दक्षिण भारत में कपड़ा फैक्ट्रियों से किशोर लड़कियों को रात की शिफ्ट से हटाने को कहा गया है. महिलाओं के शोषण की शिकायतों के बाद नई आचार संहिता को लागू किया गया है.
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सदर्न इंडिया मिल्स एसोसिएशन की तरफ से नई आचार संहिता जारी की गई है. इसके मुताबिक 16 से 19 साल की महिला कर्मचारी पीरियड्स के दिनों में छुट्टी ले पाएंगी और किसी भी महिला से नौ घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है. नई आचार संहिता जनवरी से लागू हो गई है.
एसोसिएशन के महासचिव सेल्वाराजू कुंडास्वामी कहते हैं, "हम फैक्ट्री मालिकों को यह समझने में मदद करना चाहते हैं कि कर्मचारियों के साथ कैसे पेश आएं, भर्ती से लेकर रिटायरमेंट तक." उनकी एसोसिएशन में सात सौ से ज्यादा सदस्य हैं.
कुंडास्वामी कहते हैं, "हम वैश्विक खरीददारों के मन में भी यह विश्वास जगाना चाहते हैं कि मजदूरों की जरूरतों पर ध्यान दिया जा रहा है और किसी भी तरह के शोषण को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा."
बांग्लादेश में राणा प्लाजा हादसे के बाद जर्मनी ने वहां कपड़ा फैक्ट्री मजदूरों की हालत में सुधार के लिए सहयोग का हाथ बढ़ाया. इस पहल के एक साल पूरा होने पर जर्मनी के आर्थिक सहयोग एवं विकास मंत्री बांग्लादेश पहुंचे.
तस्वीर: DW/S. Burman
मेड इन बांग्लादेश
दुनिया में गारमेंट्स का दूसरे नंबर का निर्यातक होने के नाते 2013 में राणा प्लाजा गार्मेंट फैक्ट्री का ढहना सुर्खियों में रहा. बांग्लादेश में कपड़ा फैक्ट्रियों में काम करने वालों की हालत में सुधार और उनकी सुरक्षा के लिए तभी से 'एकॉर्ड', 'एलायंस' और 'टेक्सटाइल्स पार्टनरशिप' जैसे कई कदम उठाए गए हैं.
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हिस्सेदारों का साथ
जर्मन पहल 'टेक्सटाइल्स पार्टनरशिप' का मकसद है गार्मेंट्स के उत्पादन के सभी हिस्सेदारों को साथ लाना. ढाका के पास गाजीपुर में डीबीएल ग्रुप टेक्सटाइल पार्टनरशिप से जुड़ा है. इस पहल से जुड़ने के बाद ग्रुप ने कई जरूरी कदम उठाए. जर्मनी के आर्थिक सहयोग एवं विकास मंत्री गैर्ड मुलर ने ग्रुप के प्रयासों की सराहना की.
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मोटरसाइकिल पर इंस्पेक्टर
फैक्ट्रियों की हालत पर नजर रखने के लिए 150 नए इंस्पेक्टरों को ट्रेनिंग दी गई है. उनको मोटरसाइकिल दी गई है ताकि वे इमरजेंसी की स्थिति में तुरंत पहुंच सकें और ट्रैफिक जैम से बच सकें.
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जागरूकता के लिए प्रयास
ज्यादातर महिला कर्मचारी अपने अधिकारों के बारे में जागरूक नहीं होती हैं. अपने मालिक से मोल तोल करने के लिए भी उन्हें पहले से जानकारी होना जरूरी है. जगह जगह 'विमेंस कैफे' बनाए गए हैं जहां वे ट्रेनिंग लेती हैं और कभी कभार साथ मिलकर लूडो खेलती हैं.
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हॉट सीट पर
गारमेंट्स फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाएं अक्सर हफ्ता भर हर रोज 10 से 14 घंटे काम करती हैं. टेक्सटाइल पार्टनरशिप का मकसद उनके काम की परिस्थितियों को सुधारना भी है.
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राजनीतिक समर्थन
बांग्लादेश के वित्त मंत्री तुफैल अहमद भी जर्मन मंत्री के साथ गाजीपुर की फैकट्री में मुआयना करने गए. उन्होंने इस भागीदारी के बारे में भी चर्चा की. कपड़ा मजदूरों की हालत में सुधार के लिए उठाए गए इस कदम में सरकार की अहम भागीदारी है.
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मिनी दमकल
एक किलोमीटर के दायरे में स्थित फैक्ट्रियों में आग लगने की स्थिति से बचाने के लिए मिनी दमकल का भी इंतजाम किया गया है.
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चाइल्ड केयर
कर्मचारियों के बच्चों के लिए फैकट्रियों को डे केयर सेंटर बनाने को प्रोत्साहित किया जा रहा है. जब मां काम पर होगी, तो बच्चे सेंटर पर सुरक्षित और निगरानी में रह सकते हैं.
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एकता का प्रदर्शन
परिवर्तन लाने के लिए बांग्लादेश और जर्मनी की सरकारों के अलावा फैक्ट्री मालिकों, खरीदारों और अन्य हिस्सेदारों को सहयोग निभाना होगा. हालांकि राणा प्लाजा कांड के बाद से स्थिति में काफी सुधार हुआ है.
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महत्वकांक्षी योजना
बांग्लादेश सरकार कपड़ों के 25 अरब डॉलर के निर्यात को देश के 50वें स्वतंत्रता दिवस यानि 2021 तक बढ़ाकर 50 अरब डॉलर तक पहुंचाना चाहती है. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने गैर्ड मुलर से इस बारे में मुलाकात के दौरान बात की.
