असल में ऐसा करते रहने से दिमाग "ध्यान भटकाने वाली" चीजों को अलग से पहचानने की क्षमता खोने लगता है और लगातार मिल रही सूचना को दिमाग की स्मृति में ठीक से बैठा नहीं पाता.
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क्या फोन वाइब्रेट हुआ?
मोबाइल फोन बैग में या जेब में रखा हो और आपको बार बार लग रहा हो कि शायद फोन बजा या वाइब्रेट हुआ. अगर आपके साथ भी अक्सर ऐसा होता है तो जान लें कि इसे "फैंटम वाइब्रेशन सिंड्रोम" कहते हैं और यह वाकई एक समस्या है. जब दिमाग में एक तरह खुजली होती है तो वह उसे शरीर को महसूस होने वाली वाइब्रेशन समझता है. ऐसा लगता है कि तकनीक हमारे तंत्रिका तंत्र से खेलने लगी है.
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मैं ही हूं सृष्टि का केंद्र?
सोशल मीडिया पर अपनी सबसे शानदार, घूमने की या मशहूर लोगों के साथ ली गई तस्वीरें लगाना. जो मन में आया उसे शेयर कर देना और एक दिन में कई कई बार स्टेटस अपडेट करना इस बात का सबूत है कि आपको अपने जीवन को सार्थक समझने के लिए सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया की दरकार है. इसका मतलब है कि आपके दिमाग में खुशी वाले हॉर्मोन डोपामीन का स्राव दूसरों पर निर्भर है वरना आपको अवसाद हो जाए.
तस्वीर: imago/Westend61
सारे जहान की खुशी?
दिमाग के वे हिस्से जो प्रेरित होने, प्यार महसूस करने या चरम सुख पाने पर उद्दीपित होते हैं, उनके लिए अकेला सोशल मीडिया ही काफी है. अगर आपको लगे कि आपके पोस्ट को देखने और पढ़ने वाले कई लोग हैं तो यह अनुभूति और बढ़ जाती है. इसका पता दिमाग फेसबुक पोस्ट को मिलने वाली "लाइक्स" और ट्विटर पर "फॉलोअर्स" की बड़ी संख्या से लगाता है.
तस्वीर: Fotolia/bonninturina
डेटिंग में ज्यादा सफल?
इसका एक हैरान करने वाला फायदा भी है. डेटिंग पर की गई कुछ स्टडीज दिखाती है कि पहले सोशल मी़डिया पर मिलने वाले युगल जोड़ों का रोमांस ज्यादा सफल रहता है. वे एक दूसरे को कहीं अधिक खास समझते हैं और ज्यादा पसंद करते हैं. इसका कारण शायद ये हो कि सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में अपने पार्टनर के बारे में कल्पना की असीम संभावनाएं होती हैं.