कट्टरपंथ से लड़ती फिल्म मुहम्मद
५ सितम्बर २०१५पैगंबर मुहम्मद की जीवनी पर "मुहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड" नाम की महंगी फिल्म बनाने वाले माजिद माजिदी कहते हैं, "पैगंबर की जिंदगी के बारे में जितनी फिल्में बनेंगी, उतना अच्छा होगा." फिल्म तीन भागों में बननी है. इसका पहला मॉन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिखाया गया, जिसमें 1,400 साल पहले के हालात दिखाए गए हैं. पैगंबर मुहम्मद का बचपन भी दिखाया गया.
माजिदी जाने माने ईरानी निर्देशक है. "चिल्ड्रेन ऑफ हेवन" नामक फिल्म बना चुके माजिदी इस्लाम की सही छवि सामने लाना चाहते हैं. 171 मिनट की फिल्म में ऑस्कर के लिए नामांकित हो चुके निर्देशक ने 3.6 करोड़ यूरो झोंके हैं. फिल्म के पीछे सात साल की मेहनत भी है. लेकिन क्या फिल्म के जरिए माजिदी इस्लाम की बिगड़ी छवि को सुधार सकेंगे? इसका जवाब देते हुए वह कहते हैं, "पश्चिम में इस्लाम के प्रति डर का जो माहौल बना है, मैं इस फिल्म के जरिए उससे लड़ना चाहता हूं. पश्चिम में इस्लाम की व्याख्या हिंसा और आतंकवाद के रूप में हो रही है."
फ्रांसीसी कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद कई लोगों को यह लगता है कि इस्लाम तार्किक बहस में यकीन नहीं रखता. माजिदी रचनात्मकता के साथ गैर मुसलमानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है. वह मानते हैं कि शार्ली एब्दो के कार्टूनिस्टों पर हमला करने, "इनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स" फिल्म के विरोध में पुतले फूंकने व सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने जैसी घटनाओं से इस्लाम की हिंसा में यकीन करने वाले धर्म की छवि बनी है.
संवेदनशीलता
इस्लाम या इसके पैगंबर मुहम्मद के बारे में नकारात्मक टिप्पणियां या तंज कसते कार्टूनों ने दुनिया भर में मुसलमानों को नाराज किया है. पैंगबर की तस्वीर दिखाना गैर इस्लामी और ईशनिंदा माना जाता है, खास तौर पर इस्लाम के बड़े धड़े सुन्नी संप्रदाय में. 1989 में ईरान के पूर्व धार्मिक नेता अयातोल्लाह खोमैनी ने भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवा जारी किया था. रुश्दी के उपन्यास "द सैटैनिक वर्सेस" पर काफी विवाद हुआ. कई मुसलमानों ने माना कि उपन्यास ने पैंगबर मुहम्मद का अपमान किया.
1993 में बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन के "लज्जा" नामक उपन्यास से भारतीय उपमहाद्वीप के कई मुसलमान नाराज हुए. बांग्लादेशी मुस्लिम संगठनों से जान बचाने के लिए नसरीन को भारत में छुपना पड़ा. 2005 में जब डेनमार्क के अखबार जिलांड्स-पोस्टेन ने जब पैगंबर मुहम्मद को कार्टून के जरिए दिखाने की कोशिश की तब भी काफी विवाद हुआ.
साहसिक प्रयास
इससे फर्क नहीं पड़ता कि माजिदी की फिल्म कैसी है और क्या यह इस्लाम के प्रति लोगों का नजरिया बदलेगी. लेकिन एक बात तय है कि माजिदी का प्रयास साहसिक है. "मुहम्मद" फिल्म इस्लाम के आतंरिक विवाद के कारण और उसके तर्क भी सामने लाती है.
कई सुन्नी विद्वानों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है. फिल्म में पैगंबर का किरदार पर्दे के पीछे से एक बच्चे ने निभाया है. मिस्र की अल-अजहर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अब्देल फतह अलवारी के मुताबिक, "यह मामला पहले ही सुलझ चुका है. शरिया पैगंबरों को शारीरिक रूप से पेश करने पर पाबंदी लगाता है. इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता क्योंकि (अदाकार) विरोधाभासी और विवादित भूमिकाओं में भी होते हैं, कभी कभार हम उन्हें नशे में धुत देखते हैं तो कभी महिलाओं के पीछे भागने वाले के रूप में और फिर वही पैगंबर की भूमिका में, इसकी इजाजत नहीं है."
फिल्म की दूसरे कारणों से भी आलोचना हुई है. मशहूर ईरानी फिल्म समीक्षक मसूद फेरासती भी फिल्म की आलोचना कर रहे हैं, "माजिदी की फिल्म अस्पष्ट और परेशान करने वाली है." फेरासती के मुताबिक पोशाक, अभिनेता और सेट उस वक्त की संस्कृति में फिट नहीं बैठ रहे हैं.
लेकिन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में धार्मिक इतिहास के विद्वान ड्वेन रायन मेनेजेस की राय अलग है. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "ऐसी फिल्म सामने आने पर धार्मिक लोग दंडात्मक आक्रोश के बजाए आस्था के प्रति अपनी शक्ति और अपनी समझ व्यक्त करने का रास्ता अपनाते हैं. एक अच्छा तरीका यह होगा कि अपने धर्म के प्रति सही नजरिया विकसित करने में मदद की जाए और धार्मिक समसरता बढ़ाने की कोशिश की जाए."
तेहरान में रहने वाले कवि और विद्वान इफ्तिखार आरिफ मानते हैं कि अति धार्मिक व्यक्ति चाहे वो इस्लाम, ईसाईयत या फिर किसी भी धर्म से जुड़़े हों, वे अपनी आस्था के प्रति संवेदनशील होते हैं, "यह सिर्फ मुसलमानों की प्रतिक्रिया नहीं है. जब मार्टिन स्कोरसेजी ने 'द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट' बनाई तब भी कट्टर ईसाई गुटों ने स्कोरसेजी और उनकी फिल्म का विरोध किया."
नेतृत्व करता ईरान
दुनिया के सामने जब मुस्लिम जगत के "नर्म छवि" की बात आती है तो ईरान इसका नेतृत्व करता दिखता है. 1976 में सीरियाई अमेरिकी निर्देशक मुस्तफा अक्कड की फिल्म "द मैसेज" शिया बहुल ईरान में खासी लोकप्रिय हुई. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक माजिदी की फिल्म भी ईरान में खासी पसंद की जा रही है.
तेहरान के सिनेमाघर में फिल्म देखने वाले 21 साल के अबुलफजल फातेही कहते हैं, "मुझे लगता है कि यह फिल्म उन लोगों के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकती है जो इस्लाम को नहीं जानते." ईरानी सिनेमा से जुड़े 25 साल के मेहंदी अजर के मुताबिक, "यह लंबी फिल्म है और शुरुआत में बोझिल लग सकती है, लेकिन दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए यह काफी है. विजुअली यह बेहद आकर्षक है."
फिल्म की तारीफ के बावजूद असली मुद्दा बरकरार है. क्या "मुहम्मद" पैगंबर और उनके धर्म के प्रति मौजूद नजरिए को चुनौती दे सकती है. जब तक मीडिया में जिहादियों द्वारा सर कलम करने या मुस्लिम व पश्चिम देशों में आत्मघाती हमलों की खबरें भरी रहेंगी तब तक एक या दो फिल्में इस्लाम के प्रति दुनिया का नजरिया नहीं बदल पाएंगी. शायद इसे बदलने के लिए मुस्लिम देशों की राजनैतिक और सामाजिक सच्चाई टटोलनी होगी.