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और असुरक्षित हो रही है दुनिया

महेश झा१६ मार्च २०१५

स्टॉकहोम के शांति शोध संस्थान सिपरी के अनुसार पिछले पांच सालों में हथियारों की खरीदफरोख्त में 16 फीसदी का इजाफा हुआ है. महेश झा का कहना है कि दुनिया शांत होने के बदले और खतरनाक होती जा रही है.

तस्वीर: AFP/Getty Images/S. Loeb

हथियारों की बिक्री करने वाले देशों में अमेरिका सबसे ऊपर है तो खरीदार देशों में भारत 15 फीसदी की खरीद के साथ चोटी पर है. इसकी एक वजह तो यह है कि भारत में नाम का रक्षा उद्योग नहीं है, जो आर्थिक विकास के साथ बढ़ती चुनौतियों और बढ़ते सामरिक हितों के साथ कदम मिला सके. इसके अलावा सेना का आधुनिकीकरण करने की भी जरूरत है, जहां हथियार खरीदने की प्रक्रिया में अक्सर दसियों साल लग जाते हैं.

हालांकि पिछले एक दशक से भी अधिक समय से भारत रक्षा उद्योग में घरेलू हिस्सा बढ़ाने की बात कर रहा है लेकिन इसके लिए स्पष्ट योजना का अभाव दिखता है. स्थानीय हथियार निर्माताओं के अभाव में भारत को विदेशी तकनीक पर निर्भर रहना होगा. लेकिन इसमें भी ये समस्या दिखती है कि केवल 26 फीसदी की विदेशी भागीदारी ज्यादा आकर्षक नहीं है. पिछले सालों में भारत ने हथियारों की खरीद के लिए रूस पर निर्भरता घटाने का प्रयास किया है और अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी तथा इस्राएल से हथियार खरीदे हैं, लेकिन इन हथियारों का देश में निर्माण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'मेक इन इंडिया' नीति की सफलता पर निर्भर करेगा.

महेश झातस्वीर: DW/P. Henriksen

भारत की रक्षा जरूरतों के हिसाब से उसे चीन और पाकिस्तान से खतरा है. उसे सबसे बड़ा डर यह है कि चीन और पाकिस्तान उसके खिलाफ हाथ मिला सकते हैं. इस तथ्य को देखते हुए कि चीन की हथियारों की बिक्री का आधा से ज्यादा पाकिस्तान को जाता है, यह डर अस्वाभाविक नहीं है. सिपरी के अनुसार हथियारों की खरीद में चीन का हिस्सा 5 फीसदी तो पाकिस्तान का हिस्सा 4 फीसदी है.

हथियार भले ही सुरक्षा के लिए हों लेकिन वे लोगों की जान ही लेते हैं. अपनी सुरक्षा के लिए एक ओर भारत को पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों को रक्षा के बदले आर्थिक स्तर पर लाना होगा. जो लोग एक दूसरे के साथ कारोबार करते हैं वे एक दूसरे को मारते नहीं. जरूरत के हथियारों का देश में निर्माण कर भारत एक ओर आयात का खर्च कम कर सकता है, दूसरी ओर अपने नागरिकों को रोजगार भी मुहैया करा सकता है.

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