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तेजी से बढ़ने वाले भारत के गारमेंट उद्योग में साढ़े चार करोड़ लोग काम करते हैं, जिनमें से ज्यादातर महिला ही हैं. दक्षिण भारत में तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्य इस उद्योग के बड़े केंद्र हैं. लेकिन इस उद्योग में काम करने वालों के पास बहुत ही कम कानूनी सुरक्षा है. उनकी शियाकतों पर ध्यान देने के लिए भी कोई पुख्ता व्यवस्था भी नहीं है.
बहुत से अध्ययन बताते हैं कि इन फैक्ट्रियों में कम मेहनताना, डराना-धमकाना, यौन उत्पीड़न और शोषण की शिकायतें बहुत आम हैं. ऐसी फैक्ट्रियों में मजदूरों को हफ्ते में 60 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है. एक अमेरिकी समूह 'बेटर बायर' की पिछले साल की रिपोर्ट बताती है कि सप्लायरों पर जल्दी से जल्दी और कम से कम कीमत में ऑर्डर पूरा करने का दबाव होता है और ऐसे में फैक्ट्ररियों में काम करने वाले लोग ही पिसते हैं.
एसोसिएशन की नई आचार संहिता कहती है कि फैक्ट्रियां 16 साल से कम उम्र के व्यक्ति को काम पर नहीं लगाएंगी और किसी भी मजदूर से दिन में नौ घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जाएगा. वैसे ये संहिता स्वैच्छिक है यानी यह कानूनी रूप से बाध्य नहीं है.
संहिता में यौन उत्पीड़न के साथ साथ मातृत्व अवकाश, प्रवासी मजदूरों और न्यूनतम वेतन की बात भी की गई है. इनके मुताबिक किसी महिला को गर्भवती होने पर नौकरी से नहीं निकाला जा सकता. इस संहिता का मकसद फैक्ट्रियों की मदद करना है ताकि वे अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों को पूरा कर सकें.
तमिलनाडु महिला आयोग की प्रमुख कन्नागी पैकियानाथन कहती हैं, "यह संहिता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नियोक्ताओं को नए कानूनों के बारे में जानकारी देती है और इससे कपड़ा उद्योग में काम करने वाली हजारों महिलाओं के लिए एक सुरक्षित माहौल तैयार होगा."
वह कहती हैं, "जहां तक महिलाओं का सवाल है तो हम मिलकर उनके लिए बुनियादी नियम तय कर रहे हैं और यौन हिंसा की रोकथाम के लिए बने कानूनों को लागू करने पर भी जोर दे रहे हैं."
एके/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
बांग्लादेश का दर्द
24 अप्रैल 2013 को बांग्लादेश में एक कपड़ा फैक्ट्री की इमारत गिरने से 1100 लोगों की जान गयी. एक साल बाद भी मारे गए लोगों के परिजन उस सदमे से उभर नहीं पाए हैं.
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हादसे की जगह
हादसे के एक साल बाद भी राना प्लाजा पर शोक का माहौल है. इसी जगह आज से एक साल पहले 1100 लोगों की जान गयी.
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निराशा और गुस्सा
पिछले एक साल से मारे गए लोगों के परिजन हर रोज मुआवजे की राशि के लिए चक्कर लगा रहे हैं. कई लोगों को अब तक कोई जवाब नहीं मिला है.
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कुछ सुराग
जिस वक्त यह हादसा हुआ राना प्लाजा इमारत में तीन हजार से ज्यादा लोग मौजूद थे. दमकल दल ने लाशों की खोज मई 2013 में खत्म की.
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सिर्फ फैक्टरी नहीं
राना प्लाजा कई मंजिलों वाला एक बड़ा सा कॉम्प्लेक्स है जिसमें फैक्टरियों के अलावा शॉपिंग मॉल भी था. यहां लोग रोजमर्रा का सामान खरीदने आया करते थे.
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फिर इस्तेमाल
मलबे में से जो कुछ भी मिला उसे दोबारा इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है, चाहे वह पार्किंग में रखी गाड़ियों के पुर्जे हों या पहिए.
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चेतावनी के बाद भी
हादसे से एक दिन पहले ही कई कमरे खाली करा लिए गए थे. इमारत की दीवारों में दरारें देखी गयी थीं. लेकिन इसके बाद भी कपड़ा फैक्ट्री में काम जारी रखा गया.
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शोषण का प्रतीक
यह जगह आज पूरी दुनिया के लिए शोषण का प्रतीक बन गयी है. जिन गरीबों की जान गयी, वे पश्चिमी देशों की बड़ी बड़ी कंपनियों के लिए कपड़े बनाया करते थे.
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क्या पैसा काफी है?
रेहाना अख्तर आठ घंटे तक मलबे के नीचे दबी रहीं. उनकी बायीं टांग को बचाया नहीं जा सका. उन्हें साढ़े सात लाख रुपये का मुआवजा दिया गया है, पर क्या केवल पैसा ही काफी है?
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दबाव में
बांग्लादेश की पांच हजार कपड़ा फैक्ट्रियों में करीब चालीस लाख मजदूर बुरे हालात में काम करते हैं. इनमें से अधिकतर महिलाएं हैं.
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सुरक्षा
इस हादसे के बाद से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान फैक्ट्रियों की सुरक्षा की ओर गया है. आग लगने की स्थिति में आपात निकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है.
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बेहतर वेतन
इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले लोग महीने में बस चार हजार रुपये ही कमा पाते हैं. बेहतर वेतन की मांग हो रही है.