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और एक दिन जर्मनी कहेगा, हम कर सकते थे पर नहीं कर पाए

अलेक्जांडर कुदाशेफ/एमजे३१ अगस्त २०१६

एक साल पहले चांसलर मैर्केल ने अपना प्रसिद्ध वाक्य कहा था, "हम ये कर लेंगे." उन्होंने शरणार्थियों के लिए जर्मनी के दरवाजे खोल दिए थे. एक साल बाद मुख्य संपादक अलेक्जांडर कुदाशेफ का कहना है कि हम ये नहीं कर पाएंगे.

Deutschland Flüchtlinge bei Wegscheid
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Weigel

हम ये नहीं कर पाएंगे क्योंकि हमें पता नहीं है कि हमें करना क्या है. हम लोगों का ख्याल रखना चाहते हैं या उन्हें फौरन समाज में बसाना चाहते हैं?

क्योंकि हमें पता नहीं है कि हम कब कह पाएंगे: हमने ये कर लिया. एकीकरण के 25 साल बाद अभी भी बहुत सारे जर्मन कह रहे हैं कि हम सचमुच में एकीकृत नहीं हैं.

क्योंकि हम जिम्मेदारियों को सिर्फ तकनीकी रूप में समझ रहे हैं, सांस्कृतिक नहीं. मतलब ये कि हमें अंतरों को स्वीकार करना सीखना होगा. इसके बदले हम सोचते हैं कि शरणार्थी हमारी आबादी की समस्या को दूर कर देंगे.

शरणार्थियों को आप्रवासी बना रहे हैं हम

हम ये नहीं कर पाएंगे क्योंकि हम समझ नहीं रहे हैं कि आप्रवासी हमारे औसत आधुनिक समाज के मुकाबले ज्यादा अनुदारवादी और धार्मिक हैं.

क्योंकि हमें अंदाजा भी नहीं है दूसरी संस्कृतियों से आने वाले लोगों को यहां के समाज में रचाने बसाने के लिए किन प्रयासों की जरूरत है.

क्योंकि हमारे यहां वतन जैसा शब्द हाइमाट है लेकिन आप्रवासी शायद ही यह अहसास कराते हैं कि यह उनका भी वतन हो सकता है, भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक वतन.

क्योंकि हम आप्रवासन का देश नहीं है, हमें लगता है कि हमारे यहां आने वाले लोगों के साथ हमें विवेक से नहीं भावनाओं से पेश आना चाहिए.

अलेक्जांडर कुदाशेफ

क्योंकि हम उन्हें चुनते नहीं बस स्वीकार करते हैं

क्योंकि राष्ट्र के साथ हमारा विखंडित रिश्ता है, इसलिए खुद अपनी कोई भरोसेमंद सकारात्मक तस्वीर नहीं है, जिसे दूसरे को दे सकें. या यूं कहें: हमारी कोई निर्देशक संस्कृति नहीं है क्योंकि हमारी पितृभूमि तार तार है.

क्योंकि हम सारी बहस के बावजूद इंद्रधनुषी गणराज्य बनने को तैयार नहीं हैं, जैसा कि हमारे राष्ट्रपति कभी कभी उत्साह के साथ कहते हैं.

क्योंकि समेकन तीन पीढ़ियों तक चलने वाली सदी की चुनौती होगी और हम इस चुनौती से आंखें मूंद रहे हैं.

क्योंकि सीरिया और अफगानिस्तान के बहुत से आप्रवासी ये नहीं कर पाएंगे क्योंकि वे उच्च क्षमता वाले औद्योगिक देश जर्मनी की मांगों और गति के स्तर पर नहीं हैं.

क्योंकि बहुत से आप्रवासियों के पास हमारे मानकों के देखते हुए न तो पर्याप्त क्षमता है और न ही जानकारी.

क्योंकि "हम ये कर लेंगे" ज्यादा से ज्यादा एक मुहावरा है जो सिर्फ ये बताता है: मैं आशावान हूं.

क्योंकि जर्मन चरित्र का हिस्सा आशावादिता नहीं बल्कि डर है.

और क्योंकि एक दिन हम बोलेंगे, हम ये कर सकते थे, भले ही हम ये न कर पाए हों.

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